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Showing posts with the label सत्‍यजित भटकल

एक सितारा बनते देखा - सत्यजित भटकल

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प्रस्तुति-अजय ब्रह्मात्मज सत्यजित भटकल आमिर खान के जिगरी दोस्त हैं। अच्छे-बुरे दिनों में वे हमेशा आमिर के करीब रहे। नौवीं कक्षा में दोनों के बीच दोस्ती हुई। सत्यजित भटकल के लिए आमिर खान हिंदी फिल्मों के सुपर स्टार मा। नहीं हैं। वे उनके विकास और विस्तार को नजदीक से देखते रहे हैं। वे आमिर के हमकदम भी हैं। ‘लगान’ और ‘सत्यमेव जयते’ में दोनों साथ रहे। 14 मार्च को आमिर खान का जन्मदिन था। इस अवसर पर सत्यजित भटकल ने आमिर खान के बारे में कुछ बताया :-     हर मनुष्य का एक स्थायी भाव होता है। उम्र बढऩे के साथ व्यक्त्त्वि में आए परिवत्र्तनों के बावजूद वह स्थायी भाव बना रहता है। आमिर का स्थायी भाव जिज्ञासा है। वह आजन्म छात्र रहे हैं और आगे भी रहेंगे। वे जिंदगी के सफर को सफर के तौर पर ही लेते हैं। अपनी जिज्ञासाओं की वजह से उन्होंने हमेशा खुद को नए सिरे से खोजा और सफल रहे हैं। जिंदगी की मामली चीजों के बारे में भी वे इतनी संजीदगी से बता सकते हैं कि आप चकित रह जाएं। ‘लगान’ की शूटिंग के समय हमलोगों ने सहजानंद टावर्स को होटल में बदल लिया था। बैरे के रूप में स्थानीय लडक़े काम कर रहे थे।...

हंगल की स्‍मृति में

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मैं अपनी अनूदित पुस्‍तक सत्‍यजित भटकल लिखित ऐसे बनी लगान से एके हंगल से संबंधित अंश यहां दे रहा हूं। ए के हंगल की स्‍मृति को समर्पित यह अंश प्रेरक है....  24 जनवरी 2000  हंगल डॉ राव के अस्‍पताल में विश्राम कर रहे हैं।डाम्‍क्‍टर दंपति ज्ञानेश्‍वर और अलका परिवार के किसी सदस्‍य की तरह ही उनकी देखभाल करते हैं।पिछले दो सालों में हंगल ने पत्‍नी और बहू को खो दिया हैत्रवह उनके प्रेम और स्‍नेह सेप्रभावित हैंत्रआज शाम 'लगान' के कई लोग डॉ राव के अस्‍पताल जाते हैं और हंगल की सेहतमंदी के लिए गीत गाते हैंत्रअस्‍पताल के बाहर आधा भुज जमा हो जाता है।हंगल बिस्‍तर पर पीठ के बल लेटे हैं। उनकी तकलीफ कम नहीं हुई है,लेकिन व‍ि द्रवित हो उठते हैं।  आमिर और आशुतोष महसूस करते हैं कि हंगल शूटिंग करने की अवस्‍था में नहीं हैं,वे दूसरे उपाय सोचते हैं। आमिर हंगल से कहता है कि वे वैकल्पिक व्‍यवस्‍था करेंगे,लेकिन वह बीमार एक्‍टर के जवाब से चौंक जाता है।हंगल उससे कहते हैं कि अगर प्रोडक्‍शन एंबुलेंस से उन्‍हें सेट पर ले जाए तो वे शूटिंग करेंगे। आमिर उनसे गुजारिश करता है कि उनकी पीठ फिल्‍म से अधि...

