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एक शायर चुपके चुपके बुनता है ख्वाब - गुलजार

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1994 में गुलजार से यह बातचीत हुई थी। तब मुंबई से प्रकाशित जनसत्‍ता की रविवारी पत्रिका सबरंग में इसका प्रकाशन हुआ था। गुलजार के जनमदिन पर चवन्‍नी के पाठकों के लिए विशेष.. . : अजय ब्रह्मात्मज / धीरेंद्र अस्थाना -      छपे हुए शब्दों के घर में वापसी के पीछे की मूल बेचैनी क्या है ? 0      जड़ों पर वापिस आना। -      कविताएं तो आप लिखते ही रहे हैं। इधर कहानियों में भी सक्रिय हुए हैं ? 0      कहानियां पहले भी लिखता रहा हूं। अफसाने शुरू में भी लिखे मैंने। मेरी पहली किताब कहानियों की ही थी। ' चौरस रात ' नाम से प्रकाशित हुई थी। उसके बाद नज्मों की किताब ' जानम ' आई थी। मेरी शाखों में साहित्य है। अब उम्र बीती... पतझड़ है , पतझड़ आता है तो पत्ते जड़ों पर ही गिरते हैं। थोड़ा- सा पतझड़ का दौर चल रहा है। मैंने सोचा... चलो फिर वहीं से शुरू करें। फिर से जड़ों पर खड़े होने की कोशिश कर रहा हूं। -      इस कोशिश में अलग तर्ज की कहानियां लेकर आए हैं आप ? 0      कहानियां ही नहीं ,...