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Showing posts with the label अजय ब्रह्मात्‍मज

हिंदी टाकीज पर चेन्‍नई एक्‍सप्रेस

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अपने ओवरसीज और देसी बीज दोस्‍तों,दर्शकों और पाठकों के लिए हिंदी टाकीज की यह पेशकश...टिप्‍पणियों से नवाजें।

हिंदी फिल्‍म पत्रकारिता पर चंद शब्‍द

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फेमिनिस्ट नहीं,इंडेपेंडेंट हूं मैं- बिपाशा बसु

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- अजय ब्रह्मात्मज प्यार की परिभाषा सिखाने के लिए बिपाशा बसु को कई दिनों तक रिहर्सल करना पड़ा और ' जोड़ी ब्रेकर्स' के इस गाने की शूटिंग के समय अपने खास कॉस्ट्यूम के कारण घंटों स्टूल पर बैठना पड़ा। यह गाना हॉट किस्म का है और इसमें बिपाशा के नाम का इस्तेमाल किया गया है। अपने नाम के गीत की अनुमति देने से पहले बिपाशा बसु बिदक गई थीं। उन्होंने के निर्देशक अश्विनी चौधरी के प्रस्ताव को सीधे ठुकरा दिया था। अश्विनी चौधरी भी जिद्द पर अड़े थे। उन्होंने गाना तैयार किया। गीत सुनाने के साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि वे इसे किस तरह शूट करेंगे। अश्विनी चौधरी ने आखिरकार उन्हें राजी कर लिया। ' जोड़ी ब्रेकर्स' का यह गीत पॉपुलैरिटी चार्ट पर आ चुका है। बिपाशा बसु ने इस खास मुलाकात में इस गाने का का जिक्र सबसे पहले आ गया। हल्की मुस्कराहट के साथ बधाई स्वीकार करने के बाद उन्होंने उल्टा सवाल किया कि क्या अच्छा लगा ? हॉट बिपाशा पर इस हॉट गीत को उत्तेजक मुद्राओं में शूट किया गया है। पर्दे पर सेक्सुएलिटी को प्रदर्शित करना भी एक कला है , क्योंकि हल्की सी फिसलन या उत्तेजना से वह व...

जार्डन को जीने की खुशी से मस्‍त रण्‍बीर कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अमूमन फिल्म रिलीज होने के बाद न तो डायरेक्टर किसी से मिलते हैं और न ही ऐक्टर.., लेकिन इस बार कुछ अलग हुआ। रॉकस्टार की रिलीज के बाद जेजे यानी जॉर्डन यानी रणबीर कपूर लोगों से मिले। फिल्म की कामयाबी और चर्चा से वे खुश थे। उन्होंने फिल्म की मेकिंग, किरदार, एक्टिंग और इससे संबंधित अनेक मुद्दों पर बातें कीं। बर्फी की शूटिंग के लिए ऊटी निकलने से पहले बांद्रा स्थित अपने बंगले कृष्णराज में हुई मुलाकात में वे अच्छे नंबरों से पास हुए बच्चे की तरह खुश थे। प्रस्तुत हैं उनके ही शब्दों में उनकी बातें.. फिल्म की शूटिंग शुरू करने से पहले के छह महीने हमने और इम्तियाज ने साथ बिताए थे। उस किरदार को समझना बहुत जरूरी था। बॉडी लैंग्वेज और फिजिकल अंदाज तो आ जाएगा। खास कपड़े पहनना, बालों को लंबा करना, दाढ़ी बढ़ाना.. ये सब बड़ी बातें नहीं हैं। किसी किरदार को समझने की एक आंतरिक प्रक्रिया होती है। जॉर्डन की म्यूजिकल क्वालिटी को समझना था। बात करना और चलना भी आ गया था, लेकिन वह अंदर से कैसे सोचता है? एक दो दिनों की शूटिंग के बाद समझ में आ गया। समझ में आने के बाद हम किरदार के साथ एकाकार हो जाते हैं...

