Posts

Showing posts with the label हिंदी सिनेमा

परदे पर साहित्‍य -ओम थानवी

Image
ओम थानवी का यह लेख जनसत्‍ता से चवन्‍नी के पाठकों के लिए लिया गया है। ओम जी ने मुख्‍य रूप से हिंदी सिनेमा और हिंदी साहित्‍य पर बात की है। इस जानकारीपूर्ण लेख से हम सभी लाभान्वित हों।     -ओम थानवी जनसत्ता 3 मार्च , 2013: साहित्य अकादेमी ने अपने साहित्योत्सव में इस दफा तीन दिन की एक संगोष्ठी साहित्य और अन्य कलाओं के रिश्ते को लेकर की। एक सत्र ‘ साहित्य और सिनेमा ’ पर हुआ। इसमें मुझे हिंदी कथा-साहित्य और सिनेमा पर बोलने का मौका मिला। सिनेमा के मामले में हिंदी साहित्य की बात हो तो जाने-अनजाने संस्कृत साहित्य पर आधारित फिल्मों की ओर भी मेरा ध्यान चला जाता है। जो गया भी। मैंने राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा उर्फ बिज्जी के शब्दों में सामने आई लोककथाओं की बात भी अपने बयान में जोड़ ली। बिज्जी की कही लोककथाएं राजस्थानी और हिंदी दोनों में समान रूप से चर्चित हुई हैं। हिंदी में शायद ज्यादा। उनके दौर में दूसरा लेखक कौन है , जिस पर मणि कौल से लेकर हबीब तनवीर-श्याम बेनेगल , प्रकाश झा और अमोल पालेकर का ध्यान गया हो ? वैसे हिंदी साहित्य में सबसे ज्यादा फिल्में- स्वाभ...

कभी-कभी ही दिखता है शहर

-अजय ब्रह्मात्मज हर शहर की एक भौगोलिक पहचान होती है। अक्षांश और देशांतर रेखाओं की काट के जरिये ग्लोब या नक्शे में उसे खोजा जा सकता है। किताबों में पढ़कर हम उस शहर को जान सकते हैं। उस शहर का अपना इतिहास भी हो सकता है, जिसे इतिहासकार दर्ज करते हैं। किंतु कोई भी शहर महज इतना ही नहीं होता। उसका अपना एक स्वभाव और संस्कार होता है। हम उस शहर में जीते, गुजरते और देखते हुए उसे महसूस कर पाते हैं। जरूरी नहीं कि हर शहरी अपने शहर की विशेषताओं से वाकिफ हो, जबकि उसके अंदर उसका शहर पैबस्त होता है। साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में विभिन्न शहरों के मर्म का चित्रण किया है। उनकी धड़कनों को सुना है। फिल्मों की बात करें, तो हम देश-विदेश के शहरों को देखते रहे हैं। ज्यादातर फिल्मों में शहर का सिर्फ बैकड्रॉप रहता है। शहर का इस्तेमाल किसी प्रापर्टी की तरह होता है। शहरों के प्राचीन और प्रसिद्ध इमारतों, वास्तु और स्थानों को दिखाकर शहर स्थापित कर दिया जाता है। मरीन लाइंस, वीटी स्टेशन, बेस्ट की लाल डबल डेकर, काली-पीली टैक्सियां, स्टाक एक्सचेंज और गेटवे ऑफ इंडिया आदि को देखते ही हम समझ जाते हैं कि फिल्म के किरदार मु...

एक सुखद अनुभूति थी आलम आरा-सुरेन्‍द्र कुमार वर्मा

यह लेख 14 मार्च 2011 को दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण मेंछपा है... भारतीय सिनेमा के लिए वह दिन बहुत खास था। दर्शक रुपहले परदे पर कलाकारों को बोलते हुए देखने को आकुल थे। हर तरफ चर्चा थी कि परदे पर कैसे कोई कलाकार बोलते हुए दिखाई देगा। आखिरकार 14 मार्च 1931 को वह ऐतिहासिक दिन आया, जब बंबई (अब मुंबई) के मैजिस्टक सिनेमा में आलम-आरा के रूप में देश की पहली बोलती फिल्म रिलीज की गई। उस समय दर्शकों में इसे लेकर काफी कौतूहल रहा था। फिल्म में अभिनेत्री जुबैदा के अलावा पृथ्वी राज कपूर, मास्टर विट्ठल, जगदीश सेठी और एलवी प्रसाद प्रमुख कलाकार थे, जिन्हें लोग पहले परदे पर कलाकारी करते हुए देख चुके थे, लेकिन पहली बार परदे पर उनकी आवाज सुनने की चाह सभी में थी। दादा साहेब फाल्के ने अगर भारत में मूक सिनेमा की नींव रखी तो अर्देशिर ईरानी ने बोलती फिल्मों का नया युग शुरू किया। हालांकि इससे पूर्व कोलकाता तब कलकत्ता की फिल्म कंपनी मादन थिएटर्स ने चार फरवरी 1931 को एंपायर सिनेमा (मुंबई) में दो लघु फिल्में दिखाई थी, लेकिन इस फिल्म में कहानी को छोड़कर नृत्य और संगीत के दृश्य थे। इसलिए आलम-आरा को देश की पहली...

