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‘सफ़दर हाशमी हमेशा किसी मोहल्ले में थोड़े से लोगों के बीच ही मारे जाते हैं’: दिबाकर बनर्जी

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यह पोस्‍ट गौरव सोलंकी के ब्‍लॉग रोटी,कपड़ा और सिनेमा से चवन्‍नी के पाठकों के लिए उठा ली गई है।'शांघाई' को समझने में इससे मदद मिलेगी। -गौरव सोलंकी ‘शां घाई ’  को रिलीज हुए तीन दिन हो चुके हैं। हम उन लोगों से मिलना चाहते हैं, जिन्होंने बिना  किसी शोरशराबे के, अचानक एक अनूठी राजनैतिक फ़िल्म हमारे सामने लाकर रख दी है। ऐसी फ़िल्म, जो बहुत से लोगों को सिर्फ़ इसीलिए बुरी लग जाती है कि वह क्यों उन्हें झकझोरने की कोशिश करती है, उनकी आरामदेह अन्धी बहरी दुनिया में क्यों नहीं उन्हें आराम से नहीं रहने देती, जिसमें वे सुबह जगें, नाश्ता करें, काम पर जाते हुए एफ़एम सुनें जिसमें कोई आरजे उन्हें बताए कि वैलेंटाइन वीक में उन्हें क्या करना चाहिए, किसी सिगनल पर कोई बच्चा आकर उनकी कार के शीशे को पोंछते हुए पैसे मांगे तो उसे दुतकारते हुए अपने पास बैठे सहकर्मी को बताएं कि कैसे भिखारियों का पूरा माफ़िया है और वह सामने जो एक तीन साल के बच्चे की पसलियां उसके शरीर से बाहर आने को हैं, वह दरअसल एक नाटक है। फिर ऑफिस में पहुंचें और वे काम करें जिनके बारे में उन्हें ठीक से नहीं पता कि किसके लिए कर रहे हैं ...

फिल्‍म समीक्षा : फरारी की सवारी

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  मध्यवर्गीय मुश्किलों में भी जीत -अजय ब्रह्मात्‍मज विनोद चोपड़ा फिल्म्स स्वस्थ मनोरंजन की पहचान बन चुका है। प्रदीप सरकार और राजकुमार हिरानी के बाद इस प्रोडक्शन ने राजेश मापुसकर को अपनी फिल्म निर्देशित करने का मौका दिया है। राजेश मापुसकर ने एक सामान्य विषय पर सुंदर और मर्मस्पर्शी कहानी बुनी हैं। सपने टूटने और सपने साकार होने के बीच तीन पीढि़यों के संबंध और समझदारी की यह फिल्म पारिवारिक रिश्ते की बांडिंग को प्रभावपूर्ण तरीके से पेश करती है। राजेश मापुसकर की कल्पना को विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी ने कागज पर उतारा है। बोमन ईरानी, शरमन जोशी और ऋत्विक सहारे अपने किरदारों को प्रभावशाली तरीके से निभा कर फरारी की सवारी को उल्लेखनीय फिल्म बना दिया है। फिल्म के शीर्षक फरारी की सवारी की चाहत सहयोगी किरदार की है, लेकिन इस चाहत में फिल्म के मुख्य किरदार अच्छी तरह गुंथ जाते हैं। रूसी (शरमन जोशी) अपने प्रतिभाशाली क्रिकेटर बेटे केयो (ऋत्विक सहारे) के लिए कुछ भी कर सकता है। तीन पीढि़यों के इस परिवार में कोई महिला सदस्य नहीं है। अपने बिस्तर पर बैठे मूंगफली टूंगते हुए ...

फिल्‍म समीक्षा : कसम से कसम से

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  -अजय बह्मात्‍मज  हिंदी फिल्मों के सामान्य हीरो के लिए लव, रोमांस, डांस, एक्शन और डायलॉग डिलिवरीमुख्य रूप से ये पांच चीजें जरूरी होती हैं। माना जाता है कि इनमें हिंदी फिल्मों के एक्टर को दक्ष होना चाहिए। यही कारण है कि फिल्म इंडस्ट्री के हर पिता अपने बेटे की लांचिंग फिल्म में इन पांचों तत्वों का ताना-बाना बुनते हैं। एक ऐसी फिल्म तैयार करते हैं, जिसमें लांचिंग हो रहे बेटे की दक्षता दिखायी जा सके। निर्माता नाजिम रिजवी ने इसी उद्देश्य से कसम से कसम से का निर्माण किया है। इस उद्देश्य से शिकायत नहीं है, लेकिन देखना चाहिए कि पर्दे पर पेश किया जा रहा एक्टर कहीं अपनी कमजोरी ही न जाहिर कर दे। कसम से कसम से अनेक गानों और चंद घिसे-पिटे दृश्यों की फिल्म है। कैंपस फिल्म की एक खूबी एनर्जी होती है। वह हीरो और सहयोगी कलाकार पैदा करते हैं। इस फिल्म में यह एनर्जी सिरे से गायब है,जबकि फिल्म के पोस्टर में यह बताया गया है कि यह 22 करोड़ युवकों की सोच पर आधारित है। रोमांस और प्रेम के दृश्यों में नवीनता नहीं है। किसी बहाने गीत डाल डाल देने की कोशिश में फिल्म में ड्रामा की गु...

