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यश चोपड़ा पर अमिताभ बच्‍च्‍न के भावभीने शब्‍द

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44 वर्षों का साथ , जो कि 1968 में शुरू हुआ , 2012 में अचानक और समय से पहले समाप्त हो गया . इन ४४ वर्षों में , कला के क्षेत्र में यश जी का जो योगदान रहा , देश विदेश में , जग जाहिर है . परन्तु मैंने उन्हें हमेशा एक घनिष्ठ मित्र और एक अद्भुत इंसान के रूप में पाया . नाम और शोहरत के साथ साथ मित्रता और इन्सानियत को साथ लेकर , अपना जीवन व्यतीत करना , ये कोई सरल काम नहीं है . लेकिन यश जी में ऐसे ही गुण थे . मैंने उनके साथ इस लम्बे सफ़र में , बहुत कुछ सीखा और जाना . बहुत से सुखद और दुखद पल बिताये . काम के प्रति जो उनकी लगन , निष्ठा, और उत्साह था , उससे उन्होंने मुझे भिगोया - इसके लिए मैं सदा उनका आभारी रहूँगा . इतने वर्ष उनकी संगत में रहकर , जो उनमें एक महत्वपूर्ण बात देखी, वो ये कि मैंने उन्हें कभी भी किसी के साथ अपना क्रोध व्यक्त करते नहीं देखा . कभी भी किसी के साथ ऊंचे स्वर में बात करते नहीं देखा . ऊंचा स्वर उनका था , लेकिन अपने काम के प्रति उल्ल्हास व्यक्त करने के लिए होता था , क्रोध नहीं . परिस्थिति चाहे कुछ भी रही हो , उनका स्वभाव हमेशा शांत रहा . मिलनसार व्यक्ति...

मुंबई का अपना फिल्म फेस्टिवल

-अजय ब्रह्मात्मज देश में चल रहे छोटे-बड़े सभी तरह के फिल्म फेस्टिवल को मुंबई फिल्म फेस्टिवल से सीखने की जरूरत है। मुंबई एकेडमी ऑफ मूविंग इमेजेज(मामी) इसे आयोजित करता है। इस फेस्टिवल की खासियत है कि इसके आयोजकों में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की कुछ नामवर हस्तियां जुड़ी हुईं हैं। शुरुआत से इसके चेयरमैन श्याम बेनेगल हैं। उनके मार्गदर्शन में मुंबई फिल्म फेस्टिवल साल-दर-साल मजबूत और बेहतर होता गया है। अभी इसकी इंटरनेशनल पहचान और लोकप्रियता भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया से अधिक है। फिल्मों के चयन, उनके प्रदर्शन, ज्यूरी मेंबर और देश-विदेश के आमंत्रित फिल्मकारों की सूची मात्र ही देख लें तो मुंबई फिल्म फेस्टिवल की बढ़ती महत्ता समझ में आ जाती है।     फिल्म फेस्टिवल किसी भी प्रकार आमदनी का आयोजन नहीं है। इसे सरकारी या गैर-सरकारी आर्थिक सहयोग से ही दक्षतापूर्वक आयोजित किया जा सकता है। मुंबई फिल्म फेस्टिवल को आरंभ से ही रिलायंस का सहयोग मिलता रहा है। एक-दो सालों के व्यवधानों के बावजूद महाराष्ट्र सरकार का समर्थन भी इसे हासिल है।...

फिल्‍म रिव्‍यू : चक्रव्‍यूह

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-अजय ब्रह्मात्मज  पैरेलल सिनेमा से उभरे फिल्मकारों में कुछ चूक गए और कुछ छूट गए। अभी तक सक्रिय चंद फिल्मकारों में एक प्रकाश झा हैं। अपनी दूसरी पारी शुरू करते समय 'बंदिश' और 'मृत्युदंड' से उन्हें ऐसे सबक मिले कि उन्होंने राह बदल ली। सामाजिकता, यथार्थ और मुद्दों से उन्होंने मुंह नहीं मोड़ा। उन्होंने शैली और नैरेटिव में बदलाव किया। अपनी कहानी के लिए उन्होंने लोकप्रिय स्टारों को चुना। अजय देवगन के साथ 'गंगाजल' और 'अपहरण' बनाने तक वे गंभीर समीक्षकों के प्रिय बने रहे, क्योंकि अजय देवगन कथित लोकप्रिय स्टार नहीं थे। फिर आई 'राजनीति.' इसमें रणबीर कपूर, अर्जुन रामपाल और कट्रीना कैफ के शामिल होते ही उनके प्रति नजरिया बदला। 'आरक्षण' ने बदले नजरिए को और मजबूत किया। स्वयं प्रकाश झा भी पैरेलल सिनेमा और उसके कथ्य पर बातें करने में अधिक रुचि नहीं लेते। अब आई है 'चक्रव्यूह'। 'चक्रव्यूह' में देश में तेजी से बढ़ रहे अदम्य राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन नक्सलवाद पृष्ठभूमि में है। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में कुछ किरदार रचे गए हैं। ...