सत्‍यमेव जयते के निर्देशक सत्‍यजित भटकल

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज  आमिर खान की प्रस्तुति सत्यमेव जयते के 13 एपीसोड पूरे हो गए। इस शो के इंपैक्ट के ऊपर भी उन्होंने एक एपिसोड शूट किया है, जो जल्द प्रसारित होगा। सत्यमेव जयते की पूर्णाहुति कर आमिर खान अपने अगले प्रोजेक्ट के लिए निकल चुके हैं। वे शिकागो में धूम-3 की शूटिंग करेंगे। सत्यमेव जयते के निर्देशक सत्यजित भटकल का काम अभी समाप्त नहीं हुआ है। वे इसे समेटने में लगे हैं। सत्यमेव जयते से निकलने में उन्हें और उनकी टीम को वक्त लगेगा। पिछले ढाई-तीन सालों से वे अपनी टीम के साथ इस स्पेशल शो की तैयारियों, शोध, अध्ययन और प्रस्तुति में लगे रहे। उनकी मेहनत और सोच का ही यह फल है कि सत्यमेव जयते टीवी का असरकारी प्रोग्राम साबित हुआ। हालांकि ऊपरी तौर पर सारा क्रेडिट आमिर खान ले गए और यही होता भी है। टीवी हो या फिल्म.., उसके ऐंकर और कलाकारों को ही श्रेय मिलता है। सत्यमेव जयते भारतीय टीवी परिदृश्य का ऐसा पहला शो है, जिसने दर्शकों समेत ब्यूरोक्रेसी, सरकार और राजनीतिज्ञों को झकझोरा। सामाजिक मुद्दों और विषयों पर पहले भी शो आते रहे हैं, लेकिन...

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (22अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 9 22 अप्रैल अखबार पढ़ने के लिए सुबह-सवेरे जगा। रिव्‍यू पढ़ने से पहले तनाव में हूं। स्‍वाति को जगाया। उसने नींद में ही पढ़ने की कोशिश की। मैं पेपर छीन लेता हूं। टाइम्‍स ऑफ इंडिया ने हमें 3 स्‍टार दिए हैं और अच्‍छी समीक्षा लिखी है। ठीक है, पर दिल चाहता है कि थोड़ा और होता। सुबह से नेट पर हूं। अपनी फिल्‍म के रिव्‍यू खोज रहा हूं। हालीवुड रिपोर्टर ने मिक्‍स रिव्‍यू दिया है, लेकिन कुल मिलाकर ठीक है। वैरायटी अमेरिकी फिल्‍म बाजार का बायबिल है। उसमें खूब तारीफ छपी है। और क्‍या चाहिए? भारतीय समीक्षाएं उतनी उदार नहीं हैं। कुछ तो बिल्‍कुल विरोधी हैं। इन सभी को पचाने में वक्‍त लगेगा। मैं थिएटर के लिए निकलता हूं। सस्‍ते थिएटर जेमिनी में 50 दर्शक हैं... ज्‍यादा नहीं है, पर शुक्रवार की सुबह के लिहाज से कम नहीं कहे जा सकते। इंटरवल और फिल्‍म खत्‍म होने के बाद हम कुछ बच्‍चों और उनके अभिभावकों से बातें करते हैं । उन्‍हें फिल्‍म पसंद आई है। चलो अभी तक ठीक है। हम पीवीआर फीनिक्‍स जाते हैं। 250 रुपए का टिकट है। ज्‍यादा दर्शक नहीं हैं, लेकिन बच्‍चे और उनकी मम्मियों को फिल्‍म ...

