फिल्म समीक्षा : तीन
है नयापन -अजय ब्रह्मात्मज हक है मेरा अंबर पे लेके रहूंगा हक मेरा लेके रहूंगा हक मेरा तू देख लेना फिल्म के भाव और विश्वास को सार्थक शब्दों में व्यक्त करती इन पंक्तियों में हम जॉन विश्वास के इरादों को समझ पाते हैं। रिभु दासगुप्ता की ‘ तीन ’ कोरियाई फिल्म ‘ मोंटाज ’ में थोड़ी फेरबदल के साथ की गई हिंदी प्रस्तुति है। मूल फिल्म में अपहृत लड़की की मां ही प्रमुख पात्र है। ‘ तीन ’ में अमिताभ बच्च्न की उपलब्धता की वजह से प्रमुख किरदार दादा हो गए हैं। कहानी रोचक हो गई है। बंगाली बुजुर्ग की सक्रियता हंसी और सहानुभूति एक साथ पैदा करती है। निर्माता सुजॉय घोष ने रिभु दासगुप्ता को लीक से अलग चलने और लिखने की हिम्मत और सहमति दी। ‘ तीन ’ नई तरह की फिल्म है। रोचक प्रयोग है। यह हिंदी फिल्मों की बंधी-बंधायी परिपाटी का पालन नहीं करती। कहानी और किरदारों में नयापन है। उनके रवैए और इरादों में पैनापन है। यह बदले की कहानी नहीं है। यह इंसाफ की लड़ाई है। भारतीय समाज और हिंदी फिल्मों में इंसाफ का मतलब ‘ आंख के बदले आंख निकालना ’ रहा है। दर्शकों को इसमें म...