हिन्दी टाकीज-सिनेमा ने मुझे कुंठाओं से मुक्त किया-श्रीधरम
हिन्दी टाकीज-49 श्रीधरम झंझारपुर के मूल निवासी हैं। इन दिनों दिल्ली में रहते हैं । हिन्दी और मैथिली में समान रूप से लिखते हैं। उनकी कुछ किताबें आ चुकी हैं। कथादेश और बया जैसी पत्रिकाओं के संपादन से भी जुड़े हैं। बात-व्यवहार में स्पष्ट श्रीधरम मानते हैं कि सिनेमा ने उन्हें बचा लिया और नया स्वरूप दिया । मेरा बचपन गाँव में बीता और तब तक गाँवों में सिनेमा हॉल नहीं खुले थे। अब तो गाँव में भी बाँस की बल्लियों वाले सिनेमा हॉल दिखाई पड़ते हैं। बचपन में पहली फिल्म पाँच-सात साल की उम्र में ‘ क्रांति ’ देखी थी जिसकी धुंधली तस्वीर बहुत दिनों तक मेरा पीछा करती रही , खासकर दौड़ते हुए घोड़े की टाप...। यह फिल्म भी गंगा मैया की , कृपा से देख पाया था। घर की किसी बुजुर्ग महिला ने मेरे धुँघराले बालों को गंगा मैया के हवाले करने का ‘ कबुला ’ किया था और इसीलिए माता-पिता हमें लेकर ‘ सिमरिया ’ गए थे। वहाँ से लौटते हुए दरभंगा में अपनी मौसी के यहाँ हम लोग रुके और उन्हीं लोगों के साथ हमने क्रांति देखी थी। मेरे लिए यह ऐतिहासिक दिन था जब मेरे मन में फिल्म-दर्शन-क्रांति का बीज बोया गया। तब ‘ दरभंगा ’ मेरे लि...