फ़िल्म समीक्षा:चमकू
-अजय ब्रह्मात्मज यथार्थ का फिल्मी चित्रण शहरी दर्शकों के लिए इस फिल्म के यथार्थ को समझ पाना सहज नहीं होगा। फिल्मों के जरिए अंडरवर्ल्ड की ग्लैमराइज हिंसा से परिचित दर्शक बिहार में मौजूद इस हिंसात्मक माहौल की कल्पना नहीं कर सकते। लेखक-निर्देशक कबीर कौशिक ने वास्तविक किरदारों को लेकर एक नाटकीय और भावपूर्ण फिल्म बनाई है। फिल्म देखते वक्त यह जरूर लगता है कि कहीं-कहीं कुछ छूट गया है। एक काल्पनिक गांव भागपुर में खुशहाल किसान परिवार में तब मुसीबत आती है, जब गांव के जमींदार उससे नाराज हो जाते हैं। वे बेटे के सामने पिता की हत्या कर देते हैं। बेटा नक्सलियों के हाथ लग जाता है। वहीं उसकी परवरिश होती है। बड़ा होने पर चमकू नक्सल गतिविधियों में हिस्सा लेता है। एक मुठभेड़ में गंभीर रूप से घायल होने के बाद वह खुद को पुलिस अस्पताल में पाता है। वहां उसके सामने शर्त रखी जाती है कि वह सरकार के गुप्त मिशन का हिस्सा बन जाए या अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठे। चमकू गुप्त मिशन का हिस्सा बनता है। वह मुंबई आ जाता है, जहां वह द्वंद्व और दुविधा का शिकार होता है। वह इस जिंदगी से छुटकारा पाना चाहता है लेकिन अपराध जगत की त...