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दरअसल:गांव और गरीब गायब हैं हिंदी फिल्मों से

-अजय ब्रह्मात्मज बाजार का पुराना नियम है कि उसी वस्तु का उत्पादन करो, जिसकी खपत हो। अपने संभावित ग्राहक की रुचि, पसंद और जरूरतों को ध्यान में रखकर ही उत्पादक वस्तुओं का निर्माण और व्यापार करते हैं। कहने के लिए सिनेमा कला है, लेकिन यह मूल रूप से लाभ की नीति का पालन करता है। खासकर उपभोक्ता संस्कृति के प्रचलन के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने अपनी पूरी शक्ति वैसी फिल्मों के उत्पादन में लगा दी है, जिनसे सुनिश्चित कमाई हो। निर्माता अब उत्पादक बन गए हैं। माना जा रहा है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की अधिकांश कमाई मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों और विदेशों से होती है। नतीजतन फिल्मों के विषय निर्धारित करते समय इन इलाकों के दर्शकों के बारे में ही सोचा जा रहा है। यह स्थिति खतरनाक होने के बावजूद प्रचलित हो रही है। पिछले दिनों फिल्मों पर चल रही एक संगोष्ठी में जावेद अख्तर ने इन मुद्दों पर बात की, तो ट्रेड सर्किल ने ध्यान दिया। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं और हिंदी पत्रकारों की चिंता के इस विषय पर फिल्म इंडस्ट्री अभी तक गंभीर नहीं थी, लेकिन जावेद अख्तर के छेड़ते ही इस विषय पर विचार आरंभ हुआ। लोग बैठकों में ही सही, ले