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (19 अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 8 19 अप्रैल हमलोग चंडीगढ़ में हैं। अपने दोस्‍त शक्ति सिद्धू के निमंत्रण पर सौपिन स्‍कूल आए हैं। हमारे स्‍वागत में बच्‍चों ने शानदार परफार्मेंस दिया। पहले गायन मंडली ‘ तारे जमीन पर ’ का टायटल ट्रैक गाती है। फिर एक विशेष बच्‍ची संस्‍कृति हमारे लिए शास्‍त्रीय नृत्‍य करती है... उसके चेहरे की खुशी और उसकी वजह से हमारी खुशी अतुलनीय है। अंत में छात्रों की एक मंडली ने ‘ जोकोमोन ’ का झुनझुनमकड़स्‍त्रामा गीत पेश करती है... उन्‍होंने सुंदर नृत्‍य भी किया। मैं शक्ति से मिलता हूं। स्‍कूल के स्‍थापक सौपिन परिवार के सदस्‍यों से भेंट होती है। मुझे स्‍कूल की अंतरंगता और ऊंर्जा अच्‍छी लगती है। स्‍कूल ने हमारे लिए भोज का आयोजन किया है। थोड़ी देर के लिए मैं भूल जाता हूं कि मैं प्रोमोशन के लिए आया हूं। हमलोग रेडियो और प्रिंट इंटरव्यू के लिए भास्‍कर के कार्यालय जाते हैं। पत्रकार दर्शील से कुछ मुश्किल सवाल पूछते हैं। स्‍टेनली का डब्‍बा के चाइल्‍ड आर्टिस्‍ट के बारे में उससे पूछा जाता है कि अगर उसने भारत के चाइल्‍ड स्‍टार की जगह ले ली तो उसे कैसा लगेगा? हमलोगों के किसी हस्‍तक्...

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (18अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 7 18 अप्रैल हम दिल्‍ली निकलते हैं। आकाश से मुंबई झोंपड़पट्टियों का हुजूम लगती है। दुनिया में ऐसा कोई शहर नहीं है। भारत में भी नहीं है... मुंबई का आकाशीय दर्शन अवसाद से भर देता है। फिर भी यह देश के मनोरंजन उद्योग का केंद्र है। निश्चित ही यह महज संयोग नहीं हो सकता। हम नोएडा के एक स्‍कूल में जाते हैं। दर्शील को बच्‍चे घेर लेते हैं। मुझे भी बच्‍चों ने घेर लिया है... अजीब लगता है। बच्‍चे एकदम से अपरिचित चेहरे से ऑटोग्राफ मांग रहे हैं। मैं अब भीड़ की मानसिकता पर संदेह करने लगा हूं... खासकर स्‍कूलों की भीड़। रात में दोस्‍तों के साथ डिनर करता हूं। मेरा ड्रायवर मुझे नोएडा में छोड़कर निकल जाता है। अब मेरे दोस्‍त को डिनर के बाद 50 किलोमीटर की ड्रायविंग का आनंद उठाना होगा। किनारों पर लगे पेड़ों वाली चौड़ी सड़क, चौड़ा फुटपाथ, हर मोड़ पर फुलवारी... मेरी मुंबइया आंखों को दिल्‍ली किसी और देश का शहर लगता है। ट्रैफिक सिग्‍नल अभी तक काम कर रहे हैं, जबकि रात बारह से ज्‍यादा हो चुके हैं... सड़क पर कोई दूसरी सवारी नहीं है। फिर भी कारें ट्रैफिक सिग्‍नल पर रूक रही हैं। स्‍व...

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (17 अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 6 17 अप्रैल हमलोगों ने कुछ रेडियो इंटरव्यू किए थे। वहीं सुन रहा था। एक आरजे की कोशिश थी कि किसी तरह कोई कंट्रोवर्सी मिल जाए – उसने दर्शील से पूछा ‘ क्‍या उसकी कोई गर्लफ्रेंड है? उसका नाम क्‍या है? क्‍या वह एटीट्यूड रखता है... सुन्‍न कर देने वाले सवाल। रेड एफएम की आरजे कंट्रोवर्सी के लिए गिरगिरा रही थी। तब मुझे झुंझलाहट हो रही थी। सुनते समय महसूस कर रहा हूं कि क्‍यों कंट्रोवर्सी से अच्‍छी मीडिया कवरेज मिलती है या यों कहें कि कंट्रोवर्सी के बगैर सुनने में ज्‍यादा मजा नहीं आता। रात में केतनव में स्‍क्रीनिंग है। केतनव प्रिव्‍यू थिएटर है। यह स्‍क्रीनिंग फिल्‍म इंडस्‍ट्री के दोस्‍तों और एक बच्‍चे के लिए है। मेरे प्रिय दोस्‍त करीम हाजी का बेटा है काशिफ, उसकी प्रतिक्रियाएं एकदम सटीक होती है। मैंने किसी स्‍क्रीनिंग में किसी बच्‍चे को इतने करीब से नहीं देखा। फिल्‍म खत्‍म होती है। काशिफ खुदा है। मैं राहत की सांस लेता हूं। अब 96 घंटे बचे हैं।