सबकी आन सबकी शान ये है अपना सलमान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज फि ल्मों में अपनी जगह बनाने की गरज से कुछ-कुछ कर रहे सलीम खान ने सुशीला से शादी कर उन्हें सलमा नाम दिया था। पहली संतान के आने की आहट थी। मुंबई में देखभाल का पर्याप्त इंतजाम नहीं था तो उन्हें पुश्तैनी घर इंदौर छोड आए। इंदौर में ही अब्दुल रशीद सलमान खान का जन्म हुआ। बडे होकर वे सलमान खान के नाम से मशहूर हुए। छोटे शहर का हीरो 27 दिसंबर 1965 को जन्मे सलमान खान अपनी जिंदगी में इंदौर का बडा महत्व मानते हैं। इंदौर में अपनी पैदाइश और बचपन की वजह से सलमान हमेशा कहते हैं कि मैं तो छोटे शहर का लडका हूं। अपने देश को पहचानता हूं। मेरी रगों में छोटा शहर है। शायद इसी वजह से देश के आम दर्शक मुझे अपने करीब पाते हैं। मेरी अदाओं और हरकतों में उन्हें अपनी झलक दिखती है। मेरी शैतानियां उन्हें भाती हैं, क्योंकि मैं उनसे अलग नहीं हूं। सलमान के बचपन की सनक और शरारतों के जानकार बताते हैं कि सलीम खान को उनसे कोई उम्मीद नहीं थी। तीनों भाइयों में अरबाज खान ज्यादा तेज दिमाग के थे। वे शांत और समझदार भी थे। सलमान सनकी होने के साथ जिद्दी भी थे। किसी बात पर अड गए तो मां के सिवा किसी और की बात नहीं मान...

सच है कि इस इंडस्ट्री में पुरुषों की प्रधानता है-प्रियंका चोपड़ा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज प्रियंका चोपड़ा की शाहरुख खान अभिनीत फिल्म डॉन-2 आ रही है। इसमें उनकी क्या भूमिका है और वे नया क्या कर रही हैं, बता रही हैं इस बातचीत में.. डॉन-2 की कहानी कितनी बदली और आगे बढ़ी है? यह सीक्वल है। पिछली फिल्म खत्म होते समय सभी को पता चल गया था कि विजय ही डॉन है। यह फिल्म वहीं से शुरू होती है। चार साल बाद वही कहानी आगे बढ़ती है। रोमा महसूस करती है कि उसके साथ धोखा हुआ। उसे विजय से प्यार हो गया था, लेकिन विजय तो डॉन निकला। फिर तो रोमा भी नाराज और अग्रेसिव होगी? बिल्कुल.., बीच के चार सालों में ट्रेनिंग लेकर रोमा पुलिस ऑफिसर बन चुकी है। उसका एक ही मकसद है कि किसी तरह वह डॉन को पकड़े और उसे सीखचों के पीछे लाए। उनका आमना-सामना होता है तो उनके बीच नफरत और मोहब्बत का रिश्ता बनता है। चूंकि विजय ने उसे धोखा दिया है, इसलिए रोमा उससे बहुत नाराज है। पूरी फिल्म में लोग मुझे गुस्से में ही देखेंगे। उस गुस्से में एक मोहब्बत भी है, क्योंकि रोमा को प्यार तो उसी व्यक्ति से हुआ था। सुना है कि आपने ऐक्शन किया है डॉन-2 में..। क्या हम उम्मीद करें कि द्रोण की तरह आप फिर से ऐक्शन करती दिखेंगी? ...

लौटा हूं यमुना नगर फिल्‍म फेस्टिवल से

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यमुनानगर में डीएवी ग‌र्ल्स कॉलेज है। इस कॉलेज में यमुनानगर के अलावा आसपास के शहरों और दूर-दराज के प्रांतों से लड़कियां पढ़ने आती हैं। करीब चार हजार से अधिक छात्राओं का यह कॉलेज पढ़ाई-लिखाई की आधुनिक सुविधाओं से युक्त है। इस ग‌र्ल्स कॉलेज की एक और विशेषता है। यहां पिछले चार सालों से इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन हो रहा है। कॉलेज की प्रिंसिपल सुषमा आर्या ने छात्र-छात्रओं में सिने संस्कार डालने का सुंदर प्रयास किया है। उनके इस महत्वाकांक्षी योजना में अजीत राय का सहयोग हासिल है। सीमित संसाधनों और संपर्को से अजीत राय अपने प्रिय मित्रों और चंद फिल्मकारों की मदद से इसे इंटरनेशनल रंग देने की कोशिश में लगे हैं। डीवीडी के माध्यम से देश-विदेश की फिल्में दिखाई जाती हैं। संबंधित फिल्मकारों से सवाल-जवाब किए जाते हैं। फिल्मों के प्रदर्शन के साथ ही फिल्म एप्रीसिएशन का भी एक कोर्स होता है। निश्चित ही इन सभी गतिविधियों से फेस्टिवल और फिल्म एप्रीसिएशन कोर्स में शामिल छात्र-छात्राओं को फायदा होता है। उन्हें बेहतरीन फिल्में देखने को मौका मिलता है। साथ ही उत्कृष्ट सिनेमा की उनकी समझ बढ...

