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दरअसल : महाराष्ट्र,मराठी सिनेमा और सिनेमाघर

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-अजय ब्रह्मात्मज     7 अप्रैल 2015 को महाराष्ट्र सरकार के संस्कृति मंत्री विनोद तावड़े ने विधान सभा में घोषणा की कि अब से महाराष्ट्र के सभी मल्टीप्लेक्स में प्राइम टाइम पर मराठी फिल्में दिखाना अनिवार्य होगा। कुछ लोग घोषणा की तह में गए बिना इसे महाराष्ट्र सरकार का एक और थोपा गया आदेश मान रहे हैं। राजनीतिक पार्टियां इस पर आधारहीन बहसें कर रही हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सिर्फ विरोध के नाम पर विरोध किया जा रहा है। हमें किसी भी विरोध के पहले वस्तुस्थिति को समझना होगा। संदर्भ हिंदी सिनेमा है,इसलिए इस घोषणा और चल रही बहस का राष्ट्रीय महत्व है।     2010 में तत्कालीन कांग्रेस-एनसीपी की सरकार ने फैसला लिया था कि प्रदेश के सभी मल्टीप्लेक्स में मराठी फिल्मों के कम से कम 124 शो होने चाहिए। इस फैसले से फायदा हुआ। पिछले पांच सालों में मराठी सिनेमा में तेजी से विकास हुआ है। कमर्शियल और आर्टिस्टिक दोनों तरह की फिल्में बन रही हैं। इस साल फिल्मों के नेशनल अवार्ड में मराठी फिल्म कोर्ट को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला है। यह फिल्म 17 अप्रैल को रिलीज हो रही है। मल्टीप...

तनु वेड्स मनु रिटर्न्‍स

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-हालत देख रहे हैं ? अदरख हो गया है यह आदमी। कहीं से भी बढ़ रहा है। -शादी से पहले मैं रितिक रोशन था क्‍या ? ( यो रितिक रोशन का भी तलाक हो ताता है, है ना ?) >>>>>>>> >>>>>> >> थारे लागाई लागै तो म्‍हारै जैसी ही है। पर मैं थारै लगााई ना हूं। म्‍हारै नाम है कुमारी कुसुम सांगवान। कुमारी कुसुम संगवान और मनोहर शर्मा के बीच क्‍या होगा ? आनंद राय लेकर आ गए हैं तनु वेड्स मनु की अगली कड़ी। चार सालों के बाद आ रहे इस सीक्‍वल में सभी चार साल बड़े हो गए हैं। हालांकि कहानी ने सात साल का जंप लिया है। कुछ नए किरदार भी आ गए हैं। अपने पप्‍पी भैया तो हैं हीत्र कुमारी कुसुम सांगवान भी गजब ढा रही है। यह एथलीट खेलने के समान बोलने में भी तेज है और बेलाग बातें करती है। आखिर मेंशरमा भी जाती है अपना नाम लेते हुए।

ई ससुरी NET NEUTRALITY है क्या बे ? -अनुभव सिन्‍हा

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अनुभव सिन्‍हा का यह जरुरी लेख चवन्‍नी के पाठकों के लिए। इसे मैंने उनके ब्‍लॉग से जस का तस उठा लिया है। उन्‍होंने एक बड़ी जिम्‍मेदारी निभाई। मैा तो सिर्फ हाथ बंटा रहा हूं। उनका लिखा बांट रहा हूं।  -अनुभव सिन्‍हा  मैंने मेरे एक डायरेक्टर फ्रेंड से पूछा कि net neutrality के लिए कर क्या रहे हो।  वो थोड़ा शर्मिंदा हो गया और बोला सुन तो रहा हूँ की कुछ चल रहा है पर सच कहूँ तो समझ नहीं आ रहा कि है क्या ये। मैं थोड़ा चिंता में पड़ गया। अगर पढ़े लिखे लोग अनभिज्ञ हैं तो किसी और को क्या समझ आएगा।  सोचा चार लाइनें लिख देता हूँ, चार लोगों को भी समझा पाया तो काफी होगा।  अंग्रेजी में काफी बातें उपलब्ध हैं नेट पे, हिंदी में कम है।  मैं इंजीनियर भी हूँ और भैय्या भी सो सोचा हिंदी वाली ज़िम्मेदारी मैं निभा देता हूँ। पहली बात, इंटरनेट है क्या ।  दुनिया भर में हज़्ज़ारों लाखों करोड़ों कम्प्यूटर्स हैं जो आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।  किसी कंप्यूटर पर संगीत है, तो किसी पर भूगोल तो किसी पर इतिहास तो किसी पर और कुछ तो किसी पर सब कुछ।  ये सारा कुछ मिला क...

