फिल्म समीक्षा : 31 अक्टूबर
खौफनाक रात की कहानी -अजय ब्रह्मात्मज आधुनिक भारत का वह काला दिन था। देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके अंगरक्षकों ने ही गोली मार दी थी। शाम होते-होते पूरी दिल्ली में सिख विरोधी दंगा फैल गया था। घरों-गलियों में सिखें को मरा गया था। अंगरक्षकों के अपराध का परिणाम पूरे समुदाय को भुगतना पड़ा था। इस दंगे में सत्ताधारी पार्टी के अनेक नामचीन नेता भी शामिल थे। अनेक जांच आयोगों की रिपोटों के बावजूद अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। 31 अक्टूबर के अगले कुछ दिनों तक चले इस दंगे में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2186 सिखों की जानें गई थीं,जबकि अनुमान 9000 से अधिक का है। 32 साल होने को आए। दंगों से तबाह हुए परिवारों को अब भी उम्मीद है कि अपराधियों और हत्यारों को सजा मिलेगी। भारतीय राजनीति और समाज का सच इस उम्मीद के विपरीत है। यहां सत्ताधारी पार्टियों के उकसाने पर धार्मिक दंगे-फसाद होते हैं। सरकारें बदल जाती है,तब भी अपराधी पकड़े नहीं जाते। हताशा होती है विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की इस खूनी मिलीभगत से। फिल्म के नायक देवेन्दर को अभी तक उम्मीद है कि न्याय मिलेगा,जबकि उसकी ...