संडे नवजीवन : ओटीटी प्लेटफार्म की स्वछंदता पर आपत्ति
संडे नवजीवन
ओटीटी प्लेटफार्म की स्वछंदता पर आपत्ति
-अजय ब्रह्मात्मज
लॉकडाउन में मनोरंजन के प्लेटफार्म के तौर पर ओटीटी का चलन
बढ़ा है. पिछले कुछ सालों से भारत में सक्रिय विदेशी ओटीटी प्लेटफार्म ओरिजिनल
सीरीज लाकर भारतीय हिंदी दर्शकों के बीच बैठ बनाने की कोशिश कर रहे थे. उन्हें
बड़ी कामयाबी अनुराग कश्यप विक्रमादित्य मोटवानी के निर्देशन में आई ‘सेक्रेड
गेम्स’ से मिली. विक्रम चंद्रा के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित इस वेब सीरीज का
लेखन वरुण ग्रोवर और उनकी टीम ने किया था. दर्शक मिले और टिके रहे. इस वेब सीरीज के
प्रसारण के समय से ही यह सवाल सुगबुगाने लगा था कि ओटीटी प्लेटफॉर्म को स्वच्छंद
छोड़ना ठीक है क्या? सामाजिक,नैतिक और राष्ट्रवादी पहरुए तैनात हो गए थे. इस वेब
सीरीज में प्रदर्शित हिंसा, सेक्स और गाली-गलौज पर उन्हें आपत्ति थी. उनकी राय में
वेब सीरीज पर अंकुश लगाना जरूरी है. प्रकारांतर से वे ओटीटी प्लेटफॉर्म को सेंसर
के दायरे में लाना चाह रहे थे.
इस मांग और चौकशी की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है. वह ओटीटी के
प्रसारण ‘सेक्रेड गेम्स’ के पहले से दर्शकों के बीच पहुंच रहे थे. इनके अलावा
यूट्यूब और अन्य स्ट्रीमिंग माध्यम से दुनिया भर के वीडियो शो, सीरीज और फिल्में
आदि आसानी से उपलब्ध थीं. यहां तक कि मोबाइल नेटवर्क ने डाटा सस्ता किया तो अचानक पोर्न
साइट के दर्शकों की संख्या में भारी इजाफा हो गया, आम दर्शकों के बीच पोर्न
विस्फोट हुआ था. इस प्रवृत्ति पर ग्रामीण और कस्बाई दर्शकों की रुचि का मखौल
उड़ाते हुए रिपोर्ट और लेख छापे गए. याद करें तो संपन्न और अमीर दर्शक पहले से
इंटरनेट के जरिए यह सब कुछ देख रहे थे. इनमें ही ओटीटी प्लेटफार्म पर जारी विदेशों
की सीरीज की लोकप्रियता भी शामिल कर लें. तब तक यह सब विदेशी के नाम पर स्वीकार्य
था, लेकिन जैसे ही हिंदी के ओरिजिनल कंटेंट आने लगे और उनमें यह सब दिखा तो सभी चौकन्ने
हो गए. उन्हें अपनी भाषा में सब कुछ दिखाई और सनाई पड़ा. ‘सेक्रेड गेम्स’ में
प्रच्छन्न और प्रतीतात्मक रूप से वर्तमान सिस्टम को भी आड़े हाथों लिया गया था. जाहिर
सी बात है कि ‘राष्ट्रवाद’ के उभार में विरोधी स्वर कानों को खटका.
पाबंदी और सेंसरशिप की मांग करते हुए जनहित याचिकाएं दाखिल हुईं..
तब सरकार ने हाथ खड़े कर दिए थे. स्पष्ट कहा गया था कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर अंकुश
लगाना हमारे अधिकार में नहीं है. सभी जानते हैं कि फिल्मों के लिए सीबीएफसी(सेंट्रल
बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) है, जिसे प्रचलित धारणा में सेंसर बोर्ड माना जाता है.
वास्तव में सीबीएफसी का काम फिल्मों का सेंसर करना नहीं है. वह एक ऐसी संस्था है,
जो फिल्में देखकर सर्टिफिकेशन देती है. उक्त फिल्म किस कैटेगरी(ए,यूए या यू) की है.
कुछ निर्माता चाहते हैं कि उनकी फिल्में ए से यूए या यूए से यू की केटेगरी में आ
जाएं. फिर बोर्ड के सदस्य उन्हें सुझाव देते हैं कि फलां-फलां सीन और संवाद कम कर
दीजिए या काट दीजिए. कभी-कभी बोर्ड के सदस्य आपत्तिजनक दृश्यों और संवादों को भी
हटाने का निर्देश देते हैं. खासकर अगर कुछ सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी के खिलाफ जा
रहा हो.यह प्रक्रिया से सेंसर के नाम से प्रचलित हो गई है. ओटीटी की स्वच्छंदता पर
आपत्ति उठा रहे लोग ऐसी ही सेंसरशिप चाहते हैं. उनकी राय में सेक्स, हिंसा और गाली
गलौज के दृश्यों पर कैंची चलनी चाहिए. उन्हें समाज और संस्कृति खतरे में दिख रही
है. यह भी कहा जाता है कि बच्चों पर अच्छा असर नहीं होगा. साथ ही सत्ता और सरकार
की विरोधी बातें भी ना रहें.