फिल्‍म समीक्षा : जो डूबा सो पार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज प्रवीण कुमार की प्रेमकहानी का परिवेश बिहार का है। एक ट्रक ड्रायवर का बेटा किशु अपनी बदमाशियों के कारण स्कूल से निकाल दिया जाता है। पिता चाहते हैं कि वह कम से कम ड्राइविंग और ट्रक चलाने के गुर सीख ले। बेटे का मन पिता के साथ काम करने से अधिक दोस्तों के साथ चकल्लस करने में लगता है। इसी बीच कस्बे में एक विदेशी लड़की सपना आती है। सपना को देखते ही किशु उसका दीवाना हो जाता है। किशु का अवयस्क प्रेम वास्तव में एक आकर्षण है। वह सपना का सामीप्य चाहता है। इसके लिए वह पिता की डांट और सपना के चाचा के गुंडों के हाथों पिटाई खाता है। स्मार्ट किशु फिर भी हिम्मत नहीं हारता। वह अपने वाकचातुर्य से सपना के करीब आता है। अपने प्रेम का इजहार करने के दिन ही उसे पता चलता है कि सपना का एक अमेरिकी ब्वॉय फ्रेंड है। कहानी टर्न लेती है। सपना का अपहरण हो जाता है। किशु अपने दोस्तों के साथ जान पर खेल कर सपना की खोज करता है। इस प्रक्रिया में पुलिस और किडनैपर के रिश्ते बेनकाब होते हैं। प्रवीण कुमार ने परिवेश अलग चुना है। वे जिसे बिहार बताते हैं, वह हरगिज बिहार नहीं लगता। मधुबनी पेंटिंग्स पर रिसर्च कर रही...

हार्दिक मार्मिक बातें सितारों की

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-अजय ब्रह्मात्‍मज इन दिनों फिल्मी सितारे आए दिन टीवी पर नजर आते हैं। वे खुद ही अपनी फिल्मों के बारे में बता रहे होते हैं या फिल्म पत्रकारों की जरूरी जिज्ञासाओं के घिसे-पिटे जवाब दे रहे होते हैं। मैं नहीं मानता कि पत्रकारों के सवाल एक जैसे या घिसे-पिटे होते हैं। सच बताएं, तो ज्यादातर फिल्म स्टार एहसान करने के अंदाज में इंटरव्यू देते हैं। वे गौर से सवाल भी नहीं सुनते और पहले से रटे या तैयार किए जवाबों को दोहराते रहते हैं। यही कारण है कि किसी भी फिल्म की रिलीज के समय हर चैनल, अखबार और पत्रिकाओं में फिल्म स्टार एक ही बात दोहराते दिखाई-सुनाई पड़ते हैं। मामला इतना मतलबी हो चुका है कि वे फिल्म से अलग या ज्यादा कोई भी बात नहीं करना चाहते। प्रचारकों और पीआर कंपनियों पर दबाव रहता है कि कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा इंटरव्यू निबटा दो। नतीजा सभी के सामने होता है। उनके इंटरव्यू सुन, पढ़ या देख कर न तो फिल्म की सही जानकारी मिलती है और न उनकी पर्सनल जिंदगी या सोच के बारे में ज्यादा कुछ पता चलता है। इंटरव्यू देने का रिवाज किसी रूढि़ की तरह चल रहा है। अब तो पत्रकारों की रुचि भी स्टारों के रवैए के क...

फिल्म के प्रिव्यू और रिव्यू

-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी सिनेमा का संकट कई रूपों में सामने आता है। इन दिनों प्रिव्यू और रिव्यू पर बहस चल रही है। फिल्मकारों और फिल्म समीक्षक के बीच कभी प्रेम तो कभी तनातनी की खबरें आती रहती हैं। इन दिनों दिल्ली और मुंबई दो प्रमुख सेंटर हैं फिल्मों के प्रिव्यू और रिव्यू के। दोनों सेंटर के रिव्यूअर को उनके अखबार के हिसाब से अघोषित दर्जा दे दिया गया है। उसे लेकर भी आरोप और शिकायतें रहती हैं। पहले एक सामान्य तरीका था कि निर्माता फिल्म समीक्षकों को रिलीज के दो-तीन दिन पहले या कम से कम गुरुवार को फिल्म दिखा देते थे। फिल्म समीक्षक अपनी समीक्षाएं रविवार को प्रकाशित करते थे। बाद में समीक्षाओं का प्रकाशन रविवार से शनिवार और फिर शनिवार से शुक्रवार को खिसक कर आ गया। कुछ फिल्म समीक्षक तो पहले देखी हुई फिल्मों की समीक्षा बुधवार और कभी-कभी सोमवार को भी ऑन लाइन करने लगे हैं। ऐसी समीक्षाओं में आम तौर पर समीक्षक फिल्मों की प्रशंसा करते हैं और उन्हें अमूमन चार स्टार देते हैं। निर्माता या फिल्मकार की यही मंशा रहती है कि ऐसे रिव्यू से फिल्म के प्रति आम दर्शकों की सराहना बढ़े और वे एक बेहतर फिल्म की उम्मीद प...