देश के अंदर ही हैं अनेक दर्शक

-अजय ब्रह्मात्‍मज मेरी धारणा मजबूत होती जा रही है कि हिंदी सिनेमा पर अलग-अलग दृष्टिकोण से विचार-विमर्श करने की जरूरत है। मुंबई या दूसरे महानगरों से हम हिंदी सिनेमा को जिस दृष्टिकोण से देखते और सही मानते हैं, वह पूरे देश में लागू नहीं किया जा सकता। हिंदी फिल्मों के विकास, प्रगति और निर्वाह के लिए मुंबइया दृष्टिकोण का खास महत्व है। उसी से हिंदी फिल्में संचालित होती हैं। सितारों की पॉपुलैरिटी लिस्ट बनती है, लेकिन हिंदी फिल्मों की देसी अंतरधाराओं को भी समझना जरूरी है। तभी हम दर्शकों की पसंद-नापसंद का सही आकलन कर सकेंगे। मैं पिछले बीस दिनों से बिहार में हूं। राजधानी पटना में कुछ दिन बिताने के बाद नेपाल की सीमा पर स्थित सुपौल जिले के बीरपुर कस्बे में आ गया हूं। इस कस्बे की आबादी एक लाख के आसपास होगी। कोसी नदी में आई पिछली बाढ़ में यह कस्बा और इसके आसपास के गांव सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे। इस इलाके के नागरिकों को पलायन करना पड़ा था। जलप्लावन की विभीषिका के बाद कस्बे में जीवन लौटा, तो लोगों की पहली जिज्ञासाओं में सिनेमाघर के खुलने का इंतजार भी था। यह बात मुझे स्थानीय कृष्णा टाकीज के मालिक और ...

हिंदी सिनेमा में खलनायक-मंजीत ठाकुर

मंजीत ठाकुर हिंदी फिल्मों का एक सच है कि अगर नायक की को बड़ा बनाना हो तो खलनायक को मजबूत बनाओ। उसे नायक जैसा बना दो। यह साबित करता है कि रामायण और महाभारत केवल राम और कृष्ण की वजह से ही नहीं, रावण और दुर्योधन की वजह से भी असरदार हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक में धार्मिक कथाओं और किंवदंतियों पर सारी फ़िल्में बनीं। इन कथाओं के नायक देव थे और खलनायक राक्षसगण। हिंदुस्तानी सिनेमा में गांधी जी असर बेहद खास था और शायद इसी वजह से पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर नहीं थे और उनके चरित्र भी सुपरिभाषित नहीं थे। उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने वाले सामाजिक कुप्रथाओं और अंधविश्वासग्रस्त लोग थे। ‘ अछूत कन्या ’ में प्रेम-कथा के विरोध करने वाले जाति प्रथा में सचमुच विश्वास करते थे। इसीतरह महबूब खान की ‘ नज़मा ’ में पारंपरिक मूल्य वाला मुसलिम ससुर परदा प्रथा नामंजूर करने वाली डॉक्टर बहू का विरोध करता है और 1937 में ‘ दुनिया ना माने ’ का वृद्ध विधुर युवा कन्या से शादी को अपना अधिकार ही मानता है। पचास और साठ के दशक में साहूकार के साथ दो और खलनायक जुड़े- डाकू और जमींदार। खलनायक का ये चरित्र ‘ ...

समाज का अक्स है सिनेमा - मंजीत ठाकुर

हिंदी सिनेमा पर मंजीत ठाकुर ने यह सिरीज आरंभ की है। भाग-1 सिनेमा , जिसके भविष्य के बारे में इसके आविष्कारक लुमियर बंधु भी बहुत आश्वस्त नहीं थे , आज भारतीय जीवन का जरूरी हिस्सा बना हुआ है। 7 जुलाई 1896, जब भारत में पहली बार किसी फिल्म का प्रदर्शन हुआ था , तबसे आज तक सिनेमा की गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है। हम अपने निजी और सामाजिक जीवन की भी सिनेमा के बग़ैर कल्पना करें तो वह श्वेत-श्याम ही दिखेगा। सिनेमा ने समाज के सच को एक दस्तावेज़ की तरह संजो रखा है। चाहे वह 1930 में आर एस डी चौधरी की बनाई व्रत हो , जिसमें मुख्य पात्र महात्मा गांधी जैसा दिखता था और इसी वजह से ब्रितानी सरकार ने इस फिल्म को बैन भी कर दिया था , चाहे 1937 में वी शांताराम की दुनिया न माने । बेमेल विवाह पर बनी इस फिल्म को सामाजिक समस्या पर बनी कालजयी फिल्मों में शुमार किया जा सकता है। जिस दौर में पाकिस्तान अलग करने की मांग और सांप्रदायिक वैमनस्य जड़े जमा चुका था , 1941 में फिल्म बनी पड़ोसी , जो सांप्रदायिके सौहार्द्र पर आधारित थी। फिल्म शकुंतला के भरत को नए भारत के मेटाफर के रुप में इस...