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फिल्‍म रिव्‍यू : जॉली एलएलबी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज तेजिन्दर राजपाल - फुटपाथ पर सोएंगे तो मरने का रिस्क तो है। जगदीश त्यागी उर्फ जॉली - फुटपाथ गाड़ी चलाने के लिए भी नहीं होते। सुभाष कपूर की 'जॉली एलएलबी' में ये परस्पर संवाद नहीं हैं। मतलब तालियां बटोरने के लिए की गई डॉयलॉगबाजी नहीं है। अलग-अलग दृश्यों में फिल्मों के मुख्य किरदार इन वाक्यों को बोलते हैं। इस वाक्यों में ही 'जॉली एलएलबी' का मर्म है। एक और प्रसंग है, जब थका-हारा जॉली एक पुल के नीचे पेशाब करने के लिए खड़ा होता है तो एक बुजुर्ग अपने परिवार के साथ नमूदार होते हैं। वे कहते हैं साहब थोड़ा उधर चले जाएं, यह हमारे सोने की जगह है। फिल्म की कहानी इस दृश्य से एक टर्न लेती है। यह टर्न पर्दे पर स्पष्ट दिखता है और हॉल के अंदर मौजूद दर्शकों के बीच भी कुछ हिलता है। हां, अगर आप मर्सिडीज, बीएमडब्लू या ऐसी ही किसी महंगी कार की सवारी करते हैं तो यह दृश्य बेतुका लग सकता है। वास्तव में 'जॉली एलएलबी' 'ऑनेस्ट ब्लडी इंडियन' (साले ईमानदार भारतीय) की कहानी है। अगर आप के अंदर ईमानदारी नहीं बची है तो सुभाष कपूर की 'जॉली एलएलबी'...

अमृता राव से अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत

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-अजय ब्रह्मात्मज     अमृता राव जल्दी ही सुभाष कपूर की फिल्म ‘जॉली एलएलबी’ में दिखाई पड़ेंगी। इस फिल्म में उन्होंने कस्बे की दबंग लडक़ी की भूमिका निभाई है। वह जॉली से प्रेम करती है, लेकिन उस पर धौंस जमाने से भी बाज नहीं आती। छुई मुई छवि की अमृता राव के लिए यह चैलेंजिंग भूमिका है। अमृता राव इन दिनों अनिल शर्मा की फिल्म ‘सिंह साब द ग्रेट’ की भोपाल में शूटिंग कर रही हैं। शूटिंग से फुर्सत निकाल कर उन्होंने झंकार से यह बातचीत की  ... - सुभाष कपूर की ‘जॉली एलएलबी’ कैसी फिल्म है? 0 इस देश में हम सभी को कभी न कभी कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते हैं। सुभाष कपूर ने रियल सिचुएशन पर यह फिल्म बनाई है। यह फिल्म कोर्ट-कचहरी के हालात, देश के कानून और उसमें उलझे नागरिकों की बात कहती है। सुभाष कपूर फिल्मों में आने से पहले पत्रकार थे। उन्हें स्वयं कभी कोर्ट के चक्कर लगाने पड़े थे। वहीं से उन्होंने फिल्म का कंसेप्ट लिया है। यह फिल्म सैटेरिकल थ्रिलर है। - कोर्ट कचहरी के मामले में आप क्या कर रही हैं? 0 इस फिल्म की पृष्ठभूमि केस की है। मैं मेरठ की बड़बोली लडक़ी संध्या हूं। छोटे शहरों की ...

फ़िल्म समीक्षा: शार्टकट

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-अजय ब्रह्मात्मज शार्टकट की मूल मलयालम फिल्म बहुत अच्छी बनी थी। उस फिल्म में मोहन लाल को दर्शकों ने खूब पंसद किया था। लेकिन हिंदी में बनी शार्टकट उसके पासंग में भी नहीं ठहरती। सवाल उठता है कि मलयालम फिल्म पर आधारित फिल्म के लेखक के तौर पर अनीस बज्मी का नाम कैसे जा सकता है? क्यों नहीं जा सकता? उन्होंने मूल फिल्म देखकर उसे हिंदी में लिखा है। इस प्रक्रिया में भले ही मूल की चूल हिल गई हो। इस फिल्म से यह भी पता चलता है कि फिल्मों की टाप हीरोइनें या तो आइटम सांग करती हैं या फिर गुंडों से जान बचाने की कोशिश करती हैं। फिल्म के हीरो निहायत मूर्ख होते हैं। किसी प्रकार पापुलर हो जाने के बाद वे अपनी मूर्खताओं को ही अपनी विशेषता समझ बैठते हैं। निर्देशक नीरज वोरा के पास फिल्म इंडस्ट्री की पृष्ठभूमि और उसके किरदार थे। वे इनके सही उपयोग से रोचक और हास्यपूर्ण फिल्म बना सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इस फिल्म को वे संभाल नहीं सके। शार्टकट में अस्पष्टता है। फिल्म का प्रमुख किरदार शेखर है या राजू या अनवर? फिल्म की हीरोइन शेखर को मिलती है, इसलिए उसे हीरो समझ सकते हैं। लेकिन फिल्म की प्रमुख घटनाएं राजू और ...

फ़िल्म समीक्षा:विक्ट्री

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पुरानी शैली में नई कोशिश -अजय ब्रह्मात्मज अजीतपाल मंगत ने क्रिकेट के बैकग्राउंड पर महेंद्र सिंह धौनी और युवराज सिंह जैसे क्रिकेटर विजय शेखावत की जिंदगी के जरिए एक सामान्य युवक के क्रिकेट स्टार बनने में आई मुश्किलों, अड़चनों, भटकावों और पश्चाताप के प्रसंग रखे हैं। विक्ट्री की पृष्ठभूमि नई है, लेकिन मुख्य किरदार, घटनाएं और निर्वाह पुराना और परिचित है। इसी कारण इरादों और मेकिंग में अच्छी होने के बावजूद फिल्म अंतिम प्रभाव में थोड़ी कमजोर पड़ जाती है। विजय (हरमन बावेजा) की आंखों में एक सपना है। यह सपना उसके पिता ने बोया है। जैसलमेर जैसे छोटे शहर में रहने के बावजूद वह टीम इंडिया का खिलाड़ी बनना चाहता है। संयोग और कोशिश से वह स्टार बन जाता है, लेकिन स्टारडम का काकटेल उसे भटका देता है। अपनी गलती का एहसास होने पर उसे पश्चाताप होता है। वह फिर से कोशिश करता है और एक बार फिर बुलंदियों को छूता है। विजय के संघर्ष, भटकाव और सुधार के प्रसंगों में नयापन नहीं है। अजीतपाल के दृश्य विधानों में मौलिकता की कमी हैं। नैरेशन की पुरानी शैली पर चलने के कारण वे अधिक प्रभावित नहीं कर पाते। अमृता राव का चरित्र अ...