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अंधेरे में सूरज की तरह सेल्युलाइड का जादू...

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♦ निधि सक्सेना एक उस्ताद बड़े जलसे से गा कर लौटे। जो पूछा गया – कहिए, कैसा कार्यक्रम रहा, तो मन और मुंह, दोनों मसोस के कहते हैं, ‘प्रोग्राम तो अच्छा था, लेकिन सब गलत जगह पे दाद देते हैं… जो कोई बात ही नहीं, उस पर वाह-वाह हो रही है और जहां दिल-ओ-जान निकाल के रख दिया, वहां कुछ नहीं, बस सब चुप चिपकाये बैठे हैं।’ और ऐसा भी होता है न कभी-कभी कि कुछ खूब अच्छा लग रहा है, दिल भरा जा रहा है, लेकिन जो कोई पूछ ले कि इसमें अच्छा क्या लगा, तो झूमता दिल घनचक्कर हो जाता है। दिमाग चारों खाने चित्त हो जाता है। अब कुछ है तो, जो असर कर रहा है, लेकिन हम कहां से ढूंढ लाएं… क्या बताएं कि वो ठीक-ठीक क्या है! सो आनन-फानन में बगलें झांकते-से, जवाब देकर जल्दी से मामला रफा-दफा करते। फिल्मों के मामले में जो हीरो ने हंसाया तो हंस दिये। हिरोइन और मां (फिल्मी मां बड़ी कमाल की लगती हैं मुझे) ने रुलाया, तो रो दिये वाला मामला… और जो डायलॉग जबान पे लग जाए और चढ़ा-चढ़ा घर तक आ जाए, वो फिल्म अच्छी! जैसे मैं अक्सर कुछ डायलॉग बोलती हूं – तुझे चने चाहिए या मां? बकौल मदर इंडिया। तसल्लीबख्श जवाब की तलाश जो फिल्म या हंसा दे,

भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं

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जयपुर. हिंदी सिनेमा केवल मुंबई की बपौती नहीं है और मैं मानता हूं कि हर प्रदेश का अपना सिनेमा होना चाहिए। यह सिनेमा के विकास के लिए जरूरी है। यह बात जाने माने फिल्म पत्रकार अजय बत्मज ने ‘समय, समाज और सिनेमा’ विषय पर हुए संवाद में कही। जेकेके के कृष्णायान सभागार में शनिवार को जवाहर कला केन्द्र और भारतेन्दु हरीश चन्द्र संस्था की ओर से आयोजित चर्चा में उन्होने सिनेमा के जाने अनजाने पहलुओं को छूने की कोशिश की। उन्होने कहा कि मुझे उस समय बहुत खुशी होती है जब मैं सुनता हूं कि जयपुर ,भोपाल या लखनऊ का कोई सिनेमा प्रेमी संसाधन जुटा कर अपनी किस्म की फिल्म बना रहा है। सिनेमा के विकास के लिए उसका मुंबई से बाहर निकलना जरूरी है। साथ ही उन्होने यह बात भी कही कि महाराष्ट्र में जहां मराठी फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों को 15 से 60 लाख तक की सब्सिडी दी जाती है मगर राजस्थान जैसे प्रदेश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। वह कहते हैं कि मुझे आशा है कि भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं होगा। आज के सिनेमा की दशा और दिशा के प्रति आशान्वित अजय ने कहा कि सबसे अच्छी बात जो आज के सिनेमा में देखने को मिल रही है वह यह कि पिछले

भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं

जयपुर. हिंदी सिनेमा केवल मुंबई की बपौती नहीं है और मैं मानता हूं कि हर प्रदेश का अपना सिनेमा होना चाहिए। यह सिनेमा के विकास के लिए जरूरी है। यह बात जाने माने फिल्म पत्रकार अजय बrात्मज ने ‘समय, समाज और सिनेमा’ विषय पर हुए संवाद में कही। जेकेके के कृष्णायान सभागार में शनिवार को जवाहर कला केन्द्र और भारतेन्दु हरीश चन्द्र संस्था की ओर से आयोजित चर्चा में उन्होने सिनेमा के जाने अनजाने पहलुओं को छूने की कोशिश की। उन्होने कहा कि मुझे उस समय बहुत खुशी होती है जब मैं सुनता हूं कि जयपुर ,भोपाल या लखनऊ का कोई सिनेमा प्रेमी संसाधन जुटा कर अपनी किस्म की फिल्म बना रहा है। सिनेमा के विकास के लिए उसका मुंबई से बाहर निकलना जरूरी है। साथ ही उन्होने यह बात भी कही कि महाराष्ट्र में जहां मराठी फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों को 15 से 60 लाख तक की सब्सिडी दी जाती है मगर राजस्थान जैसे प्रदेश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। वह कहते हैं कि मुझे आशा है कि भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं होगा। आज के सिनेमा की दशा और दिशा के प्रति आशान्वित अजय ने कहा कि सबसे अच्छी बात जो आज के सिनेमा में देखने को मिल रही है वह यह कि पिछ