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Remembering Farooque Sir… -swara bhaskar

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए फारुख शेख पर लिखा स्‍वरा भास्‍कर का संस्‍मरण्‍ा इसे mofightclub से लिया गया है। This is a guest post by actor Swara Bhaskar . She worked with Farooque Shaikh in her film Listen Amaya. Perhaps the most vivid memory I have of the iconic and gentlemanly Farooque Shaikh is from the second day of shooting Listen Amaya. We were in the chaotic and uncontrolled environs of the Paraathhey Wali Gali of Old Delhi, trying to shoot sync-sound (!) a long conversational scene. It was hot, noisy and the narrow lane was becoming increasingly stuffed with curious onlookers since word had got around that the much-loved veteran actor was in Puraani Dilli. We were between shots and had eaten a large number of paraathhaas, and the production had relaxed the ‘set-lock’ so that crowds could go about their morning routine. Two scrawny men, hands-in-one-another’s-neck in the classic Indian male camaraderie pose sauntered by. One of them spotted Farooque sir and started....

फारुख शेख : आम हैं, अशर्फियाँ नहीं

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वरुण ग्रोचर का यह संस्‍मरण moifightclub से लिया गया है। आम हैं, अशर्फियाँ नहीं “अरे और लीजिये! आम भी कोई गिन के खाता है क्या? आम है, अशर्फियाँ नहीं.” फारूख शेख साब हमें अपने गुजरात के बगीचे के आम (जो बहुत ही कायदे से छीले और बराबर चौकोरों में काटे गए थे) खाने को कह रहे थे और मुझे लग रहा था जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब कलकत्ता में हुगली किनारे बैठ कर, किसी बोर दोपहरी में अपने किसी दोस्त से बात कर रहे हों. यह हमारी उनके साथ पहली मुलाक़ात थी. हम माने चार लोग – जिस बंडल फिल्म को उन्होंने ना जाने क्यों हाँ कह दिया था, उसका डायरेक्टर, उसके दो संवाद लेखक (मैं और राहुल पटेल), और एक प्रोड्यूसर. हम चारों का कुल जमा experience, उनके बगीचे के बहुत ही मीठे आमों से भी कम रहा होगा लेकिन उतनी इज्ज़त से कभी किसी ने हमें आम नहीं खिलाये थे. और जब मैं यह सोचने लगा कि यह ‘किसी ने’ नहीं, फारुख शेख हैं – ‘कथा’ का वो सुन्दर कमीना बाशु, ‘चश्मे बद्दूर’ का पैर से सिगरेट पकड़ने वाला सिद्धार्थ (Ultimate मिडल क्लास हीरो – थोड़ा शर्मीला, थोड़ा चतुर, थोड़ा sincere, थोड़ा पढ़ाकू, और थोड़ा male-ego से ग्रसित), ‘गरम ह...

फारुख शेख : जीवन और अभिनय में रही नफासत

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-अजय ब्रह्मात्‍मज                  उनसे मिलने के बाद आप उनके प्रशंसक हुए बिना नहीं रह सकते थे। शालीन, शिष्ट, अदब, इज्जत और नफासत से भरा उनका बात-व्यवहार हिंदी फिल्मों के आम कलाकारों से उन्हें अलग करता था। उन्हें कभी ओछी, हल्की और निंदनीय बातें करते किसी ने नहीं सुना। विनोदप्रिय, मिलनसार और शेर-ओ-शायरी के शौकीन फारुख शेख ने अपनी संवाद अदायगी का लहजा कभी नहीं छोड़ा। पहली फिल्म 'गर्म हवा' के सिकंदर से लेकर 'क्लब 60' तारीक तक के उनके किरदारों को पलट कर देखें तो एक सहज निरंतरता नजर आती है।                वकील पिता मुस्तफा शेख उन्हें वकील ही बनाना चाहते थे, लेकिन कॉलेज के दिनों में उनकी रुचि थिएटर में बढ़ी। वे मुंबई में सक्रिय इप्टा [इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन] के संपर्क में आए और रंगमंच में सक्रिय हो गए। उनकी इस सक्रियता ने ही निर्देशक एमएस सथ्यू को प्रभावित किया। इप्टा के सहयोग से सीमित बजट में बन रही 'गर्म हवा' में उन्हें सल...

फिल्‍म समीक्षा : लिसेन अमाया

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रिश्तों का नया समीकरण -अजय ब्रह्मात्‍मज  बदलते समाज में भावनाएं, संबंध और हम सभी के आसपास की जिंदगी तेजी से बदल रही है। विधुर या विधवा होने के बाद जिंदगी में अकेला पड़ गया व्यक्ति कई बार दूसरों के प्रति आकर्षण महसूस करता है, लेकिन सामाजिक दबाव और घरेलू जिम्मेदारियों के बीच वह प्रिय व्यक्ति के साथ नहीं रह पाता। समाज और बच्चे अपने माता-पिता के नए संबंधों को सहजता से नहीं ले पाते। अमाया तेज, समझदार और आज की लड़की है। पिता के न रहने के बाद वह अपनी मां लीला के साथ बेहतरीन जिंदगी जी रही है। दोनों के रिश्ते मधुर और भरोसे के हैं। उनके बीच खुली बातचीत होती है, लेकिन मां की जिंदगी में आए जयंत सिन्हा को देखते ही अमाया बिखर और बिफर जाती है। लीला स्वावलंबी मां है। पति के निधन के बाद उन्होंने अमाया को अकेले ही पाला है। जीवन के महत्वूपर्ण साल उन्होंने अमाया की देखभाल में बिताया है। वह 'बुक ए कॉफी' नाम से एक कैफे भी चलाती हैं। निजी देख-रेख और सेवा की वजह से उनका कैफे सभी के बीच लोकप्रिय है। इसी कैफे में फोटोग्राफर जयंत सिन्हा से लीला की मुलाकात होती है। वे विधुर हैं। दो...