ऑन स्‍क्रीन ऑफ स्‍क्रीन : कामयाबी के साथ अभिषेक बच्चन की कदमताल नहीं बैठ पाई है

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-अजय ब्रह्मात्‍मज रोहन सिप्पी की फिल्म दम मारो दम की सीमित कामयाबी ने अभिषेक बच्चन की लोकप्रियता का दम उखडने से बचा लिया। फिल्म ट्रेड में कहा जा रहा था कि यदि फिल्म न चली तो अभिषेक का करियर ग्राफ गिरेगा। हर शुक्रवार को फिल्म रिलीज होने के साथ ही सितारों के लिए जरूरी होता है कि वे लगातार या थोडे-थोडे अंतराल पर अपनी सफलता से साबित करते रहें कि वे दर्शकों की पसंद पर अभी बने हुए हैं। दर्शकों की पसंद मापने का कोई अचूक पैमाना नहीं है। लेकिन माना जाता है कि जब किसी सितारे की मांग घटती है तो उसकी फिल्मों व विज्ञापनों की संख्या भी कम होने लगती है। इस लिहाज से अभिषेक अभी बाजार के पॉपुलर उत्पाद हैं। आए दिन उनके विज्ञापनों के नए संस्करण टीवी पर नजर आते हैं। पत्र-पत्रिकाओं के कवर पर उनकी तस्वीरें छपती हैं। अभी वे प्लेयर्स की शूटिंग के लिए रूस गए हैं। वहां से लौटने के बाद रोहित शेट्टी के निर्देशन में बन रही फिल्म बोल बचन शुरू होगी। इसमें उनके साथ अजय देवगन होंगे। फिर धूम-3 की अभी से चर्चा है, क्योंकि एसीपी जय दीक्षित को इस बार धूम-3 में आमिर खान को पकडना है। मुमकिन है कि अभिषेक के करियर की श्रद्धांज...

जवाब नहीं है पुरस्कारों की शेयरिंग

-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले गुरुवार को जेपी दत्ता ने 58वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा की। विजेताओं की सूची देखने पर दो तथ्य स्पष्ट नजर आए। पहला, अनेक श्रेणियों में एक से अधिक विजेताओं को रखा गया था और दूसरा, हिंदी की तीन फिल्मों को कुल जमा छह पुरस्कार मिले। आइए इन पर विस्तार से बातें करते हैं। पिछले सालों में कई दफा विभिन्न श्रेणियों में से एक से अधिक विजेताओं के नामों की घोषणा होती रही है। ऐसी स्थिति में विजेताओं को पुरस्कार के साथ पुरस्कार राशि भी शेयर करनी पड़ती है। लंबे समय से बहस चल रही है कि देश की भाषाई विविधता को ध्यान में रखें, तो राष्ट्रीय पुरस्कारों में बेहतर फिल्मों और बेहतरीन प्रतिभाओं के साथ न्याय नहीं हो पाता। कई प्रतिभाएं छूट जाती हैं या उन्हें छोड़ना पड़ता है, लेकिन पुरस्कारों की शेयरिंग एक प्रकार से आधे पुरस्कार का अहसास देती है। ऐसा लगता है कि विजेता अपने क्षेत्र की श्रेष्ठतम प्रतिभा नहीं है। खासकर पुरस्कार राशि शेयर करने पर यह अहसास और तीव्र होता है। जेपी दत्ता की अध्यक्षता में गठित निर्णायक मंडल ने पिछले अनुभवों से सबक लेते हुए इस बार सूचना एवं प्रसारण मंत्राल...