फिल्‍म समीक्षा : स्टूडेंट ऑफ द ईयर

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-अजय ब्रह्मात्मज देहरादून में एक स्कूल है-सेंट टेरेसा। उस स्कूल में टाटा(अमीर) और बाटा(मध्यवर्गीय) के बच्चे पढ़ते हैं। उनके बीच फर्क रहता है। दोनों समूहों के बच्चे आपस में मेलजोल नहीं रखते। इस स्कूल के डीन हैं योगेन्द्र वशिष्ठ(ऋषि कपूर)। वे अपने ऑफिस के दराज में रखी मैगजीन पर छपी जॉन अब्राहम की तस्वीर पर समलैंगिक भाव से हाथ फिराते हैं और कोच को देख कर उनक मन में ‘कोच कोच होने लगता है’। करण जौहर की फिल्मों में समलैंगिक किरदारों का चित्रण आम बात हो गई है। कोशिश रहती है कि ऐसे किरदारों को सामाजिक प्रतिष्ठा और पहचान भी मिले। बहरहाल, कहानी बच्चों की है। ये बच्चे भी समलैंगिक मजाक करते हैं। इस स्कूल के लंबे-चौड़े भव्य प्रांगण और आलीशान इमारत को देखकर देश के अनगिनत बच्चों को खुद पर झेंप और शर्म हो सकती है। अब क्या करें? करण जौहर को ऐसी भव्यता पसंद है तो है। उनकी इस फिल्म के लोकेशन और कॉस्ट्युम की महंगी भव्यता आतंकित करती है। कहने को तो फिल्म में टाटा और बाटा के फर्क की बात की जाती है, लेकिन मनीष मल्होत्रा ने टाटा-बाटा के प्रतिनिधि किरदारों को कॉस्ट्युम देने में भेद नहीं रखा है। रोहन और अभिम...

फिल्‍म समीक्षा : डेल्‍ही सफारी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सबसे पहले निखिल आडवाणी को इस साहस के लिए बधाई कि उन्होंने एनीमेशन फिल्म को धार्मिक, पौराणिक और मिथकीय कहानियों से बाहर निकाला। ज्यादातर एनीमेशन फिल्मों के किरदार आम जिंदगी से नहीं होते। 'डेल्ही सफारी' में भी आज के इंसान नहीं हैं। निखिल ने जानवरों को किरदार के रूप में चुना है। उनके माध्यम से उन्होंने विकास की अमानवीय कहानी पर उंगली उठाई है। मुंबई के सजय गाधी नेशनल पार्क में युवराज पिता सुल्तान और मा के साथ रहता है। जंगल के बाकी जानवर भी आजादी से विचरते हैं। समस्या तब खड़ी होती है, जब एक बिल्डर विकास के नाम पर जंगलों की कटाई आरंभ करता है। बुलडोजर की घरघराहट से जंगल गूंज उठता है। सुल्तान बिल्डर के कारकुनों के हत्थे चढ़ जाता है और मारा जाता है। पिता की मौत से आहत युवराज देश के प्रधानमत्री तक जंगल की आवाज पहुंचाना चाहता है। इसके बाद डेल्ही सफारी शुरू होती है। युवराज और उसकी मा के साथ बग्गा भालू, बजरंगी बदर और एलेक्स तोता समेत कुछ जानवर दिल्ली के लिए निकलते हैं। दिल्ली की रोमाचक यात्रा में बाधाएं आती हैं। सारे जानवर प्रवक्ता के तौर पर एलेक्स तोता को ...

