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आज भी लगता है डर : अनुष्का शर्मा

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यंग लॉट की अनुष्का शर्मा नित नई सफलता हासिल कर रही हैं। बतौर अभिनेत्री तो वे स्थापित नाम बन चुकी हैं ही, निर्माता के तौर पर भी वे अपनी एक अलग जगह बनाने में जुटी हुई हैं। उनकी अगली पेशकश ‘दिल धड़कने दो’ है। उन्होंने साझा की अदाकारी के सफर और फिल्मों को लेकर अपने अनुभव : -अजय ब्रह्मात्मज -फिल्मों को लेकर आप को चूजी कहा जा सकता है? जी हां। मेरी पूरी प्राथमिकता सही फिल्में व फिल्मकारों के चयन पर केंद्रित रहती हैं। अनुराग कश्यप भी उनमें से एक थे। तभी ‘बैंड बाजा बारात’ के बाद ही ‘बॉम्बे वेल्वेट’ मेरे पास आई तो मैंने मना नहीं कर सकी। इनफैक्ट मैं उस फिल्म में कास्ट होने वाली पहली कलाकार थी। मेरे बाद धीरे-धीरे सब आए। मैं कमर्शियल फिल्में देने वालों के संग भी काम कर रही हूं और जो लीक से हटकर बना रहे हैं, उनके साथ भी। अनुराग जैसे फिल्मकार किसी भी आम या खास चीज को एक अलग तरीके से एडैप्ट कर लेते हैं। मिसाल के तौर पर ‘देवदास’ को उन्होंने ‘देव डी’ बना दिया। ‘देव डी’ का नायक डिप्रेस होकर पागल नहीं हो जाता। वह चंद्रमुखी के साथ चला जाता है। वह एंगल मुझे बहुत भाया था। मुझे खुद भी मोनोटनी से नफरत है।

फिल्‍म समीक्षा : बॉम्‍बे वेल्‍वेट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज स्टार : 4.5 हिंदी सिनेमा में इधर विषय और प्रस्तुति में काफी प्रयोग हो रहे हैं। पिछले हफ्ते आई ‘पीकू’ दर्शकों को एक बंगाली परिवार में लेकर गई, जहां पिता-पुत्री के बीच शौच और कब्जियत की बातों के बीच ही जिंदगी और डेवलपमेंट से संबंधित कुछ मारक बातें आ जाती हैं। फिल्म रोजमर्रा जिंदगी की मुश्किलों में ही हंसने के प्रसंग खोज लेती है। इस हफ्ते अनुराग कश्यप की ‘बॉम्बे वेल्वेट’ हिंदी सिनेमा के दूसरे आयाम को छूती है। अनुराग कश्यप समाज के पॉलिटिकल बैकड्राप में डार्क विषयों को चुनते हैं। ‘पांच’ से ‘बॉम्बे वेल्वेट’ तक के सफर में अनुराग ने बॉम्बे के किरदारों और घटनाओं को बार-बार अपनी फिल्मों का विषय बनाया है। वे इन फिल्मों में बॉम्बे को एक्स प्लोर करते रहे हैं। ‘बॉम्बे वेल्वेेट’ छठे दशक के बॉम्बे की कहानी है। वह आज की मुंबई से अलग और खास थी। अनुराग की ‘बॉम्बे वेल्वेट’ 1949 में आरंभ होती है। आजादी मिल चुकी है। देश का बंटवारा हो चुका है। मुल्तान और सियालकोट से चिम्मंन और बलराज आगे-पीछे मुंबई पहुंचते हैं। चिम्मन बताता भी है कि दिल्ली जाने वाली ट्रेन में लोग कट रहे थे, इसलिए वह ब

बॉम्‍बे वेल्‍वेट : यों रची गई मुंबई

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    पीरियड फिल्मों में सेट और कॉस्ट्यूम का बहुत महत्व होता है। ‘बॉम्बे वेल्वेट’ में इनकी जिम्मेदारी सोनल सावंत और निहारिका खान की थी। दोनों ने अपने क्षेत्रों का गहन रिसर्च किया। स्क्रिप्ट को ध्यान में रखकर सारी चीजें तैयार की गईं। पीरियड फिल्मों में इस पर भी ध्यान दिया जाता है कि परिवेश और वेशभूषा किरदारों पर हावी न हो जाएं। फिल्म देखते समय अगर यह फील न हो कि आप कुछ खास डिजाइन या बैकग्राउंड को देख रहे हैं तो वह बेहतर माना जाता है। अनुराग कश्यप ने ‘ब्लैक फ्राइडे’ और ‘गुलाल’ में भी पीरियड पर ध्यान दिया था, पर दोनों ही फिल्में निकट अतीत की थीं। ‘बॉम्बे वेल्वेट’ में उन्हें  पांचवें और छठे दशक की मुंबई दिखानी थी। सड़क और इमारतों के साथ इंटीरियर, पहनावा, गीत-संगीत, भाषा पर भी बारीकी से ध्यान देना था।     निहारिका खान की टीम में आठ सदस्य थे। उन्होंने रेफरेंस के लिए आर्काइव, लायब्रेरी, वेबसाइट, पुरानी पत्र-पत्रिकाएं और परिचितों के घरों के प्रायवेट अलबम का सहारा लिया। रोजी, खंबाटा, जॉनी बलराज और जिमी मिस्त्री जैसे मुख्य किरदारों के साथ ही चिमन, पुलिस अधिकारी, ड्रायवर, पट