पिछले साल मई महीने में ही एक याचिका पर सुनवाई करते हुए
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस दी कि ऑनलाइन मीडिया का नियमन किया जाए.
उसके पहले फरवरी में दिल्ली हाईकोर्ट ने ऐसी ही एक याचिका को खारिज कर दिया था. मई
महीने में ‘सेक्रेड गेम्स’ समेत कुछ विदेशी सीरीज के हवाले से कहा गया था कि इनमें
अश्लील, सेक्सपूर्ण, अनैतिक, विषैली, पोर्नोग्राफिक और अपवित्र सामग्रियां परोसी
जा रही हैं. देखा जाए तो कमोबेश मात्रा में यह सारी सामग्रियां हिंदी और अन्य
भारतीय भाषाओं की फिल्मों में दशकों से दिखाई जा रही हैं. हर पीढ़ी में समाज के
कुछ नैतिक पहरुओं को आपत्ति रही है. वहीं जागरूक और क्रिएटिव समूह इन आपत्तियों के
खिलाफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और क्रिएटिव उड़ान की वकालत करते रहे हैं. हां, सेल्फ
सेंसरशिप की बात सभी स्वीकार करते हैं. माना जाता है कि लोकतांत्रिक, शिक्षित और
विकसित समाज में किसी प्रकार की पाबंदी नहीं होनी चाहिए. क्रिएटिव व्यक्ति अपनी
सामाजिक जिम्मेदारी के तहत देश के दर्शकों के हित में तय करेगा कि वह क्या दिखाए?
एक प्रकार से वह अपनी हद खुद तय करेगा. अगर उस पर किसी को आपत्ति हो तो विमर्श
करें या कानून का सहारा लेकर उसे प्रतिबंधित करवाए. इसके विपरीत हम लगातार देखते आ
रहे हैं कि अचानक कुछ समूह और समुदाय उठ खड़े होते हैं और अपने हिसाब से आपत्तियां
दर्ज करते हैं. सरकारी एजेंसियां वोट और राजनीति की आड़ में मूक हो जाती हैं. फिर
सार्वजनिक उपद्रव होता है. कानून और व्यवस्था के नाम पर फिल्म का प्रदर्शन रोक दिया जाता
है.
ओटीटी प्लेटफॉर्म की सीरीज में यकीनन बेवजह गालियां ठूंसी जा
रही हैं. संवादों में संबोधन और विशेषण के लिए गालियों का चलन हो गया है. लेखकों
और निर्देशकों को दृश्य और किरदार को प्रभावशाली दिखाने के लिए या आसान तरीका लगता
है. वेब सीरीज में अभी मुख्य रूप से अपराध, हिंसा और सेक्सपूर्ण कंटेंट पर जोर
दिया जा रहा है, इसलिए उसके चित्रण में निर्देशक पूरी छूट ले रहे हैं. इधर चर्चे में
आए तो कामयाब सीरीज पर नजर डालें तो जाहिर हो जाएगा कि दर्शक भी यही पसंद कर रहे
हैं. वेब सीरीज के दर्शकों ने इसे सामान्य मान लिया है. एक समय के बाद दर्शक ऊब जाएंगे
और कहानियां भी दूसरे विषयों पर शिफ्ट होंगी. फिर लेखन और निर्देशन में बदलाव आएगा.
अभी तो लेखकों पर निर्माता-निर्देशक का दबाव रहता है. वे चाहते हैं कि गालियों के
छिड़काव के साथ हिंसा और सेक्स के दृश्य रचे जाएं. कई बार कलाकारों ने भी इस
अधिकता पर आपत्ति की है. एक कलाकार ने पिछले दिनों बताया था कि एक सीरीज में
ओपनिंग सीन के लिए निर्देशक की मांग थी कि उनके नंगे नितंब से दृश्य की शुरुआत
करेंगे. कलाकार की चिरौरी पर निर्देशक तौलिया देने के लिए राजी हुआ. दर्शकों की
उत्तेजना और स्फुरण के लिए यह किया जाता है. लेखक,निर्माता और निर्देशक ईसे बचें
तो बेहतर होगा.अन्यथा ओटीटी प्लेटफार्म को दूरदर्शन बनाने पर आलोचक आमादा हैं.
ओटीटी प्लेटफॉर्म और उनके लिए सीरीज बना रहे निर्माता-निर्देशकों
को सचेत हो जाना चाहिए. सेक्स,हिंसा और गाल- गलौज की अधिकता कहीं सचमुच पाबंदी और
नियंत्रण की स्थिति न पैदा कर दे. अगर ऐसा हुआ तो वेब सीरीज भी फिल्मों की तरह
सीबीएफसी जैसी किसी संस्था की निगरानी में आ जाएंगे. एक संजीदा निर्देशक की सलाह
है कि वेब सीरीज की रेटिंग की जा सकती है. निर्माता-निर्देशक और ओटीटी प्लेटफॉर्म
स्पष्ट घोषणा करें कि प्रसारित हो रही सीरीज का कंटेंट एडल्ट है या जनरल?
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वरना तो एक और सरकारी संगठन आके अपनी मर्ज़ी से बैन लगाएगा..