दरअसल : भिखारी के तीन चेंज
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-अजय ब्रह्मात्मज यह कानाफूसी नहीं है। स्वयं करण जौहर ने स्वीकार किया है। इस प्रसंग से पता चलता है कि हमारे फिल्मकार अपने समाज से कितना कटे हुए हैं। वे जिस दुनिया में रहते हैं और पर्दे पर जिस दुनिया को रचते हैं,वह वास्तविक दुनिया से कोसों दूर उनके खयालों में रहती है। हमें पर्दे पर रची उनकी दुनिया भले ही आकर्षक और सपने की तरह लगे,उसमें रमने का मन भी करे,उसकी चौंधियाहट से हम विस्मित होते रहे....लेकिन सच से उनका वास्ता नहीं होता। वस्तु,चरित्र,दृश्य,प्रसंग और कहानियां सब कुछ वायवीय होती हैं। जीवन के कड़वे और मीठे अनुभवों की काल्पनिक उड़ान से कहानियां रची जाती हैं। उन कहानियों को जब कलाकार पर्दे पर जीते हैं तो वह फिल्म का रूप लेती हैं। जरूरी है जीवनानुभव....इसके अभाव में इधर अनेक फिल्मकार आए हैं,जिन्होंने फिल्मों में एक वायवीय और चमकदार दुनिया रची है। एक बार सुधीर मिश्रा से बात हो रही थी। उनसे मैंने पूछा कि कुछ फिल्मकारों की फिल्में और उनमें किरदारों की मनोदशा इतनी नकली क्यों लगती है ? उन्होंने सवाल खत्म होते ही कहा, ’ क्योंकि उन्हें नकली लोग रच रहे होते हैं। ऐ...