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फिल्म समीक्षा:ये साली जिंदगी

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-अजय ब्रह्मात्म ज नए प्रकार का हिंदी सिनेमा आकार ले रहा है। इस सिनेमा के पैरोकारों में सुधीर मिश्र का नाम अग्रिम रहा है। इस रात की सुबह नहीं से लेकर हजारों ख्वाहिशों ऐसी तक उन्होंने कथ्य, शिल्प और प्रस्तुति में हिंदी फिल्मों के दर्शकों को झकझोरा है। ये साली जिंदगी में उनकी कुशाग्रता अधिक तीक्ष्ण हो गई है। यह फिल्म सतह पर उलझी और बेतरतीब नजर आती है, लेकिन इसकी अनियंत्रित और अव्यवस्थित सी पटकथा में एक तारत्म्य है। यह फिल्म निश्चित ही दर्शकों से अतिरिक्त ध्यान और एकाग्रता की मांग करती है। दिल्ली के अरुण और कुलदीप छोटे-मोटे क्रिमिनल हैं। अपराध ही उनका पेशा है। सामाजिक जीवन में हम ऐसे किरदारों को ज्यादा करीब से नहीं जानते। उनकी गिरफ्तारी और कारनामों से सिर्फ यही पता चलता है कि वे अपराधी हैं। इन अपराधियों के जीवन में भी कोमल कोने होते हैं, जहां प्यार और एहसास के बीज अंकुरित होते हैं। ये साली जिंदगी में अरुण और कुलदीप अलग-अलग ठिकानों से यात्रा आरंभ करते हैं और अपहरण की एक घटना से जुड़ जाते हैं। उनकी जिंदगी में प्रीति और शांति की बड़ी भूमिका है। अपनी प्रेमिका और बीवी के लिए वे अपराध में धंसते ...

मजबूरी टीवी की, फायदा स्टारों का

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हाल ही में शो बिग बॉस खत्म हुआ है। इसके होस्ट सलमान खान ने 10 का दम लटका रखा है। बीच में वे इसकी शूटिंग कर सकते हैं। कौन बनेगा करोड़पति का चौथा सीजन समाप्त हो चुका है। अमिताभ बच्चन के साथ विभिन्न चैनल नए आइडिया पर सोच-विचार करते रहते हैं। खतरों के खिलाड़ी में प्रियंका चोपड़ा जोश दिखा चुकी हैं। इन दिनों दर्शकों का दिल धड़काने वाली माधुरी दीक्षित छोटे पर्दे पर अवतरित हुई हैं। शाहरुख खान भी टीवी पर जोर का झटका देंगे। टीवी चैनल और लोकप्रिय स्टार रियलिटी शो की युक्तियों में लगे रहते हैं। भारत में प्रचलित टीवी आरंभ से ही दर्शकों के मनोरंजन के लिए फिल्म स्टारों पर निर्भर रहा है। दूरदर्शन की हद से बाहर निकलने के बाद छोटा पर्दा बड़े पर्दे के सितारों का लाभकारी मैदान बना। इसमें टीवी का फायदा था, क्योंकि स्टार को शो में लाते ही उसे स्टार के बने-बनाए प्रशंसक दर्शकों के रूप में मिल जाते थे। उन्हें आधे-एक घंटे अपने प्रिय स्टारों के साथ बिताने का मौका मिलता था। फिल्म स्टारों पर यह निर्भरता इतनी ज्यादा है कि टॉक शो, चैट शो और अब तो पैनल डिस्कशन में भी फिल्म स्टारों को जगह दी जाने लगी...