समय की क्रूरता से टकराती एन एच 10 - विनोद अनुपम

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http://singletheatre.blogspot.in/2015/04/10.html कहानी कोई नई नहीं,हिन्दी में अब तक सौ से ज्यादा फिल्में बन चुकी होंगी जिसमें नायिका अपने और अपने पति पर हुए अन्याय का हिंसक बदला लेती है। ‘ एन एच 10 ’ की कहानी भी वहीं से चलती वहीं खत्म होती है,लेकिन खत्म होने के पहले हरेक मोड और घुमाव पर यह जिन जिन सवालों से टकराती है,वह इस फिल्म को एक नई ऊंचाई पर खडी करती है।हाल के वर्षों में आयी फिल्मों में ‘ एन एच 10 ’ को ऐसी कुछेक फिल्म में शामिल किया जा सकता है जो फ्रेम दर फ्रेम उंची उठती चली जाती है,पूरी फिल्म में ऐसे मौके विरले ढूंढे जा सकते हैं,जहां लगे कि लेखक निर्देशक के पास कहने के लिए कुछ नहीं है।और वह अपनी शून्यता की भरपाई खूबसूरत दृश्यों या आइटम नंबर या भारी भरकम संवादों से करने की कोशिश कर रहा है।निर्देशक नवदीप सिंह की कुशलता इसी से समझी जा सकती है कि महिला सशक्तीकरण,ऑनर कीलिंग,उपभोक्तावाद,शहरीकरण,कानून व्यवस्था,पुलिस व्यवस्था,पंचायती राज और समस्याओं के प्रति समाजिक चुप्पी जैसे मुद्दों को उधेडती यह फिल्म दृश्यों के सहारे ही संवाद करती है,यहां शब्दों की अहमियत बस दृश्य को सपो...

छोड़ दी है कंफर्ट जोन : अभिषेक बच्चन

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-अजय ब्रह्मात्मज ‘हैप्पी न्यू ईयर’ की शूटिंग, प्रोमोशन और रिलीज की व्यस्तता के बाद मैं कबड्ड़ी और फुटबॉल जैसे खेलों में लीन हो गया था। काफी व्यस्त रहा। खेलों को लेकर कुछ करने का सपना था, वह पूरा हुआ। कबड्डी और फुटबॉल दोनों खेलों के सफल आयोजन से बहुत खुशी मिली। ‘हैप्पी न्यू ईयर’ भी लोगों को पसंद आई। फिल्म में अपना काम सराहा जाता है तो बहुत अच्छा लगता है। कोई शिकायत नहीं है मुझे। हां, भूख बढ़ गई है।     भूख एक्टिंग की बढ़ी है। इन दिनों ‘हेरा फेरी 3’ और ‘हाउसफुल 3’ की शूटिंग कर रहा हूं। मेरे लिए दोनों ही फिल्में चुनौतीपूर्ण हैं। दोनों सफल रही हैं। उनकी अपनी एक प्रतिष्ठा है। चुनौती यह है कि मुझे उस प्रतिष्ठा के अनुकूल होना है। ‘हेरा फेरी 3’ में जॉन अब्राहम, परेश रावल और सुनील शेट्टी के साथ हाव-भाव मिलाना है तो ‘हाउसफुल 3’ में अक्षय कुमार, रितेश देशमुख और बोमन ईरानी के साथ खड़ा होना है। ये सभी कलाकार इन फिल्मों से वाकिफ हैं। दर्शक भी उन्हें देख चुके हैं। मैं दोनों फिल्मों में नया हूं। गौर करें तो दोनों फ्रेंचाइजी फिल्मों के प्रशंसक और दर्शक हैं। मुझे उन्हें संतुष्ट करना है। स...

