ब्लैक कॉमेडी के लिफ़ाफ़े में पोस्ट की गयी त्रासद चिट्ठी उर्फ़ ‘गुलाबोसिताबो’ : विभावरी
ब्लैक
कॉमेडी के लिफ़ाफ़े में पोस्ट की गयी त्रासद चिट्ठी उर्फ़ ‘गुलाबोसिताबो’
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सामाजिक-राजनीतिक
और वैचारिक महामारी के इस दौर में सिनेमा में एक नई बहार आई है पिछले कुछ बरसों
में...छोटे शहरों के उदास कोनों में चमकती, धुंधली
कहानियों की बहार. ‘गुलाबो सिताबो’ इसी बहार का एक काव्यात्मक पड़ाव है.
फ़िल्म
आपसे ख़ुद के अच्छा लगने की गुहार नहीं लगाती...ठीक अपने तमाम किरदारों की तरह जो
उतने ही मानवीय हैं जितनी यह फ़िल्म अपनी संरचना में. शायद यही कारण है कि इसके कुछ
हिस्सों पर आपका मन जितना रीझता है, कुछ
पर उतना ही उखड़ता भी है...बावजूद इसके यह फ़िल्म आपको शुरू से आखीर तक बाँधे रखती
है.
फ़िल्म
अपने गढ़न में दरअसल कॉमेडी के एक विशेष रूप ‘ब्लैक कॉमेडी’ के नज़दीक है.
सिनेमा/कला की भाषा में ‘ब्लैक/ डार्क कॉमेडी’ के मायने त्रासद विषयों को
हास्यात्मक तरीके से पेश करने से सम्बंधित है...ज़ाहिर है ऐसे विषय आपको एक ऐसी
विडंबनात्मक स्थिति में लेकर जाते हैं जहाँ यह तय करना मुश्किल होता है कि दरअसल
इस बिंदु पर आपको हँसना है या रोना!
फ़िल्म, नवाबों के शहर में अपनी खो चुकी
शान-ओ-शौकत के बावजूद अपनी समूची ताक़त के साथ उसी विलास और ठसक को ढूँढती एक ऐसी
हवेली की कहानी है, जिसे पहली नज़र में शायद आप खँडहर कहना
ज़्यादा पसंद करें. लेकिन इसके भीतर प्रवेश करते ही आपको अपना ये अनुमान इसलिए
बदलना पड़ सकता है क्योंकि हवेली में मौजूद तमाम धूसर ज़िंदगियाँ और ज़िंदगी जीने की
उनकी जद्दोजहद इस हवेली के खंडहर न होने की तस्दीक कर रही हैं
बेशक
यह हवेली इस फ़िल्म का केन्द्रीय किरदार है, जिसकी
कहानी दर्जन भर चरित्रों के माध्यम से कहने की कोशिश है यह फ़िल्म
क्लासिकल
थियेटर और बीसवीं सदी के उपन्यासों की ही तरह सामान्यतया फ़िल्म का जो नैरेटिव
प्रारंभ, मध्य और अंत (जिसे हम प्रारंभ, संघर्ष और समाधान भी कहते हैं) में
बंटा होता था उसे आज के सिनेमा ने बेशक थोड़ा बदला है.
‘गुलाबो-सिताबो’
की ख़ासियत ये है कि इसने कहानी के संघर्ष पक्ष को फ़िल्म के शुरुआत से अंत तक में समान रूप से वितरित कर दिया है. माने
फ़िल्म शुरू होती है और पहले ही दृश्य में आप संघर्ष से रूबरू होते हैं और अंत तक
उस संघर्ष का समाधान आपको नहीं मिलता...क्योंकि फ़िल्म आपको समाधान देना ही नहीं चाहती
या शायद जो समाधान देती है उससे आप संतुष्ट महसूस नहीं कर पाते. लिहाज़ा आप ‘एंड दे
लिव्ड हैपिली एवर आफ़्टर’ वाला सुकून भी प्राप्त नहीं कर पाते.
नैरेटिव
की यह विशेषता इस वजह से भी आकार लेती है क्योंकि इस फ़िल्म में नायकत्व की अवधारणा
का विकास पारंपरिक तरीके से नहीं होता. मसलन दो मुख्य किरदारों में से एक दृश्य
में जो किरदार आपको खलनायक लगता है अगले ही दृश्य में वही नायकत्व की सीमा के भीतर
प्रवेश कर जाता है...और आपके भीतर चल रही आस्वादन की प्रक्रिया में खलल पड़ता
है.