बॉम्बे वेल्वेट : मूल विचार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज    आज की मुंबई और तब का बॉम्बे भारत का ऐसा अनोखा शहर है, जहां आजादी के पहले से लोग कुछ करने और पाने की तलाश में आते रहे हैं। नौ द्वीपों के बीच की खाड़ी को पाटकर मुंबई शहर बना। महानगर के विकास में अनके कहानियां दफन हो गईं। छठे-सातवें दशक की मुंबई में एक तरफ मिल मजदूरों का आंदोलन था तो दूसरी तरफ रियल एस्टेट के गिद्धों की नजर हासिल की गई उन खाली जमीनों पर थी, जिन पर गगनचुंबी इमारतें खड़ी होनी थीं। शहर के इस बदलते परिदृश्य में रोजी नरोन्हा और जॉनी बलराज बॉम्बे आते हैं। अपनी सुरक्षा और महत्वाकांक्षा की वजह से वे शहर के गर्भ में चल रहे कुचक्र में फंसते हंै। पांचवे-छठे दशक की मुंबई की पृष्ठभूमि में रोजी और बलराज की इस प्रेम कहानी में अपराध, हिंसा और छल के धागे हैं। दो मासूम दिलों की छटपटाहट भी हैं, जो अपनी खुशी और जिंदगी के लिए शहर के अमीरों के मोहरे बनते हैं। वे बदलते शहर के विकास की चक्की में पिसते हैं।     मुंबई शहर का रहस्य अनुराग कश्यप को आकर्षित करता रहा है। पहली फिल्म ‘पांच’ से लेकर ‘अग्ली’ तक की यात्रा में वे इस शहर के रहस्य और गुत्थियों को समझने और खोलने की कोश

प्रशंसकों को थैंक्यू बोल कर आगे बढ़ना पड़ता है-अनुराग कश्यप

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-अजय ब्रह्मात्‍मज - बाॅम्बे वेलवेट के पूरे वेंचर को आप कैसे देख पा रहे हैं? इस फिल्म के जरिए हम जिस किस्म की दुनिया व बांबे क्रिएट करना चाहते थे, उसमें हम सफल रहे हैं। फैंटम समेत मुझ से जुड़े सभी लोगों के लिए यह बहुत बड़ी पिक्चर है। इस फिल्म के जरिए हमारा मकसद दर्शकों को छठे दशक के मुंबई में ले जाना है। लोगों को लगे कि वे उस माहौल में जी रहे हैं। लिहाजा उस किस्म का माहौल बनाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी है। -इस तरह की फिल्म हिंदी में रही नहीं है। जैसा बाॅम्बे आपने फिल्म में क्रिएट किया है, उसका कोई रेफरेंस प्वॉइंट भी नहीं रहा है..? बिल्कुल सही। हम लोगों को शब्दों में नहीं समझा सकते कि फिल्म में किस तरह की दुनिया क्रिएट की गई है। पता चले हम लोगों को कुछ अच्छी चीज बताना चाहते हैं, लोग उनका कुछ और मतलब निकाल लें। बेहतर यही है कि लोग ट्रेलर और फिल्म देख खुद महसूस करें कि हमने क्या गढ़ा है? बेसिकली यह एक लव स्टोरी है... -... पर शुरू में आप का आइडिया तीन फिल्में बनाने का था? वह अभी भी है। यह बनकर निकल जाए तो बाकी दो पाइपलाइन में हैं। इत्तफाकन तीनों कहानियों में कॉमन फैक्टर  शहर बाम्बे और एकाध

बॉम्‍बे वेल्‍वेट का हिंदी पोस्‍टर और आम हिंदुस्‍तानी गीत के बोल

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  हिंदी पत्रकारों और पत्र-पत्रिकाओं की सुविधा के लिए बॉम्‍बे वेल्‍वेट का हिंदी पोस्‍टर। अभी तक आप जिस भी तरीके से फिल्‍म का नाम लिखते रहे हों। आगे से इसका नाम बॉम्‍बे वेल्‍वेट ही लिखें तो नाम की एकरूपता बनी रहेगी।  साथ में पेश ही इसी फिल्‍म के एक गीत के बोल.... बाॅम्‍बे वेल्‍वेट मूल गीत रोमन हिंदी-अमिताभ भट्टाचार्य                                             लिप्‍यंतरण हिंदी- रामकुमार सिंह आम हिंदुस्‍तानी धोबी का कुत्‍ता जैसे, घर का ना घाट का पूरी तरह ना इधर का ना उधर का सुन बे निखट्टू तेरा वही तो हाल है जिंदगी की रेस में, जो मुंह उठा के दौड़ा जिंदगी ने मारी लात पीछे छोड़ा, तू है वो टट्टू गधे सी जिसकी चाल है प्‍यार में ठेंगा, बार में ठेंगा, क्‍योंकि बोतल भी गोरों की गुलाम है रूठी है महबूबा, रूठी रूठी शराब है आम हिंदुस्‍तानी तेरी किस्‍मत खराब है आसमान से यूं गिरा खजूर पै तू अटका तेरे हालात ने उठाके तुझको पटका की ऐसी चंपी कि तेरे होश उड़ गए बेवफाई देख के ना आई तुझको हिचकी चौड़ी छाती तेरी चुटकियों में पिचकी गम की पप्‍पी मिली तो बाल झड़ गए प्‍यार मे