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बॉम्‍बे वेल्‍वेट के गीत - क ख ग

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क ख ग ऐ तुम से मिली  तो प्‍यार का  सीखा है क ख ग घ  ऐ, समझो ना  क्‍यों प्‍यार का  उल्‍टा है क ख ग घ  क्‍यो जो दर्द दे  तड़पाए भी  लगता है प्‍यारा वही  क्‍यों टूटे ये दिल  कहलाए दिल तभी  तैरने की जो कोशिशें करे  काहे डूब जाता है  सब भुला के जो डूब जाए क्‍यों  वही तैर पाता है   जो हर खेल में जीता यहां दिलबर से हारा वो भी  क्‍यों टूटे ये दिल  कहलाए दिल तभी  ऐ तुम से मिली  तो प्‍यार का  सीखा है क ख ग घ  ऐ, समझो ना  क्‍यों प्‍यार का  उल्‍टा है क ख ग घ धत्‍त तेरी  इसकी हर सज़ा क़बूल है जिसे  यहां वही...वही बरी हुआ है  इस पे जो मुक़द्दमा करे अजी वही ...वही मरा है  बताओ क्‍यों इस जेल से  भागा है जो  दोबारा लौटा वो भी  क्‍यों टूटे ये दिल कहलाए दिल तभी  ऐ तुम से मिली  तो प्‍यार का  सीखा है क ख ग घ  ऐ, समझो ना  क्‍यों प्‍यार क...

मोल बढ़ा बोल का

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-अजय ब्रह्मात्‍मज बोल.. यानी शब्द। फिल्मों में शब्द गीतों और संवादों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचते हैं। इस साल कई फिल्मों के बोलों में दम दिखा। गीतों और संवादों में आए दमदार बोलों ने एक बार फिर से लेखकों और गीतकारों की महत्ता को जाहिर किया। हालांकि भारतीय फिल्मों के पुरोधा दादा साहब फालके मानते थे कि चित्रपट यानी फिल्म में चित्रों यानी दृश्यों पर निर्देशकों को निर्भर करना चाहिए। उन्हें संवादों और शब्दों का न्यूनतम उपयोग करना चाहिए। उनकी राय में शब्दों के उपयोग के लिए नाटक उपयुक्त माध्यम था। बहरहाल, आलम आरा के बाद फिल्मों में शब्दों का महत्व बढ़ा। मूक फिल्मों में बहुत कुछ संपे्रषित होने से रह जाता था। दर्शकों को चलती-फिरती तस्वीरों में खुद शब्द भरने होते थे। बोलती फिल्मों ने दर्शकों की मेहनत कम की और फिल्मों को अधिक मजेदार अनुभव के रूप में बदला। उपयुक्त संवादों और पा‌र्श्व संगीत के साथ दिखने पर दृश्य अधिक प्रभावशाली और यादगार बने। हिंदी फिल्मों की लगभग सौ साल की यात्रा में इसके स्वर्ण युग के दौर में गीतों और संवादों पर विशेष ध्यान दिया गया। छठे और सातवें दशक में शब्दों के जादूगर फिल्म...