सिनेमालोक : हिंदी फिल्मों के ‘आउटसाइडर’

सिनेमालोक

हिंदी फिल्मों के ‘आउटसाइडर’

-अजय ब्रह्मात्मज

कुछ सालों पहले कंगना रनोट ने स्पष्ट शब्दों में ‘नेपोटिज्म’ और ‘मूवी माफिया’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया था तो फिल्म इंडस्ट्री के ताकतवर पैरोकारों ने खुले मंच पर उनका मखौल उड़ाया. आम दर्शकों के बीच भी इसे उनकी व्यक्तिगत भड़ास माना गया. फिल्म इंडस्ट्री बदस्तूर मशगूल रही और सब कुछ रूटीन तरीके से चलता रहा. पिछले सप्ताह 14 जून को सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से जुड़े पहलुओं के संदर्भ में ‘नेपोटिज्म’ शब्द तेजी से उभरा है. अभी बाहर का यह शोर फिल्म इंडस्ट्री के गलियारे में भी गूंज रहा है. ‘मी टू’ के आरोपों से सजग हुई फिल्म इंडस्ट्री ज्यादा सावधान हो गई है.

गौर करें तो फिल्म इंडस्ट्री में ‘नेपोतिज्म’ का चलन नया नहीं है. पहले पहुंच और सिफारिश के नाम पर रिश्तेदारों को मौके मिलते रहे हैं. आठवें और नौवें दशक में तो फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हुए पहली पीढ़ी के अभिनेता-अभिनेत्रियों ने अपनी संतानों को समारोह के साथ लांच किया. उनमें से कुछ आज भी फिल्म इंडस्ट्री पर राज कर रहे हैं. इसे स्वाभाविक मान कर स्वीकार कर लिया गया था. बाहर से आए कलाकार (आउटसाइडर) चरित्र भूमिकाओं या पैरेलल सिनेमा में खप रहे थे. उनमें से कभी कोई छिटक कर मुख्यधारा में आ जाता था. मेनस्ट्रीम कमर्शियल हिंदी फिल्मों में उनके लिए जगह नहीं होती थी.

हिंदी फिल्मों के हीरो के चुनाव की कुछ अघोषित शर्तें और पसंद रही हैं. अगर आप हिंदी सिनेमा के आरंभ से अभी तक चर्चित और मशहूर हुए हीरो की सूची बनाएं और उन्हें उनके सूबे या मूल निवास के साथ इंगित करें तो आप पाएंगे कि ‘हिंदी प्रदेशों से हीरो नहीं आते’. हिंदी फिल्मों में सबसे अधिक संख्या में हीरो देश के उत्तर-पश्चिम प्रांत यानी पंजाब से आए. उनकी कद-काठी और संवाद अदायगी हिंदी फिल्मों के हीरो की कथित शर्तों को पूरा करती रहीं. उनका उच्चारण सही माना गया. इसकी पड़ताल करने पर सामाजिक, सांस्कृतिक,भाषायी और कुछ हद तक आर्थिक कारण मिलेंगे.

शुरुआती दिनों में हिंदी फिल्मों में सक्रिय कलाकारों और तकनीशियनों में अधिक संख्या महाराष्ट्र, पंजाब और बंगाल से आई प्रतिभाओं की है. हिंदी फिल्मों के विकास में मुंबई, लाहौर और कोलकाता की निर्णायक भूमिका रही है. इन शहरों में हिंदी फिल्में निर्मित हो रही थीं, इसलिए स्थानीय लोगों को प्राथमिकताएं मिलीं. यही परिपाटी बन गयी. फिर हिंदी के स्वभाव और देश भर के दर्शकों को रिझाने की गरज से फिल्मों के कलाकारों और संवाद की भाषा सुनिश्चित की गई. तत्कालीन चलन के मुताबिक हिंदुस्तानी बोलने में माहिर कलाकारों को तरजीह दी गई. हिंदी भाषी प्रदेशों में अपनी भाषाओँ(भोजपुरी, मैथिली,अवधि.गोंड आदि) की समृद्ध परंपरा रही है. इन प्रदेशों की हिंदी में आज भी स्थानीय भाषाओं का स्पष्ट प्रभाव दिखता है. उचित और स्वाभाविक होने के बावजूद यह हिंदी फिल्मों में स्वीकार नहीं हुआ. कद=काठी के हिसाब से भी हिंदी प्रदेशों से आए कलाकार अघोषित मानकों पर खरे नहीं उतरते थे. लिहाजा हिंदी प्रदेशों से आए कलाकारों की संख्या नगण्य रही है. तकन्निशियाँ भी नहीं आये.

इसके अलावा फिल्मों के प्रति हिंदी प्रदेशों का सामान्य और सामाजिक रवैया उपेक्षा, घृणा और तिरस्कार का रहा है. फिल्मों में काम करने के इच्छुक युवक-युवतियों को हतोत्साहित किया जाता है. पिछले दो दशकों में माहौल और दृष्टिकोण बदला है, फिर भी शंका और संकोच कायम है. इसी वजह से हिंदी प्रदेशों की महत्वकांक्षी प्रतिभाओं को मुंबई आने का साहस जुटाने और हिंदी फिल्मों में प्रवेश पाने के लिए कठिन संघर्ष करने के पह;इ सोचना पड़ता है. उनका कोई गॉडफादर नहीं होता और ना ही कोई सिफारिश करने वाला होता है. किसी भी तरह प्रवेश मिल गया और थोड़ी जगह व् पहचान बनी तो फिर अपमान, तिरस्कार और वंचना का शिकार होना पड़ता है.

फिल्म इंडस्ट्री में उभरती बाहरी प्रतिभाओं को ग्रहण लगाने का काम किया जाता है. कई बार तो उन्हें स्पष्ट और कड़वे शब्दों में कहा जाता है कि ‘ना जाने कहां कहां से चले आते हैं?’ जी हां, उनके खिलाफ साजिशें भी आरंभ होती हैं. यह सब कुछ इतने सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष तरीके से होता है कि तहकीकात होने पर कोई सबूत नहीं मिल पाता. सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की हो रही जांच में महाराष्ट्र सरकार ने’पेशेवर प्रतिद्वंद्विता’ पर भी पूछताछ की जा रही है. उम्मीद है कुछ ठोस तथ्य और तरीके सामने आयें.


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