फिल्म समीक्षा : एक पहेली-लीला

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-अजय ब्रहमात्मज स्टार: 1.5 अगर बॉबी खान की 'एक पहेली-लीला' को किसी फिल्म के बजाय वीडियो म्यूजिक संकलन के तौर पर देखा जाए तो यह मधुर, रंगीन और आकर्षक है। निर्देशक ने फिल्म को ग्लैमरस बनाने का हर इंतजाम किया है। लंदन से जोधपुर और जैसेलमेर तक के लैंडस्केप हैं और उन सबके बीच खूबसूरत सनी लियोनी हैं। फिल्म में कई बार उनके लिए 'हॉट' शब्द का इस्तेमाल किया गया है। बॉबी खान अपनी इस 'हॉट' एक्ट्रेस का ऑनस्पॉट उपयोग करते हैं। कथाभूमि पर गौर न करें कहानी लंदन से जोधपुर, जैसेलमेर शहरों तक तो आती ही है, समय के हिसाब से सदियों पीछे भी चली जाती है। प्रेम, पुनर्जन्म, पॉपुलर म्यूजिक, फैशन, फोटोग्राफी, स्टेज परफॉरमेंस जैसी चुनी हुई घटनाओं और प्रसंगों के साथ फिल्म तैयार कर ली गई है। तर्क, कंटीन्यूटी और कथाविस्तार की बारीकियों में जाने पर उलझ जाने का खतरा रहेगा। कहानी एक साथ वर्तमान और अतीत में घूमती है। अतीत की लीला और वर्तमान की मीरा सनी लियोनी हैं। बाकी पुनर्जन्म में आए किरदारों के चेहरे बदल गए हैं। चेहरा वही रखा जाता तो क्लाइमैक्स का विस्मय खत्म हो जाता। ...

फिल्म समीक्षा : धर्म संकट में

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 -अजय ब्रहमात्मज  स्टारः 2.5 धर्म पर इधर कई फिल्में आई हैं। 'ओह माय गॉड','पीके' और 'दोजख' के बाद 'धर्म संकट में' भी इसी कैटेगरी की फिल्म है। यहां भी धर्म और धार्मिकता के पहलू को एक अलग नजरिए से उठाया गया है। फिल्म के नायक या मुख्य अभिनेता परेश रावल हैं। वो इसके पहले 'ओह माय गॉड' में दिखे थे। यह फिल्म इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि वे फिलहाल भाजपा के सांसद हैं। 'धर्म संकट में' ब्रिटिश कॉमेडी फिल्म 'द इनफिडेल' से स्पष्ट रूप से प्रेरित है। मूल फिल्म की तरह इस फिल्म में भी धर्म और धार्मिक पहचान के संकट का चित्रण कॉमिकल रखा गया है। ऐसी फिल्मों के लिए परेश रावल उपयुक्त कलाकार हैं। और उन्होंने धर्मपाल के किरदार को अच्छी तरह निभाया है। धर्मपाल त्रिवेदी पारिवारिक व्यक्ति हैं। अपनी बीवी और बेटी-बेटे के साथ वे सुखी और सानंद दिखते हैं। उनके पड़ोस में मुसलमान नवाब महमूद नाजिम अली शाह खान बहादुर रहने चले आए हैं। धर्मपाल मुसलमानों को लेकर हमेशा खफा रहते हैं। खान बहादुर से उनकी बक-झक होती है। वे भला-बुरा सुनाते हैं।...

दरअसल : चौतरफा कटौती की कोशिश

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-अजय ब्रह्मात्मज     हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की बढ़ती मुश्किलों में ये एक मुश्किल रिलीज के समय प्रचार का बढ़ता खर्च है। कभी रिलीज के समय पोस्टर लगाने मात्र से काम चल जाता था। अखबारों में बॉक्स विज्ञापन आते थे। साथ ही शहर के सिनेमाघरों की सूची के साथ उनमें चल रही फिल्मों का उल्लेख कर दिया जाता था। निर्माता के साथ ही वितरक और प्रदर्शक की भी जिम्मेदारी रहती थी कि वह दर्शकों तक फिल्म की जानकारी पहुंचाए। जिम्मेदारी की इस बांट से निर्माता का आर्थिक बोझ हल्का रहता था। पिछले एक-डेढ़ दशक में परिदृश्य बदलने से अभी निर्माता पर ही अधिकांश भार पड़ता है। आक्रामक प्रचार और मीडिया के बढ़ते प्रकल्पों से भी प्रचार के खर्च में इजाफा हुआ है। अभी स्थिति यह है कि फिल्म चाहे जितनी भी छोटी या सीमित बजट की हो,उसके प्रचार पर 3-4 करोड़ का खर्च आता ही आता है।     होर्डिंग्स,मीडिया खरीद,टीवी के विज्ञापन,बसों और ऑटो पर चिपके बैनर,रेडियो और अन्य माध्यमों पर खर्च का अनुपात लगातार बढ़ता जा रहा है। पॉपुलर स्टार के बिग बजट की फिल्मों का प्रचार खर्च तो आराम से 40-50 करोड़ तक पहुंच जाता है। व्...