फिल्‍म समीक्षा : जोकोमोन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अपने चाचा देशराज की दया और सहारे पल रहे कुणाल को जब यह एहसास होता है कि वह भी ताकतवर हो सकता है और अपने प्रति हुए अन्याय को ठीक कर सकता है तो मैजिक अंकल की मदद से वह चाइल्ड सुपरहीरो जोकोमोन का रूप ले लेता है। सत्यजित भटकल की ईमानदार दुविधा फिल्म में साफ नजर आती है। वे कुणाल को चमत्कारिक शक्तियों से लैस नहीं करना चाहते। वे उसे साइंटिफिक टेंपर के साथ सुपरहीरो बनाते हैं। उन्होंने कुणाल के अंदरुनी ताकत को दिखाने के लिए कहानी का पारंपरिक ढांचा चुना है। एक लालची और दुष्ट चाचा है, जो अपनी पत्नी की सलाह पर कुणाल से छुटकारा पाकर उसके हिस्से की संपत्ति हड़पना चाहता है। अपनी साजिश में वह गांव के पंडित का सहयोग लेता है। वह अंधविश्वास पर अमल करता है। जोकोमोन बने कुणाल की एक कोशिश यह भी कि वह अपने गांव के लोगों को अंधविश्वास के कुएं से बाहर निकाले। चाचा को तो सबक सिखाना ही है। इन दोनों कामों में उसे मैजिक अंकल की मदद मिलती है। मैजिक अंकल साइंटिस्ट हैं। वे साइंस के सहारे कुणाल के मकसद पूरे करते हैं। सत्यजित भटकल की तारीफ करनी होगी कि बच्चों के मनोरंजन के उद्देश्य स...

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (16 अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 5 16 अप्रैल 2011 एक हफ्ते के अंदर फिल्‍म रिलीज होगी। पिछली रात फोन आया कि होर्डिंग लग गए हैं। स्‍वाति मुझे और बच्‍चों से कहती है कि हमलोग चलें और बांद्रा वेस्‍ट में लगी होर्डिंग देख कर आए। शाम का समय है और सड़क पर भारी ट्रैफिक है, लेकिन बच्‍चे उत्‍साहित हैं। मेरी बेटी आलो अपना नया कैमरा ले लेती है और हम निकलते हैं। सड़क पर भारी ट्रैफिक है। मेरा बेटा निशांत कार्टर रोड पर बॉस्किन रॉबिंस आइस्‍क्रीम, डूनट आदि खाने की फरमाईश करता है... तर्क है कि हमें सेलिब्रेट करना चाहिए। सड़क की ट्रैफिक में कार के अंदर बहस चल रही है कि होर्डिंग देखने के बाद हम किस आइस‍क्रीम पार्लर जाएंगे। 20वें मिनट पर मैं किसी सुपरहीरो की तरह उड़़ कर होर्डिंग तक पहुंच जाना चाहता हूं। उसे लगा देना चाहता हूं। काश ! ट्रैफिक की भीड़ और कार में प्रतिद्वंद्वी आइस्‍क्रीम पार्लरों पर चल रही बच्‍चों की बहस की गर्मी के बावजूद होर्डिंग की पहली झलक का जादुई असर होता है। सुंदर तरीके से डिजायन की गई होर्डिंग बस स्‍टाप पर लगी है। ‘ बैकलिट ’ रोशनी से चमकीला प्रभाव पड़ रहा है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुझे कभी इ...