मजा देगा जोर का झटका

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दिल से दिमाग तक या शरीर के किसी भी हिस्से में.. कहींभी लग सकता है 'जोर का झटका'। इमेजिन के नए रिएलिटी शो से एंटरटेनमेंट का झटका देने आ रहे शाहरुख खान टीवी पर आप क्या देखते हैं? मुझे व्यक्तिगत तौर पर क्विजिंग, स्पोर्ट्स शो अच्छे लगते हैं। खेल देखने में रोमाच बना रहता है। रिएलिटी शो का अलग मजा है। आजकल रिएलिटी शो की माग बढ़ गई है। क्या वजह हो सकती है? मुझे लगता है कि फन, फिक्शन और स्पोर्ट्स के तत्व एक साथ रिएलिटी शो में मिलते हैं, इसलिए लोग ज्यादा पसद करते हैं। आप कौन से रिएलिटी शो देखना पसद करते हैं? मुझे डास के शो अच्छे लगते हैं। सब देख पाना मुमकिन नहीं है। फिल्म के प्रोमोशन के समय पता चलता है कि कौन सा देखना है? कुछ शो हैं, जिनमें हम दूसरों की जिंदगी में झाकने की कोशिश करते हैं। मुझे वे अच्छे नहीं लगते। मुझे लगता है कि क्या किसी और की जिंदगी में झाकना? जब अपनी जिंदगी में ही इतने उतार-चढ़ाव हैं। टीवी काफी तेजी से हमारे जीवन में प्रवेश कर रहा है? बिल्कुल, यह इंटरेक्टिव होता जा रहा है। कुछ समय के बाद ऐसा होगा कि हम टीवी के होस्ट से सीधी बातचीत कर सकें। यह हमारे ...

फिल्‍म समीक्षा :दिल तो बच्चा है जी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मधुर भंडारकर मुद्दों पर फिल्में बनाते रहे हैं। चांदनी बार से लेकर जेल तक उन्होंने ज्वलंत विषयों को चुना और उन पर सराहनीय फिल्में बनाईं। दिल तो बच्चा है जी में उन्होंने मुंबई शहर के तीन युवकों के प्रेम की तलाश को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश किया है। फिल्म की पटकथा की कमियों के बावजूद मधुर भंडारकर संकेत देते हैं कि वे कॉमेडी में कुछ नया या यों कहें कि हृषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी की परंपरा में कुछ करना चाहते हैं। उनकी ईमानदार कोशिश का कायल हुआ जा सकता है, लेकिन दिल तो बच्चा है जी अंतिम प्रभाव में ज्यादा हंसा नहीं पाती। खास कर फिल्म का क्लाइमेक्स बचकाना है। तलाक शुदा नरेन, खिलंदड़ा और आशिक मिजाज अभय और मर्यादा की मिसाल मिलिंद के जीवन की अलग-अलग समस्याएं हैं। तीनों स्वभाव से अलग हैं, जाहिर सी बात है कि प्रेम और विवाह के प्रति उनके अप्रोच अलग हैं। तीनों की एक ही समस्या है कि उनके जीवन में सच्चा प्रेम नहीं है। यहां तक कि आशिक मिजाज अभय को भी जब प्रेम का एहसास होता है तो उसकी प्रेमिका उसे ठुकरा देती है। शहरी समाज में आए परिवर्तन को दिल तो बच्चा है जी प्रेम और विवाह ...

जिया रजा बनारस-डा चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अमृता प्रीतम के उपन्यास 'पिंजर' पर फिल्म बना चुके डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने अगली फिल्म के लिए काशीनाथ सिंह की रचना 'काशी का अस्सी' का चुनाव किया है। उनसे बातचीत के अंश- [आप लंबे अंतराल के बाद शूटिंग करने जा रहे हैं?] काम तो लगातार कर रहा हूं। बीते चार सालों में मैंने टीवी के लिए उपनिषद गंगा की शूटिंग की। लिख भी रहा था। हां, फिल्म के सेट पर लंबे समय के बाद जा रहा हूं। [नई फिल्म की कहानी क्या है?] बनारस के बैकड्राप में यह पूरे देश की कहानी है। यह व्यंग्य है। हम कुछ मूल्यों को लेकर जीवन जीते हैं। उन मूल्यों के लिए लड़ते रहते हैं, फिर ऐसा मुकाम आता है, जब उन मूल्यों का ही समझौता करना पड़ता है। इसमें बनारसी अक्खड़पन है। मस्ती और चटखीला उल्लास है। यह जीवन के उत्सव की कहानी है। फिल्म के लिए सनी देओल, रवि किशन, निखिल द्विवेदी, मुकेश तिवारी, सौरभ शुक्ला, दयाशंकर पांडे के साथ रंगमंच के अनेक कलाकारों का चुनाव हो चुका है। बनारस की प्रतिभाएं भी दिखेगी। [तो क्या इस फिल्म की शूटिंग बनारस में भी करेंगे?] बनारस के रंग और छटा के बिना यह फिल्म पूरी नहीं हो सकती। बनारस ...

