फिल्म समीक्षा : चौरंगा
नहीं बदली है सामाजिक संरचना -अजय ब्रह्मात्मज बिकास रंजन मिश्रा की ‘ चौरंगा ’ मुंबई फिल्म फेस्टिवल में बतौर सर्वश्रेष्ठ फिल्म 2014 में पुरस्कृत हुई थी। इंडिया गोल्ड अवार्ड मिला था। अब जनवरी 2016 में यह भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है। इसे सीमित स्क्रीन मिले हैं। इस फिल्म के प्रति वितरकों और प्रदर्शकों की उदासीनता कुछ वैसी ही है,जो इस फिल्म की थीम है। भारतीय समाज में दलितों की स्थिति से भिन्न नहीं है हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में यथार्थपरक और स्वतंत्र सिनेमा।इस फिल्म के निर्ताता संजय सूरी और ओनिर हैं। बिकास रंजन मिश्रा ने ग्रामीण कथाभूमि में ‘ चौरंगा ’ रची है। शहरी दर्शकों को अंदाजा नहीं होगा,लेकिन यह सच है कि श्याम बेनेगल की ‘ अंकुर ’ से बिकास रंजन मिश्रा की ‘ चौरंगा ’ तक में देश के ग्रामीण इलाकों की सामाजिक संरचना और सामंती व्यवस्था में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है। जमींदार और नेता मिल गए हैं। दलितों का शोषण जारी है। आज भी धनिया जमींदार की हवस की शिकार है। वह अपनी स्थिति पर बिसूरने के बजाए जमींदार को र...