फ़िल्म, अवधारणात्मक तौर पर लोक में बसे दो
कठपुतली चरित्रों ‘गुलाबो’ और ‘सिताबो’ से गहरे तक जुड़ी है. अवध की संस्कृति में
रची बसी गुलाबो और सिताबो की कहानी रोचक है. पुराने समय में कई घुमंतू जातियाँ इस
नाम से सास-बहू या ननद-भौजाई के झगड़ों के किस्से सुना कर अपनी आजीविका चलाया करती
थीं.
“साग
लाई पात लाई और लाई चौरैया
दूनो
जनै लड़ै लागीं, पात लैगा कौवा
गुलाबो
ख़ूब लड़े है...सिताबो ख़ूब लड़े है...”
फ़िल्म
में गुलाबो और सिताबो के किरदारों के बीच झड़प को रोचक तरीके से बुना गया है. कितनी
ही बार यह झड़प आपको हंसाने को होती है और आपका मन विषाद से भर जाता है.
फ़िल्म
में तीस रूपये किराया न दे पाने वाला किरायेदार है, जिसके घर में ‘खाना गर्म करने वाली मशीन’ है तो घोषित रूप से लालची
‘मकान मालिक’ भी जो किराया न मिलने की स्थिति में अजीबो-ग़रीब तरीक़ों से यह किराया
वसूल किया करता है...आप देखते हैं और विश्वास करते हैं...लेकिन जो चीज़ मुझे खलती
है वह ये कि जिस व्यक्ति को हम लालची की संज्ञा दे रहे होते हैं क्या वाकई वह
लालची है या फिर ख़ुद की ही अभावग्रस्त ज़िंदगी का मारा!
फ़िल्म
के शुरूआती दृश्य में ही ख़ुद के लालची घोषित कर दिए जाने के बाद मिर्ज़ा चुन्नन
नवाब का वह संवाद देखिये,
“हाँ, हैं हम लालची...जा रहे हैं मलाई पान
खाने, केसर लगा हुआ...चिरौंजी...चाँदी की
वरक”
और
इस दृश्य के ठीक बाद कैमरा कट करता है खीरा काट रही एक औरत के हाथ पर, जिससे मिर्ज़ा खीरा खरीद रहा है.
ज़ाहिर
है फ़िल्म अपनी शुरुआत से ही यह बताती चलती है कि यह फ़िल्म ऐसे विचित्र किरदार या
किरदारों की कहानी है जिन्हें हम या आप एकबारगी जो समझ रहे हैं वे मात्र उतना ही
नहीं हैं...कुछ और भी हैं. और ज़्यादातर बार इस ‘कुछ और’ के मायने अपनी ही
परिस्थितियों के मारे होने से है.
बल्ब, घन्टी, झूमर जैसी चीज़ों की चोरी कर उसे बेचता मिर्ज़ा का चरित्र जितना अजीब
लगता है या फिर बेगम की मृत्यु की कामना करता मिर्ज़ा हास्यास्पद तौर पर जितना
लालची लगता है बेगम की सरपरस्ती में हवेली का केयर टेकर बन चुका अभावग्रस्त जीवन
जीता मिर्ज़ा उतना ही दयनीय! कहने का तात्पर्य यह कि आप चाह कर भी इस किरदार को या
कई बार फ़िल्म के किसी भी किरदार को एक खांचे में रखकर नहीं देख पाते...लिहाज़ा
मानवीयता या ग्रे शेड इन किरदारों की सबसे बड़ी विशेषता बन कर उभरती है.
फ़िल्म
की स्त्री दृष्टि बेहद सुदृढ़ है और बिना किसी शोर शराबे के इस बात को स्थापित करती
चलती है कि एक छोटे से शहर की बेरोजगार लड़की को अपने टूट चुके प्रेम संबधों का
गिल्ट नहीं भी हो सकता है या कि एक 95 साल की बूढ़ी औरत बिना किसी मलाल के एक बार
फिर अपने प्रेमी के साथ ‘भाग’ सकती है...या कि किसी निम्न मध्यवर्गीय घर की एक ग्रैजुएट
लड़की का सपना शादी नहीं भी हो सकता है और वो भी तब जब वह एक ऐसे परिवार का हिस्सा
है जहाँ बड़े भाई पर परिवार चलाने की ज़िम्मेदारी है (उसकी पढ़ाई रोक कर) और बाक़ी तीन
बहनों की पढ़ाई जारी रखी गयी है.
एक
खांटी पितृसत्तात्मक परिवेश में रची गयी इस कहानी में ऐसा परिवार अपवाद ही हो
सकता है.
