फिल्म समीक्षा : गुड़गांव
फिल्म रिव्यू सटीक परिवेश और परफारमेंस गुड़गांव -अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्में संवादों पर इतनी ज्यादा निर्भर हो चुकी हैं और उनकी दर्शकों को ऐसी आदत पड़ गई है कि किसी फिल्म में निर्देशक भाव,संकेत और मुद्राओं से काम ले रहा हो तो उनकी बेचैनी बढ़ने लगती है। दर्श्क के तौर पर हमें चता नहीं चलता कि फिल्म हमें क्यो अच्छी नहीं लग रही है। दरअसल,हर फिल्म ध्यान खींचती है। एकाग्रता चाहिए। दर्शक् और समीक्षक इस एकाग्रता के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें अपने मोबाइल पर नजर रखनी है या साथ आए दर्शक के साथ बातें भी करनी हैं। आम हिंदी फिल्मों में संवाद आप की अनावश्यक जरूरतों की भरपाई कर देते हैं। संवादों से समझ में आ रहा होता है कि फिल्म में क्या ड्रामा चल रहा है ? माफ करें, ‘ गुड़गांव ’ देखते समय आप को फोन बंद रखना होगा और पर्देपर चल रही गतिविधियों पर ध्यान देना होगा। नीम रोशनी में इस फिल्म के किरदारों की भाव-भंगिमाओं पर गौर नहीं किया तो यकीनन फिल्म पल्ले नहीं पड़ेगी। शंकर रमन की ‘ गुड़गांव ’ उत्कृष्ट फिल्म है। दिल्ली महानगर की कछार पर बसा गांव ‘ गुड़गांव ’ ज...