ENगLISH VINGLIश KA POSटR aur TRAIलR

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http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=2L-yil-0MQU

क्या खूब लौटे हैं अक्षय कुमार

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज             सराहना और विवेचना से अधिक श्रद्धांजलि लिखने में सक्रिय फिल्म पत्रकारों ने अक्षय कुमार के करिअर का अंत कर दिया था। उनके अनुसार खिलाड़ी अक्षय कुमार की वापसी असंभव है। उनकी फिल्में लगातार पिट रही थीं। उसी दरम्यान एक-एक कर सारे लोकप्रिय स्टार की फिल्में 100 करोड़ क्लब में पहुंच रही थीं। सलमान खान , आमिर खान , अजय देवगन और शाहरुख खान के बाद सीधे रितिक रोशन , रणबीर कपूर , इमरान खान और इमरान हाशमी का जिक्र किया जाने लगा था। निरंतर असफलता के बावजूद अक्षय कुमार में कटुता नहीं आई थी। वे खिन्न जरूर रहने लगे थे। इस खिन्नता में उन्होंने अपने आलोचकों को आड़े हाथों लिया। अपनी बुरी फिल्मों की बुराई भी उन्हें पसंद नहीं आई। यह स्वाभाविक था। स्टार एक बार फिसलता है तो रुकने-थमने और फिर से उठने तक वह यों ही अपनी नाकामी पर चिल्लाता है। अक्षय कुमार अपवाद नहीं रहे।             एक अच्छी बात रही कि फिर से शीर्ष पर आने की बेताबी में उन्होंने ऊलजलूल फिल...

फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर-स्‍क्रीन डेली-ली मार्शल

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Gangs of Wasseypur 24 May, 2012 | By Lee Marshall Dir: Anurag Kashyap. India. 2012. 318mins T hough it runs at over five hours, there’s never a dull moment in this Indian gangland epic by one of India’s hottest indie directors, Anurag Kashyap. Oozing visual style, laced with tight and often blackly comic dialogue, bolstered by tasty performances and a driving neo-Bollywood soundtrack, this Tarantino-tinged Bihari take on The Godfather has what it takes to cross over from the Indian domestic and Diaspora markets to reach out to action-loving, gore-tolerant theatrical and auxiliary genre audiences worldwide. With characters appearing and disappearing as the bloodshed takes its toll, Gangs is set to the rhythm of a fast-paced dance. The broad canvas and the genre focus suits Kashyap well. The director’s previous outings, from No Smoking to That Girl in Yellow Boots , feel a little like trial runs for this confident coming of age work, which despite t...

शांघाई पर सोनाली सिंह की टिप्‍पणी

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शांघाई देखने के बाद सोनाली सिंह आग्रह करने पर यह टिप्‍पणी भेजी है। चवन्‍नी के पाठक इसे संवेदनशील रचनाकार की अपने समय की महत्‍वपूर्ण फिल्‍म पर की गई सामन्‍य प्रतिक्रिया के रूप में पढ़ें या विशेष टिप्‍पणी के रूप में....मर्जी आप की। "हर आदमी के अन्दर होते है दस- बीस आदमी, जिसको भी देखना कई बार देखना ..." फिल्म कितनी सफल है या सार्थक है , दो अलग- अलग चीजें होती है I जरुरी नहीं कि जो सफल हो सार्थक भी हो और न ही सार्थकता सफलता की कुंजी होती है  I सफल फिल्मो की तरह  यहाँ एक  हलवाई की बेटी  किसी  business tycoon  से   शादी करने का ख्वाब नहीं देख सकती I फिल्म के किरदार में हम और आप है जहाँ विजातीय संबंधों को लेकर बवाल कटता है और लड़के को जान बचाने के लिए  शहर छोड़कर भागना पड़ता है I  फिल्म की कहानी हमारे नाकारापन  और दोगलेपन को  घेरती  कहानी है I सुबह रास्ते में हुए एक्सीडेंट को अनदेखा कर  हम  ऑफिस भागते है जैसे जिंदगी की ट्रेन छूटी जा रही हो पर शाम को तयशुदा वक़्त एक नोबल cause के लिए इंडिया गे...