फिल्‍म समीक्षा : धोबी घाट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मुंबई शहर फिल्मकारों को आकर्षित करता रहा है। हिंदी फिल्मों में हर साल इसकी कोई न कोई छवि दिख जाती है। किरण राव ने धोबी घाट में एक अलग नजरिए से इसे देखा है। उन्होंने अरूण, शाय, मुन्ना और यास्मिन के जीवन के प्रसंगों को चुना है। खास समय में ये सारे किरदार एक-दूसरे के संपर्क और दायरे में आते हैं। उनके बीच संबंध विकसित होते हैं और हम उन संबंधों के बीच झांकती मुंबई का दर्शन करते हैं। किरण ने इसे मुंबई डायरी भी कहा है। मुंबई की इस डायरी के कुछ पन्ने हमारे सामने खुलते हैं। उनमें चारों किरदारों की जिंदगी के कुछ हिस्से दर्ज हैं। किरण ने हिंदी फिल्मों के पुराने ढांचे से निकलकर एक ऐसी रोमांटिक और सामाजिक कहानी रची है, जो ध्यान खींचती है। एकाकी अरूण किसी भी रिश्ते में बंध कर नहीं रहना चाहता। उसकी फोटोग्राफर शाय से अचानक मुलाकात होती है। दोनों साथ में रात बिताते हैं और बगैर किसी अफसोस या लगाव के अपनी-अपनी जिंदगी में मशगूल हो जाते हैं। पेशे से धोबी मुन्ना की भी मुलाकात शाय से होती है। शाय मुन्ना के व्यक्तित्व से आकर्षित होती है। वह उसे अपना एक विषय बना लेती है। उधर मुन्ना खुद को शाय...

विद्या बालन: भावपूर्ण अभिनेत्री

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विद्या बालान: भावपूर्ण अभिनेत्री -अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों में कामयाबी की हैट्रिक का उल्लेख बार-बार किया जाता है। किसी डायरेक्टर या ऐक्टर की लगातार तीन फिल्में हिट हो जाएं, तो उनके कसीदे पढ़े जाने लगते हैं। इन दिनों फिल्मों की सारी चर्चा उसके करोबार से नियमित होने लगी है। अब फिल्में अच्छी या बुरी नहीं होती हैं। फिल्में हिट या फ्लॉप होती हैं। उनके आधार पर ही ऐक्टरों का मूल्यांकन किया जा रहा है। इस माहौल में विद्या बालन के परफॉर्मेस की हैट्रिक पर अलग से ध्यान देने की जरूरत है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नंबर के रेस से बाहर खड़ी विद्या अपनी हर फिल्म से खुद के प्रभाव को गाढ़ा करती जा रही हैं। पहले की फिल्मों के बारे में सभी जानते हैं। सराहना और पुरस्कार पाने के बाद ग्लैमर व‌र्ल्ड की चकाचौंध और शायद गलत सलाह से वे गफलत में पड़ीं और उन्होंने समकालीन हीरोइनों की नकल करने की कोशिश की। इस भटकाव में उन्हें दोहरी मार पड़ी। एक तरफ उनके प्रशंसकों ने अपनी निराशा जताई और दूसरी तरफ उनके आलोचकों को मौका मिल गया। उन दिनों विद्या बेहद आहत और क्षुब्ध थीं। उनमें हीन भावना भी भरती जा रही थी। कहीं न कहीं...

कहीं हम खुद पर तो नहीं हंस रहे हैं?

-अजय ब्रह्मात्‍मज छोटे से बड़े पर्दे तक, अखबार से टी.वी. तक, पब्लिक से पार्लियामेंट तक; हर तरफ बिखरी मुश्किलों के बीच भी जिंदगी को आसान कर रही गुदगुदी मौजूद है। बॉलीवुड के फार्मूले पर बात करें तो पहले भी इसकी जरूरत थी, लेकिन आटे में नमक के बराबर। फिल्मों में हंसी और हास्य कलाकारों का एक ट्रैक रखा जाता था। उदास और इंटेंस कहानियों के बीच उनकी हरकतें और दृश्य राहत दे जाते थे। तब कुछ कलाकारों को हम कॉमेडियन के नाम से जानते थे। पारंपरिक सोच से इस श्रेणी के आखिरी कलाकार राजपाल यादव होंगे। उनके बाद कोई भी अपनी खास पहचान नहीं बना पाया और अभिनेताओं की यह प्रजाति लुप्तप्राय हो गई है। [हीरो की घुसपैठ] अब यह इतना आसान रह भी नहीं गया है। कॉमेडियन के कोने में भी हीरो ने घुसपैठ कर ली है। अमिताभ बच्चन से यह सिलसिला आरंभ हुआ, जो बाद में बड़ा और मजबूत होकर पूरी फिल्म इंडस्ट्री में पसर गया। पूरी की पूरी फिल्म कॉमेडी होगी तो कॉमेडियन को तो हीरो बनाया नहीं जा सकता। आखिर दर्शकों को भी तो रिझाकर सिनेमाघरों में लाना है। सो, वक्त की जरूरत ने एक्शन स्टार को कॉमिक हीरो बना दिया। आज अक्षय कुमार की रोजी-रोटी ही कॉ...