ठीक
इसी तर्ज पर इस फ़िल्म के स्त्री चरित्र भी अपवाद स्वरुप विशिष्ट हैं. इस लिहाज़ से
‘गुड्डो’ और ‘फ़ातिमा बेगम’ के चरित्रों का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि अवध के
समाज की आम स्त्री सामान्यतः इन चरित्रों जैसी नहीं होती लिहाज़ा इन दोनों ही
चरित्रों को ख़ास की श्रेणी में रखा जा सकता है.
‘गुड्डो’
और ‘फ़ातिमा बेगम’ के चरित्रों पर गौर करें तो पायेंगे कि एक ख़ास तरह की बेतकल्लुफ़ी
इन दोनों ही किरदारों की गढ़न में शामिल है. ‘गुड्डो’ को नौकरी के लिए किसी तरह का
‘समझौता’ करने से कोई गुरेज़ नहीं है और ना ही इस बात का कोई गिल्ट है उसके भीतर.
‘फ़ातिमा
बेगम’ को 95 की उम्र में भी अपने पति से शरारती अंदाज़ में यह पूछते हुए कि ‘आपका
हमारा निकाह हुआ था कि हम भागे थे आपके साथ?’, ‘...तो फिर हम भागे किसके साथ थे?’ ना
कोई गिल्ट है और ना ही कोई झिझक. एक छोटे शहर के परिवेश में बुनी कहानी के स्त्री
चरित्रों के लिहाज़ से यह कहीं आगे बढ़ी हुई बात है जहाँ स्त्रियाँ स्वच्छंद हैं
अपने होने को लेकर, वो भी उम्र के हर पड़ाव पर.
शूजित
सरकार का निर्देशन, जूही चतुर्वेदी की कहानी और चरित्रों के बाद फ़िल्म का अगला
महत्त्वपूर्ण पक्ष अभिक मुखोपाध्याय की सिनेमैटोग्राफी है.
तीन
बार राष्ट्रीय पुरस्कार ले चुके अभिक ने कैमरे और प्रकाश के मार्फ़त न सिर्फ़ लखनऊ
शहर के मिज़ाज को कहानी के मिज़ाज के साथ बखूबी ढाला है बल्कि इस फ़िल्म के केन्द्रीय
किरदार- हवेली के टूटते, बिखरते, सिमटते वैभव को गहराई और सूक्ष्मता से पकड़ा है.
फ़िल्म
के ज़्यादातर ऐसे दृश्य जो हवेली के भीतर के हैं पीली और स्याह रौशनी के साथ उखड़े
हुए प्लास्टर, दीवारों पर जमी काई, टूटे दरवाज़े, दरवाज़ो की उखड़ी पेंट के साथ मिलकर अजीब
सा उदास प्रभाव पैदा करते हैं. कई बार यह प्रभाव न सिर्फ़ हवेली की खो चुकी
शान-ओ-शौकत को इंगित करता है बल्कि बारहाँ इसमें रहने वाले लोगों की मनः स्थितियों
का भी लेखा जोखा पेश करता है.
फ़िल्म
कई जगहों पर हालिया व्यवस्था पर तंज़ भी करती है कि हम एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं
जहाँ बिना किसी प्रमाण या तर्क के पूरी मशीनरी किसी एक जगह की खुदाई में सिर्फ़
इसलिए लगा दी जाती है क्योंकि किसी बाबा को लगता है कि अमुक जगह पर हज़ार टन सोना
गड़ा हुआ है और और सिर्फ़ इसी बिना पर सैकड़ों लोग यह खुदाई देखने के लिए घंटों खड़े
होकर गुज़ार देना पसंद करते हैं या फिर
सरकारी महकमों में बैठे लोग अपने नज़दीकी लोगों को फ़ायदा पहुंचातेहुए कहीं से भी
किसी दूसरे ग्रह के प्राणी नहीं लगते.
फ़िल्म
के संवाद अगला महत्त्वपूर्ण पहलू हैं इस फ़िल्म का. इन संवादों के तीखेपन का आकलन
बाँके रस्तोगी और मिर्ज़ा चुन्नन नवाब की इस बातचीत से मिलता है:
“लालच
जानते हो मिर्ज़ा! ज़हर होता है...इंसान को ना, अन्दर
से ख़तम कर देता है बिल्कुल! तुम आज यहाँ लेटे हो...एकाध साल बाद कब्र में लेटे
मिलोगे, अगर अपनी हरकतों से बाज़ ना आये तो!”