फिल्‍म समीक्षा :404

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दिमाग में डर -अजय ब्रह्मात्‍मज 0 लंबे समय तक राम गोपाल वर्मा के सहयोगी रहे प्रवाल रमण ने डरना मना है और डरना जरूरी है जैसी सामान्य फिल्में निर्देशित कीं। इस बार भी वे डर के आसपास ही हैं, लेकिन 404 देखते समय डरना दर्शकों की मजबूरी नहीं बनती। तात्पर्य यह कि सिर्फ साउंड इफेक्ट या किसी और तकनीकी तरीके से प्रवाल ने डर नहीं पैदा किया है। यह फिल्म दिमागी दुविधा की बात करती है और हम एक इंटेलिजेंट फिल्म देखते हैं। 0 हिंदी फिल्मों में मनोरंजन को नाच-गाना और प्रेम-रोमांस से ऐसा जोड़ दिया गया है कि जिन फिल्मों में ये पारंपरिक तत्व नहीं होते,वे हमें कम मनोरंजक लगती हैं। दर्शकों को ऐसी फिल्म देखते समय पैसा वसूल एक्सपीरिएंस नहीं होता। दर्शक पारंपरिक माइंड सेट से निकलकर नए विषयों के प्रति उत्सुक हों तो उन्हें 404 जैसी फिल्मों में भी मजा आएगा। 0 404 बायपोलर डिस आर्डर पर बनी फिल्म है। इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति डिप्रेशन,इल्यूजन और हैल्यूसिनेशन का शिकार होता है। वह अपनी सोच के भंवर में फंस जाता है और कई बार खुद को भी नुकसान पहुंचा देता है। मनुष्य की इस साइकोलोजिकल समस्या को भी फिल्म में रोचक त...

फिल्‍म समीक्षा : कशमकश

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पुराने अलबम सी -अजय ब्रह्मात्‍मज 0 यह गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर की रचना नौका डूबी पर इसी नाम से बनी बांग्ला फिल्म का हिंदी डब संस्करण है। इसे संवेदनशील निर्देशक रितुपर्णो घोष ने निर्देशित किया है। बंगाली में फिल्म पूरी होने के बाद सुभाष घई को खयाल आया कि इसे हिंदी दर्शकों के लिए हिंदी में डब किया जाना चाहिए। उन्होंने फिल्म का शीर्षक बदल कर कशमकश रख दिया। वैसे नौका डूबी शीर्षक से भी हिंदी दर्शक इसे समझ सकते थे। 0 चूंकि हिंदी में फिल्म को डब करने का फैसला बाद में लिया गया है, इसलिए फिल्म का मूल भाव डबिंग में कहीें-कहीं छूट गया है। खास कर क्लोजअन दृश्यों में बोले गए शब्द के मेल में होंठ नहीं हिलते तो अजीब सा लगता है। कुछ दृश्यों में सिर्फ लिखे हुए बंगाली शब्द आते हैं। उन्हें हम संदर्भ के साथ नहीं समझ पाते। इन तकनीकी सीमाओं के बावजूद कशमकश देखने लायक फिल्म है। कोमल भावनाओं की बंगाली संवेदना से पूर्ण यह फिल्म रिश्तों की परतों को रचती है। 0 किसी पुराने अलबम का आनंद देती कशमकश की दुनिया ब्लैक एंड ह्वाइट है। इस अलबम के पन्ने पलटते हुए रिश्तों की गर्माहट के पुरसुकून एहसास का नास्टैलजिक प्रभाव ...

सोच और सवेदना की रंगपोटली मेरा कुछ सामान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज खराशें, लकीरें, अठन्निया और यार जुलाहे की चार प्रस्तुतियों की पोटली है- 'मेरा कुछ सामान'। गुलजार की कहानियों, नज्मों और गीतों के इस रंगमचीय कोलाज को देखना इस दौर का समृद्ध रंग अनुभव है। 'मेरा कुछ सामान' इसी अनुभव को सजोने की निर्देशक सलीम आरिफ की सुंदर कोशिश है। इस हफ्ते 11 मई से दिल्ली में गुलजार के नाटकों का यह महोत्सव प्रारंभ हो रहा है। खराशें, लकीरें, अठन्निया और यार जुलाहे ़ ़ ़ चार शब्दों के चार शो ़ ़ ़ लेकिन थीम एक ही ़ ़ ़ गुलजार ़ ़ ़ कहानियों, गीतों, गजलों और नज्मों से छलकती गुलजार की चिता, सवेदना और छटपटाहट। गीतकार और निर्देशक गुलजार से परिचित प्रशसकों ने इन शामों में एक अलग मानवीय गुलजार को सुना और महसूस किया है। 'मोरा गोरा अंग लई ले' से लेकर '3 थे भाई' तक के गीतों से उन्होंने कई पीढि़यों के श्रोताओं और दर्शकों को लुभाया, सहलाया और रुलाया है। वही गुलजार इन नाटकों में आजादी के बाद देश में बदस्तूर जारी साप्रदायिकता के दर्द की पोटली खोलते हैं तो उनके सामानों में हमें लोगों के एहसास, जज्बात और सपनों की शक्ल नजर आती है। सलीम आरि...