फिल्म समीक्षा : नूर
फिल्म रिव्यू बेअसर और बहकी नूर -अजय ब्रह्मात्मज जब फिल्म का मुख्य किरदार ‘ एक्शन ’ के बजाए ‘ नैरेशन ’ से खुद के बारे में बताने लगे और वह भी फिल्म आरंभ होने के पंद्रह मिनट तक जारी रहे तो फिल्म में गड़बड़ी होनी ही है। सुनील सिप्पी ने पाकिस्तानी पत्रकार और लेखिका सबा इम्तियाज के 2014 में प्रकाशित उपन्यास ‘ कराची,यू आर किलिंग मी ’ का फिल्मी रूपांतर करने में नाम और परिवेश के साथ दूसरी तब्दीलियां भी कर दी हैं। बड़ी समस्या कराची की पृष्ठभूमि के उपन्यास को मुंबई में रोपना और मुख्य किरदार को आयशा खान से बदल कर नूर राय चौधरी कर देना है। मूल उपन्यास पढ़ चुके पाठक मानेंगे कि फिल्म में उपन्यास का रस नहीं है। कम से कम नूर उपन्यास की नायिका आयशा की छाया मात्र है। फिल्म देखते हुए साफ पता चलता है कि लेखक और निर्देशक को पत्रकार और पत्रकारिता की कोई जानकारी नहीं है। और कोई नहीं तो उपन्यासकार सबा इम्तियाज के साथ ही लेखक,निर्देशक और अभिनेत्री की संगत हो जाती तो फिल्म मूल के करीब होती। ऐसा आग्रह करना उचित नहीं है कि फिल्म उपन्यास का अनुसरण करें,नेकिन किसी भी ...