फिल्म समीक्षा : मुक्ति भवन
फिल्म रिव्यू रिश्तों के भावार्थ मुक्ति भवन -अजय ब्रह्मात्मज निर्देशक शुभाशीष भूटियानी की ‘ मुक्ति भवन ’ रिश्तों के साथ जिदगी की भी गांठे खोलती है और उनके नए पहलुओं से परिचित कराती है। शुभाशीष भूटियानी ने पिता दया(ललित बहल) और पुत्र राजीव(आदिल हुसैन) के रिश्ते को मृत्यु के संदर्भ में बदलते दिखाया है। उनके बीच राजीव की बेटी सुनीता(पालोमी घोष) की खास उत्प्रेरक भूमिका है। 99 मिनट की यह फिल्म अपनी छोटी यात्रा में ही हमारी संवेदना झकझोरती और मर्म स्पर्श करती है। किरदारों के साथ हम भी बदलते हैं। कुछ दृश्यों में चौंकते हैं। दया को लगता है कि उनके अंतिम दिन करीब हैं। परिवार में अकेले पड़ गए दया की इच्दा है कि वे काशी प्रवास करें और वहीं आखिरी सांस लें। उनके इस फैसले से परिवार में किसी की सहमति नहीं है। परिवार की दिनचर्या में उलटफेर हो जाने की संभावना है। अपनी नौकरी में हमेशा काम पूरा करने के भार से दबे राजीव को छुट्टी लेनी पड़ती है। पिता की इच्छा के मुताबिक वह उनके साथ काशी जाता है। काशी के मुक्ति भवन में उन्हें 15 दिनों का ठिकाना मिलता है। राजीव धीरे-धीरे वहा...