“अव्वल
तो ये कि हमने आजतक सुना नहीं कि कोई लालच से मरा हो और दूसरा ये कि हम तो लालची
हैं ही नहीं”
“तुम
लालची नहीं हो!”
“रत्ती
भर नहीं”
“ये
भरी दुपहरिया में पूरी हवेली में खुदाई कर दी. सोना तो मिला नहीं बेहोश होके आ
गए...ये लालच नहीं है!”
“अरे
वो हमारी उल्फ़त है, मोहब्बत है हमारी हवेली से...बेइंतिहा”
पूरी
फ़िल्म में ऐसे संवाद भरे हुए हैं जो एक साथ आपको दो अलग अलग पक्षों के नुक्ते का न
सिर्फ़ पता देते हैं बल्कि सोचने को विवश भी करते हैं कि हर इंसान के पास खुद को
न्यायसंगत ठहराने के कितने ठोस तर्क मौजूद होते हैं.
फ़िल्म
के बैकग्राउंड म्यूज़िक के बतौर कुछ ख़ास परिस्थितियों के लिए म्यूज़िक डायरेक्टर
शांतनु मोइत्रा ने ‘गुलाबो सिताबो थीम’ और ‘गुलाबो सिताबो क्लेरिनेट थीम’ का
इस्तेमाल किया है जो फ़िल्म की थीम के लिहाज़ से सटीक लगते है. इनमें चुटीलेपन और
देशज भंगिमा का इस्तेमाल ख़ूबसूरत है. फ़िल्म का गीत और संगीत भी फ़िल्म के मिज़ाज के
पूरक के बतौर आते हैं. गीतों में ‘जूतम फेंक हुई ज़िंदगी’, ‘मदारी का बन्दर’ और ‘बुढ़ऊ’ गीत लिरिक्स
और म्यूज़िक दोनों के लिहाज़ से सुन्दर हैं. इन गीतों से ‘...दो गज ज़मीन पूछे कितने
सवाल है’ और ‘...इसकी बद्तमीज़ी में भी थोड़ी सी तमीज़ है’ जैसी पंक्तियाँ बाक़ी रह
जाती हैं ज़ेहन में.
फ़िल्म
में कलाकारों ख़ासकर अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना के मेकअप और कॉस्टयूम इन
दोनों ही चरित्रों की प्रभावोत्पादकता को बढ़ाते हैं...ख़ासतौर पर मिर्ज़ा चुन्नन
नवाब की आवश्यकता से अधिक बड़ी नाक और बाँके रस्तोगी का निकला हुआ पेट. दोनों ही
कलाकारों की देह भाषा भी बेहतरीन रही है
तमाम
स्थापित कलाकारों के बीच ‘गुड्डो’ के किरदार में सृष्टि श्रीवास्तव और ‘दुलहिन’ के
चरित्र में टीना भाटिया और ‘शेखू’ के बतौर
नलनीश नील का अभिनय आपका ध्यान आकर्षित करता है.
फ़िल्म
में कहीं कहीं एडिटिंग की दिक्कत है जिससे दो दृश्यों के बीच की कंटीन्यूटी बाधित
होती सी लगती है...जैसे रात के एक दृश्य में झूमर बेचने और उससे मिले पैसे गिनते
हुए मिर्ज़ा जिस दिशा में जा रहा है अगले ही फ्रेम में वह ठीक उसी दिशा से पैसे
गिनते हुए आ रहा है और यह दृश्य दिन का है. यहाँ दोनों ही दृश्यों में दिन और रात
के अंतर को ख़त्म करके या फिर रूपये गिनने की समानता को हटा कर कंटीन्यूटी बाधित
होने की दिक्कत से बचा जा सकता था.
ऐसी
ही कुछ तकनीकी वजहों से कई बार कहानी के बहाव में ठहराव सा महसूस होता है और कई
जगहों पर फ़िल्म प्रभावी तरीक़े से कम्यूनिकेट नहीं कर पाती.
बावजूद
इसके यह फ़िल्म अपनी सम्पूर्णता में नये तरह के क्राफ्ट की फ़िल्म कही जानी चाहिए जो
अपने तईं कठपुतली ‘गुलाबो’और ‘सिताबो’ की लोकछवि के बरक्स एक सिनेमाई छवि का
निर्माण करती है और ठीक उसी कहन को सिनेमा के परदे पर चरितार्थ करती है कि,
“साग
लाई पात लाई और लाई चौरैया
दूनो
जनै लड़ै लागीं, पात लैगा कौवा
गुलाबो
ख़ूब लड़े है...सिताबो ख़ूब लड़े है...”
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