खुद को खुश रखती है तापसी पन्‍नू

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- अजय ब्रह्मात्मज     मैं हमेशा खुद को खुश रखती हूं। मुझे नहीं लगता कि जिंदगी में कुछ भी इतनी तकलीफ दे कि जीना मुहाल हो जाए। खुशी तो अपनी पसंद की चीज है। मेरे पास खुश रहने के सौ बहाने हैं। मैं क्यों दुखी रहूं? मैं फिल्मों में काम करती हूं। यहां खुश रहना मुश्किल काम है। मुझे खुद को हिलाना-ड़लाना पडता है। कई चीजों से खुद को काटना पड़ता है। जबरदस्त प्रतियोगिता और होड़ है। मिलनेवाला हर व्यक्ति यही पूछता है कि अभी क्या कर रही हो? उन्हें यही जवाब देती हूं कि पहले जो किया है,उसकी खुशी तो मना लूं। मुझे पूछ कर तनाव मत दो। हम सब इसी होड़ में लगे रहते हैं कि अभी कुछ ऐसा करें कि चार साल बाद खुश हों। ऐसे लोग चार साल बाद भी खुश नहीं रहते। वे उस समय पांच साल बाद की खुशी के यत्न में लगे रहते हैं। कभी भी जिंदगी समाप्त नहीं होती। आप सोच कर देखें तो जितने आप से ऊपर हैं,उतने ही आप से नीचे भी हैं। जिंदगी के हर दिन को जीना जरूरी है। यह सोचना ठीक नहीं है कि मुझे ये नहीं मिला,वो नहीं मिला। अरे जो मिला है,उसे तो एंज्वॉय करो।     मैं तो कुछ नहीं होता है तो भगवान से पूछती हूं कि आप मेर...

हर बारीकी के लिए परिश्रम - श्रुति तिवारी छाबड़ा

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-श्रुति तिवारी छाबड़ा  पिछले साल जब सुनने में आया की दिवाकर ब्‍योमकेश बक्शी पर फिल्म बना रहे है तो सोचा कौन देखने जाएगा ऐसे फिल्म। बचपन में रजित कपूर को ब्योमकेश का किरदार निभाते देखा था और मन मे ऐसी धारणा थी की कौन ले सकता है उनका स्थान। फिर एक हफ्ते पहले फिल्म के  ट्रेलर को देखा और सोचा कि देखना चाहिए। आखिर दिवाकर कोई ऐसे वैसे फ़िल्मकार नहीं है।  फिल्म का बैकग्राउण्ड 1942 के कोलकाता मे सेट है। फिल्म के शुरू होने से लेकर अंत तक कहीं भी ऐसा नहीं प्रतीत होता कि उस एरा को दिखाने में फिल्मकार से कहीं भी ज़रा सी चूक हुई है। हाथ रिक्शा से लेकर हिन्दी statesman अखबार और यहाँ तक कि पुरानी ट्राम तक यह एहसास दिलाती है कि दिवाकर को ऐस्थेटिक की कितनी समझ है और कितना परिश्रम किया गया है एक-एक बारीकी के लिए। यह आसान काम नहीं है। 2015 में 1942 क्रिएट करना। इसके लिए आर्ट डायरेक्‍टर कि भी खुले दिल से प्रशंसा करने के योग्य है।  जहां तक कहानी की बात है तो ब्‍योमकेश बक्शी एक डिटैक्टिव सीरीज़ थी जो शर्लाक होम्स कि तर्ज़ पर लिखी गयी थी। यह उस वक़्त कि बात थी जब फोरेंसिक अपन...