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दरअसल : बनेंगी प्रादेशिक फिल्‍में

-अजय  ब्रह्मात्‍मज मुंबई में बन रहीं हिंदी फिल्में तेजी से मेट्रो और मल्टीप्लेक्स के दर्शकों की रुचि के मुताबिक बदल रही हैं। किसी भी प्रोडक्ट की मार्केटिंग में उसके टार्गेट गु्रप की पसंद-नापसंद का खयाल रखा जाता है। ज्यादातर कंज्यूमर प्रोडक्ट इसी तरीके से बाजार और ग्राहकों की मांग पूरी कर मुनाफा कमाते हैं। फिल्में भी प्रोडक्ट हैं। आप चाहें, तो उसे कंज्यूमर प्रोडक्ट न कहें, लेकिन आज के परिवेश में दर्शकों (ग्राहकों) की रुचि, पसंद और मांग के आधार पर ही उनका निर्धारण होता है। फिल्मों के बाजार में भी उन दर्शकों का ज्यादा खयाल रखा जा रहा है, जो ज्यादा पैसे खर्च करते हैं। मुंबई के निर्माता-निर्देशक बाकी दर्शकों की परवाह नहीं करते। इस माहौल में ही नए सिनेमा के विस्तार की संभावनाएं छिपी हुई हैं। मुझे साफ दिख रहा है कि अगर मुंबई के फिल्म निर्माता इसी तरह देशी दर्शकों से बेपरवाह रहे, तो उनके लिए एक नया सिनेमा उभरेगा। पिछले पांच-छह सालों में भोजपुरी सिनेमा ने इसी वैक्यूम को भरा है। भोजपुरी सिनेमा अपनी सीमा और कलात्मक संकीर्णताओं के कारण उभरने के बावजूद ठोस स्वरूप नहीं ले सका। इसकी अगली कड़ी के रूप ...

भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं

जयपुर. हिंदी सिनेमा केवल मुंबई की बपौती नहीं है और मैं मानता हूं कि हर प्रदेश का अपना सिनेमा होना चाहिए। यह सिनेमा के विकास के लिए जरूरी है। यह बात जाने माने फिल्म पत्रकार अजय बrात्मज ने ‘समय, समाज और सिनेमा’ विषय पर हुए संवाद में कही। जेकेके के कृष्णायान सभागार में शनिवार को जवाहर कला केन्द्र और भारतेन्दु हरीश चन्द्र संस्था की ओर से आयोजित चर्चा में उन्होने सिनेमा के जाने अनजाने पहलुओं को छूने की कोशिश की। उन्होने कहा कि मुझे उस समय बहुत खुशी होती है जब मैं सुनता हूं कि जयपुर ,भोपाल या लखनऊ का कोई सिनेमा प्रेमी संसाधन जुटा कर अपनी किस्म की फिल्म बना रहा है। सिनेमा के विकास के लिए उसका मुंबई से बाहर निकलना जरूरी है। साथ ही उन्होने यह बात भी कही कि महाराष्ट्र में जहां मराठी फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों को 15 से 60 लाख तक की सब्सिडी दी जाती है मगर राजस्थान जैसे प्रदेश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। वह कहते हैं कि मुझे आशा है कि भविष्य का सिनेमा मुंबई का नहीं होगा। आज के सिनेमा की दशा और दिशा के प्रति आशान्वित अजय ने कहा कि सबसे अच्छी बात जो आज के सिनेमा में देखने को मिल रही है वह यह कि पिछ...

हिन्दी टाकीज:स से सिनेमा-निधि सक्सेना

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हिन्दी टाकीज-१४ इस बार निधि सक्सेना की यादें...निधि जयपुर की हैं। फिल्में देखने का उन्हें जुनून है... बनाने का भी। तमाम एनजीओ के लिए डॉक्यूमेंट्री बनाती हैं। खासकर कुदरत (पानी, जंगल, परिंदों, मिट्टी) पर. दूरदर्शन के लिए भी काम कर चुकी हैं।पढ़ने की आदत जबर्दस्त है और घूमने की भी . स्कल्पचर बनाने के हुनर पर खुद यकीन है और पेंटिंग्स बनाने के कौशल पर बाकियों को. उनका एक सीधा-सादा सा ब्लॉग भी है http://ismodhse.blogspot.com निधि को गाने सुनना भी अच्छा लगता है. नए-पुराने हर तरह के. उन्होंने निराले अंदाज़ में अपने अनुभव रखे हैं। स से सिनेमा क़र्ज़ अदा करूं पहले इस लेख के बहाने मैं बचपन का एक क़र्ज़ अदा कर दूँ। सबसे पहले मेरा धन्यवाद एन। चंद्रा को। अगर वो न होते तो जो भी एक-डेढ़ डिग्री मेरे पास है, अच्छे बुरे अंकों के साथ, वो कभी ना होती। तेजाब वो पहली फ़िल्म हैं, जो मैंने देखी। इससे पहले टीवी या और कुछ देखा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। तेजाब को मेरी देखी पहली फ़िल्म होने के लिए धन्यवाद नहीं, बल्कि उस गाने के कारण धन्यवाद। जिसमे गुलाबी माधुरी थिरकते हुए गाती है...एक दो तीन चार.... स्कूल मैंने जाना श...