नग्नता, नंगापन और मिस्टर सिंह मिसेज मेहता - प्रवेश भारद्वाज
बचपन से ही रुपहले परदे पर थिरकते बिम्ब मुझे आकर्षित करते थे. लखनऊ, इलाहाबाद, शाहजहांपुर, उन्नाव और बरेली में बड़े होते हुये फिल्मों को देखने का सिलसिला लगातर परवान चढ़ता गया. मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में थे और उनको भी फ़िल्मों का खूब शौक था. वे फ़िल्म देखने के लिये हम भाई-बहनों को भी साथ ले जाते थे. मैं आज भी सोचता हूं तो लगता है कि बहुत कम लोग अपने बच्चों को फ़िल्म दिखाने के मामले में इतने आज़ाद ख्याल होंगे. स्कूल के दूसरे बच्चे मेरी प्रतीक्षा करते थे कि मैं कब उन्हें अपनी देखी ताज़ा फ़िल्म की कहानियां सुनाउं. मुझे लगता है कि सहपाठियों को फ़िल्म की कहानी सुनाने के इसी शौक ने मेरे अंदर कहीं न कहीं दर्शक होने के अतिरिक्त भी फ़िल्मों से जुड़ने के बीज डाले. 1992 में मैं मुंबई पहुंचा और यहां मैंने धीरे-धीरे काम सिखा. श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ में मुझे सहायक के रुप में इंट्री मिली. सोनी पर आने वाले धारावाहिक ‘शाहीन’ में मैंने पहली बार बतौर निर्देशक काम किया. मैं और मेरी पत्नी श्रुति बहुत मेहनत और गंभीरता से इसे लिखते थे लेकिन एक दिन मुझे अपने ही धारावाहिक से निकाल दिया ग...