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (13 अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 4 13 अप्रैल 2011 कल थोड़ा आराम था। ‘ जोकोमोन ’ के प्रोमोशन के लिए नहीं निकलना था,केवल एक-दो इंटरव्यू हुए टेलीफोन पर। सुबह-सवेरे अंधेरी में स्थित ईटीसी स्‍टूडियो पहुंचे। दर्शील के पास बताने के लिए बहुत कुछ था। टीवी शो ‘ कॉमेडी सर्कस ’ की शूटिंग के किस्‍से...। उससे पूछा गया कि दूसरे सुपरहीरो और उसमें क्‍या अंतर है? उसने चट से जवाब दिया, ‘ मैं अपने कॉस्‍ट्यूम के ऊपर से चड्ढी नहीं पहनता। ’ ‘ और अंदर? ’ सवाल पूछा गया। दर्शील की हंसी रूकने में एक मिनट लगा। ईटीसी के बाद हमलोग जुहू के एक होटल गए। वहां इलेक्‍ट्रानिक मीडिया के सारे इंटरव्यू थे। बैंक्‍वेट रूम में कैमरामैन (सभी पुरुष) एंकर (लगभग सभी लड़कियां) भरे थे। मैं कोई शिकायत नहीं कर रहा हूं। लेकिन टीवी चैनल केवल खूबसूरत लड़कियों को ही क्‍यों चुनते हैं? चैनलों ने परिचित सवाल पूछे – चिल्‍ड्रेन फिल्‍म ही क्‍यों? सुपर‍हीरो की फिल्‍में भारत में नहीं चलतीं, फिर भी सुपर‍हीरो की की फिल्‍म ही क्‍यों? ज्‍यादातर सवाल फिल्‍म की सफलता की संभावनाओं को लेकर होते हैं। जवाब देते समय मैंने महसूस किया कि लिखते समय तो ...

बचकानी क्यों हो बच्चों की फिल्म- सत्‍यजित भटकल

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- अजय ब्रह्मात्‍मज /रघुवेन्द्र सिंह सत्यजित भटकल पेशेवर वकील थे। आमिर खान ने बचपन के अपने इस मित्र को लगान फिल्म की निर्माण टीम में शामिल किया और सत्यजित की सिनेमा से घनिष्ठता बढ़ती गई। सत्यजित ने लगान फिल्म की मेकिंग पर द स्पिरिट ऑफ लगान पुस्तक लिखी, जो बहुत सराही गई। दर्शील सफारी अभिनीत जोकोमोन सत्यजित भटकल की निर्देशक के तौर पर पहली कामर्शियल फिल्म है जिसमें कहानी है चाइल्ड सुपरहीरो की। 'जोकोमोन' फिल्म का बीज कैसे पड़ा? इसका मुख्य किरदार कुणाल नाम का लड़का है, जिसे दर्शील सफारी प्ले कर रहे हैं। कुणाल अनाथ है। वह चाचा के पास रहता है। अपने स्वार्थ के लिए चाचा बड़े शहर ले जाकर छोड़ देते हैं। वह अकेला महसूस करता है। उसकी केयर करने वाला कोई नहीं है। उस परिस्थिति में वह अपनी स्ट्रेंथ को डिस्कवर करता है। किसी भी इंसान की कमजोरी उसकी लाइफ की सबसे बड़ी स्ट्रेंथ बन सकती है। इस विचार से बीज पड़ा कि क्या होगा, अगर वह लड़का अपनी कमजोरी को ताकत बना ले। क्या हम इसे पूरी तरह से बाल फिल्म कह सकते हैं? जी नहीं। पूरी तरह से भी नहीं और आधी तरह से भी नहीं। मुझे आपत्ति है बाल फिल्म कहने से। कुछ प...