फिल्‍म समीक्षा : नो वन किल्‍ड जेसिका

-अजय ब्रह्मात्‍मज परिचित घटनाक्रम पर फिल्म बनाना अलग किस्म की चुनौती है। राजकुमार गुप्ता की पहली फिल्म आमिर सच्ची घटनाओं पर काल्पनिक फिल्म थी। नो वन किल्ड जेसिका सच्ची घटनाओं पर वास्तविक फिल्म है, लेकिन यह डाक्यूमेंट्री नहीं है और न ही यह बॉयोपिक की तरह बनायी गयी है। कानूनी अड़चनों से बचने के लिए निर्देशकों ने जेसिका और रूबीना के अलावा बाकी किरदारों के नाम बदल दिए हैं। इस परिवर्तन से प्रभाव में थोड़ा फर्क पड़ा है, जिसे पाटने की राजकुमार गुप्ता ने सार्थक कोशिश की है। जेसिका लाल की हत्या और उसके बाद के घटनाक्रमों से हम सभी वाकिफ हैं। कोर्ट-कचहरी, पॉलिटिक्स और मीडिया की बदलती भूमिकाओं और प्रभाव को इस मामले के जरिए देश ने करीब से समझा। राजकुमार गुप्ता ने जेसिका से संबंधित सामाजिक पाठ को एक कैप्सूल के रूप में रख दिया है। उन्होंने इसे अतिनाटकीय नहीं होने दिया है। फिल्म नारेबाजी या विजय अभियान जैसी मुहिम में भी शामिल नहीं होती। वास्तव में यह मुख्य घटनाक्रम में पहले एकाकी पड़ती सबरीना और उसे संघर्ष से एकाकार होती मीरा की कहानी है। मीरा निश्चित ही फिल्म में एक किरदार है, लेकिन वह...

ताजा उम्मीदें 2011 की

-अजय ब्रह्मात्‍मज साल बदलने से हाल नहीं बदलता। हिंदी फिल्मों के प्रति निगेटिव रवैया रखने वाले दुखी दर्शकों और सिनेप्रेमियों से यह टिप्पणी सुनने को मिल सकती है। एक तरह से विचार करें तो कैलेंडर की तारीख बदलने मात्र से ही कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। परिवर्तन और बदलाव की प्रक्रिया चलती रहती है। हां, जब कोई प्रवृत्ति या ट्रेंड जोर पकड़ लेता है, तो हम परिवर्तन को एक नाम और तारीख दे देते हैं। इस लिहाज से 2010 छोटी फिल्मों की कामयाबी का निर्णायक साल कहा जा सकता है। सतसइया के दोहों की तरह देखने में छोटी प्रतीत हो रही इन फिल्मों ने बड़ा कमाल किया। दरअसल.. 2010 में छोटी फिल्मों ने ही हिंदी फिल्मों के कथ्य का विस्तार किया। दबंग, राजनीति और तीस मार खां ने हिंदी फिल्मों के बिजनेस को नई ऊंचाई पर जरूर पहुंचा दिया, किंतु कथ्य, शिल्प और प्रस्तुति में छोटी फिल्मों ने बाजी मारी। उन्होंने आश्वस्त किया कि हिंदी सिनेमा की फार्मूलेबाजी और एकरूपता के आग्रह के बावजूद नई छोटी फिल्मों के प्रयोग से ही दर्शकों के अनुभव और आनंद के दायरे का विस्तार होगा। छोटी फिल्मों में प्रयोग की संभावनाएं ज्यादा रहती हैं। सबसे पहली ...