सिनेमालोक : हिंदी में बनें प्रादेशिक फिल्में

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हिंदी में बनें प्रादेशिक फिल्में

लखनऊ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बुलावे पर मुंबई से पहुंचे फिल्मकार और फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े सक्रिय सदस्यों की बैठक चल रही है. कुछ दिनों पहले योगी आदित्यनाथ ने घोषणा की है कि वे उत्तर प्रदेश के नोएडा के आसपास फिल्म सिटी का निर्माण करेंगे. मंशा यह है कि उत्तर प्रदेश फिल्मों के निर्माण केंद्र के रूप में विकसित हो. उत्तर प्रदेश की प्रतिभाओं को मुंबई या किसी और शहर में जाकर संघर्ष नहीं करना पड़े. उत्तर प्रदेश के इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए. सरकारी पहल को मुंबई स्थित उत्तर प्रदेश के कलाकार फिल्मकार और तकनीशियन समर्थन दें. वहां दूसरे प्रदेशों की प्रतिभाएं भी जाकर काम कर सकें.

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के विकेंद्रीकरण की बातें मैं पिछले 10 सालों से कर रहा हूं. मेरी राय में फिलहाल हुआ केंद्रीकरण हिंदी फिल्मों के विकास के लिए अप्रासंगिक और अनुचित हो चुका है. विषय, कल्पना और प्रयोग की कमी से पिछले दो दशकों में हिंदी फिल्मों में सिक्वल,रीमेक और फ्रेंचाइजी का चलन बढ़ा है. दर्शकों को फार्मूलाबद्ध मनोरंजन मिल जाता है. उन्हें कोई शिकायत नहीं रहती. जमीनी स्तर पर मल्टीप्लेक्स संस्कृति ने हिंदी फिल्मों का नुकसान ही किया है. मल्टीप्लेक्स के उदय और विस्तार के बाद उन शहरों में भी सिंगल स्क्रीन थिएटर के दर्शक कम होते चले गए, जहां मल्टीप्लेक्स नहीं हैं. दरअसल, सिनेमाघरों की बदतर स्थिति इस पहलू का एक छोटा पक्ष है.

अध्ययन करने पर सही जानकारी मिलेगी कि पिछले 10 सालों में किस रफ्तार से सिंगल स्क्रीन बंद हुए हैं. इंटरनेट और ब्रॉडबैंड की सुविधा बढ़ने और स्मार्टफोन के विस्फोट से दर्शकों ने फिल्म देखने का सस्ता और सुविधाजनक विकल्प चुन लिया है. सख्त पाबंदी नहीं होने से देश के हर इलाके के दर्शक पायरेटेड फिल्म देखने में मोबाइल या लैपटॉप का इस्तेमाल करते हैं. वह अपने समय और फुर्सत में इन फिल्मों को देख लेते हैं. हिंदी प्रदेशों के दर्शकों और हिंदीभाषियों को भारी गलतफहमी है कि हिंदी फिल्मों का मुख्य बिजनेस इन इलाकों से होता है. आरंभ से यही सच्चाई है कि हिंदी फिल्मों की मुख्य कमाई मुंबई और दिल्ली से होती है. शेष 35-40% ही कमाई दूसरे प्रदेशों से आती है, जिनमें हिंदीभाषी राज्य भी शमिल हैं. हिंदीभाषी दर्शक फिल्में देखते तो हैं लेकिन वे थिएटर में नहीं जाते हैं. फिल्म देखने में खर्च की गई उनकी रकम निर्माता के पास नहीं आती. वह किसी मोबाइल नेटवर्क कंपनी और स्थानीय दुकानदारों के पास रह जाती है.

वक्त आ गया है कि सभी हिंदीभाषी प्रदेशों की राज्य सरकारें अपनी फिल्म नीतियों में आवश्यक सुधार करें. वे महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नालक आदि राज्यों में जाकर फिल्म निर्माण की गतिविधियों और सरकारी नीतियों का अध्ययन करें. उन्हें अपने राज्य की विशेष स्थिति के अनुसार लागू करें. अभी कुछ राज्य सरकारों में फिल्म नीति के तहत निर्माताओं को राहत दी जाती है. उन्हें कुछ अनुदान राशि भी मिलती है. अगर विश्लेषण करें तो पाएंगे कि मुंबई के निर्माताओं ने इसका अधिकतम लाभ उठाया है. राज्य सरकारों की फिल्म नीतियों से प्रदेश की प्रतिभाओं को कोई फायदा नहीं हुआ. जरूरत है कि राज्य सरकारें इस मद में सुनिश्चित बजट का एक हिस्सा स्थानीय प्रतिभाओं की कोशिशों के लिए सुरक्षित रखें.

सोच-समझ कर आगे बढ़े तो हिंदी में प्रादेशिक सिनेमा का विकास हो सकता है. प्रदेश की संस्कृति, भाषा और आकांक्षा को फिल्मों के जरिए अपने दर्शकों के बीच पहुंचाया जा सकता है. फ़िल्में पहले अपने प्रदेश में रिलीज़ हों. हिंदी फिल्मों के विकास, विस्तार और विविधता के लिए यह आवश्यक होगा. अभी पूरे भारत को एक साथ खुश करने की कोशिश में सरलीकरण और सामान्यीकरण होता है. एक दबाव रहता है कि वह सभी की समझ में आ सके. इस व्यवहार और आग्रह से हिंदी सिनेमा का काल्पनिक और नकली संस्कार, परिवार और माहौल बन चुका है. फ़िल्में देखते हुए हम यही सोचते रहते हैं कि भला पारिवारिक और सामाजिक रिश्ते में ऐसा कहां होता है? फिर खुद ही मान लेते हैं कि देश के किसी हिस्से और इलाके में ऐसा होता होगा.


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