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (10 अप्रैल)

10 अप्रैल अगला पड़ाव पुणे है। बिग सिनेमा में दर्शील को देखने भारी भीड़ आ गई है। उसे सभी ने घेर लिया है। एक स्‍टार का पुनर्जन्‍म हुआ है। मेरे खयाल में प्रेस कांफ्रेंस ठीक ही रहा। ज्‍यादातर मेरी मातृभाषा मराठी में बोल रहे थे। दर्शील और मंजरी भी मराठी बोलते हैं। मंजरी पुणे से है। खास रिश्‍ता है। प्रेस कांफ्रेंस में फिल्‍म से संबंधित सवालों के जवाब देने के अवसर मिलते हैं। बड़ा सवाल है – चिल्‍ड्रेन फिल्‍म ही क्‍यों? ‘ जोकोमोन ’ बच्‍चों के लिए है, लेकिन केवल बच्‍चों के लिए नहीं है। आयटम नंबर नहीं होने, हिंसा नहीं होने और द्विअर्थी संवादों के नहीं होने से किसी फिल्‍म के दर्शक सिर्फ बच्‍चे नहीं हो सकते। दरअसल, ऐसा होने पर मां-बाप और दादा-दादी या नाना-नानी भी अपने बच्‍चों के साथ ऐसी फिल्‍मों का बेझिझक आनंद उठा सकते हैं, जो कि आयटम नंबर आ जाने पर थोड़ा कम हो जाता है। हमने अपनी टेस्‍ट स्‍क्रीनिंग में देखा कि बड़े भी बच्‍चों की तरह फिल्‍म देख कर खुश हो रहे थे। दूसरा सवाल – कोई वयस्‍क दर्शक मुख्‍य भूमिका में बच्‍चे को क्‍यों देखना चाहेगा? बच्‍चे के नायक बनने का मुद्दा इस वजह से...

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (९ अप्रैल)

9 अप्रैल 2011 11am हम इंदौर आ गए हैं। ‘जोकोमन’ के प्रोमोशन के लिए मेरे साथ मंजरी और दर्शील इंदौर में हैं। हम सभी एमेरल्‍ड हाइट स्‍कूल आए हैं। बड़े शहर वाले गहरी सांस लेते हैं। ऐसा स्‍कूल नहीं देखा। 200 एकड़ की जमीन में फैला स्‍कूल, मैदान, स्‍वीमिंग पुल, क्रिकेट के मैदान, किले की डिजायन में बनी इमारते... बेचारी मुंबई... निर्धन मुंबई। 200 बच्‍चे आदर के साथ खड़े हैं। वाह... बच्‍चों को क्‍या हो गया है? हम उनके आधे भी अनुशासित नहीं थे। ‘जोकोमन’ के गीत पर स्‍कूल के बच्‍चे जोश के साथ नाचते हैं (मेरी लालची आंखों में ऐसे और भी दृश्‍य उभरते हैं) ... एक निर्देशक को और क्‍या चाहिए। दर्शील उनसे मिलता है। हाथ मिलाता है। तस्‍वीरें उतारी जाती हैं। मुझे दर्शील की नैसर्गिक और संतुलित सरलता अच्‍छी लगती है। वह दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करता। 3pm हमलोग लोकल रेडियो स्‍टेशन माय एफएम आए हैं। मंजरी का माइक गिर जाता है। रेडियो जौकी मजाक करता है, ‘मैम, माइक भी आप पर फिसल रहा है।’ मंजरी खुश है। एक्‍टर एक्‍टर ही रहेंगे। 6pm हम एक बड़े मॉल में आए हैं। भारी भीड़ जमा है। दर्शील के फैन की भीड़ है। एमस...