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दरअसल : बिमल राय-मुख्यधारा में यथार्थवादी फिल्म

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-अजय ब्रह्मात्मज      पिछली बार हम ने उनकी कुछ फिल्मों की चर्चा नहीं की थी। आजादी के बाद जब सारे फिल्मकार अपनी पहचान और दिशा खोज रहे थे,तभी जवाहर लाल नेहरू के प्रयास से 1952 की जनवरी में पहले मुंबई और फिर कोलकाता,दिल्ली,चेन्नई और तिरुअनंतपुरम में पहले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया गया। इस फेस्टिवल के असर से अनेक फिल्मकार अपनी फिल्मों में यथार्थवाद की ओर झुके। हालांकि वामपंथी आंदोलन और इप्टा के प्रभाव से प्रगतिशील और यथार्थवादी दूरिूटकोण और शैली पर एक तबका जोर दे रहा था,लेकिन वह हाशिए पर था।इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में डिसिका जैसे फिल्मकारों की इतालवी फिल्मों को देखने के बाद भारतीय फिल्मकारों का साहस बढ़ा। तब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में संकेंद्रित हो रही थी। देश भर से प्रतिभाएं व्यापक दर्शक और अधिकतम नाम और कमाई के लिए मुंबई मुखातिब हो रही थीँ। पिछले स्तंभ में हम ने बताया था कि अशोक कुमार के आग्रह और निमंत्रण पर बिमल राय भी मुंबई आ गए थे।      इस बार उनकी दो फिल्मों की विशेष चर्चा होगी। उनकी एक फिल्म है हमराही। 1944 में यह फिल्म आ...

दरअसल : बिमल राय

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दरअसल ़ ़ ़ बिमल राय     पिछली सदी के छठे-सातवें दशक को हिंदी फिल्मों का स्वर्ण युग माना जाता है। स्वर्ण युग में के आसिफ, महबूब खान,राज कपूर,वी शांताराम और गुरूदत्त जैसे दिग्गज फिल्मकारों के साथ बिमल राय का भी नाम लिया जाता है। बिमल राय ने कोलकाता के न्यू थिएटर के साथ फिल्मी करिअर आरंभ किया। वहां वे बतौर फोटोग्राफर और कैमरामैन फिल्मों के निर्माण में सहयोग देते रहे। पीसी बरुआ और नितिन बोस के सान्निध्य में वे फिल्म निर्माण से परिचित हुए और निजी अभ्यास से निर्देशन में निष्णात हुए। बंगाल में रहते हुए उन्होंने बंगाली फिल्म ‘उदयेर पाथे’ का निर्देशन किया। बाद में यही फिल्म हिंदी में ‘हमराही’ नाम से बनी थी। फिल्म का नायक लेखक था,जो अपने शोषण के खिलाफ जूझता है। फिल्मों में सामाजिक यथार्थ और किरदारों के वास्तविक चित्रण का यह आरंभिक दौर था।     इस समय तक बंगाल विभाजन के प्रभाव में कोलकाता की फिल्म इंडस्ट्री टूट चुकी थी। आजादी के बाद लाहौर के पाकिस्तान में रह जाने और कोलकाता में फिल्म निर्माण कम होने से मुंबई में निर्माता-निर्देशको की जमघट और गतिविधियां बढ़ रही थीं...