मटरू की बिजली का मन्डोला का नामकरण

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  विशाल भारद्वाज ने मकड़ी,मकबूल और ओमकारा के बाद पहली बार सात खून माफ में तीन शब्दों का टायटल चुना था। इस बार उनकी फिल्म के टायटल में पांच शब्द हैं-मटरू की बिजली का मन्डोला। फिल्म के नाम की पहली घोषणा के बाद से ही इस फिल्म के टाश्टल को लेकर कानाफूसी चालू हो गई थी। एक तो यह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अंगेजीदां सदस्यों के लिए टंग ट्विस्टर थ और दूसरे इसका मानी नहीं समझ में आ रहा था। बहुत समय तक कुछ लोग मटरू को मातृ और मन्डोला को मन डोला पढ़ते रहे। विशाल भारद्वाज ने इस फिल्म के टायटल की वजह बताने के पहले एक किस्सा सुनाया। जावेद अख्तर को यह टायटल पसंद नहीं आया था। उनहोंने विशाल से कहा भी कि यह कोई नाम हुआ। उनकी आपत्ति पर गौर करते हुए विशाल ने फिल्म का नाम खामखां कर दिया। वे अभी नए टायटल की घोषणा करते इसके पहले ही विशाल के पास जावेद साहब का फोन आया- आप ने खामखां नाम जाहिर तो नहीं किया है। मुझे पहला टायटल ही अच्छा लग रहा है। किसी मंत्र का असर है उसमें। आप तो मटरू की बिजली का मन्डोला टायटल ही रखो। इस फिल्म के गीत के लिए जब विशाल अपने गुरू और गॉडफादर गुलजार से मिले तो व...

70 वें जन्मदिन पर अमिताभ बच्चन से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत

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-अमिताभ बच्चन का जीवन देश का आदर्श बना हुआ है। पिछले कुछ समय से फादर फिगर का सम्मान आप को मिल रहा है। पोती आराध्या के आने के बाद तो देश के बच्चे आप को अपने परिवार का दादा ही मानने लगे हैं। 0 यह देश के लोगों की उदारता है। उनका प्रेम और स्नेह है। मैंने कभी किसी उपाधि, संबोधन आदि के लिए कोई काम नहीं किया। मैं नहीं चाहता कि लोग किसी खास दिशा या दृष्टिकोण से मुझे देखें। इस तरह से न तो मैंने कभी सोचा और न कभी काम किया। जैसा कि आप कह रहे हैं अगर देश की जनता ऐसा सोचती है या कुछ लोग ऐसा सोचते हैं तो बड़ी विनम्रता से मैं इसे स्वीकार करता हूं। - लोग कहते हैं कि  आप का वर्तमान अतीत के  फैसलों का परिणाम होता है। आप अपनी जीवन यात्रा और वर्तमान को किस रूप में देखते हैं? निश्चित ही आपने भी कुछ कठोर फैसले लिए होंगे? 0 जीवन में बिना संघर्ष किए कुछ भी हासिल नहीं होता। जीवन में कई बार कठोर और सुखद प्रश्न सामने आते हैं और उसी के अनुसार फैसले लेने पड़ते हैं। जीवन हमेशा सुखद तो होता नहीं है। हम सभी के जीवन में कई पल ऐसे आते हैं, जब कठोर निर्णय लेने पड़ते हैं। यह उतार-चढ़ाव...

यश चोपड़ा का संन्यास

-अजय ब्रह्मात्मज   अपने 80 वें जन्मदिन पर आयोजित एक विशेष समारोह में यश चोपड़ा ने खुली घोषणा कर दी कि वे जब तक है जान के बाद कोई फिल्म निर्देशित नहीं करेंगे। किसी भी सफल फिल्मकार के लिए यह अहम फैसला होता है कि वह कब संन्यास ले। कुछ नया करने और कहने से ज्यादा पाने की फिक्र में कई दफा चाहकर भी फिल्म बिरादरी के सदस्य अपने काम से अलग नहीं हो पाते। स्टार को लगा रहता है कि अगली फिल्म पिछली फिल्म से श्रेष्ठ, शानदार और बड़ी हिट होगी। निर्माता-निर्देशक कुछ नया पाने और दिखाने की लालसा में जुटे रहते हैं। फिलहाल, यश चोपड़ा सफल और समर्थ फिल्मकार हैं। हालांकि वे अस्सी के हो चुके हैं, लेकिन इस उम्र में भी उनकी सृजनात्मक तीक्ष्णता बरकरार है। इस उम्र तक पहुंचने पर ज्यादातर व्यक्ति नॉस्टेलजिक और सिनिकल हो जाते हैं। उन्हें अपना जमाना याद रहता है। वे नई पीढ़ी के साथ तालमेल न बिठा पाने पर आत्मान्वेषण करने के बजाय बदले हुए समय, परिवेश और प्रवृत्ति को दोष देने लगते हैं। लेकिन इसके उलट यश चोपड़ा ने हमेशा खुद को नए तरीके से पेश किया। धूल का फूल से लेकर जब तक है जान तक में हम देख सकते ह...