पैरासाइट : क्या ऑस्कर विजेता’ होना किसी फ़िल्म के सर्वश्रेष्ठ होने की सबसे बड़ी सनद है?


क्या ऑस्कर विजेता’ होना किसी फ़िल्म के सर्वश्रेष्ठ होने की सबसे बड़ी सनद है?
प्रतिमा सिन्हा


इतिहास के बनने का क्षण निश्चित होता है, जिस क्षण से पहले हम सब अनजान होते हैं, लेकिन उस क्षण के बीत जाने के बाद हम सिर्फ और सिर्फ चमत्कृत होते हैं. देर तक एक सम्मोहन में बंधे हुए रहते हैं. ऐसे ही एक सम्मोहन को मैंने भी छूकर देखने और महसूसने की कोशिश की. फिर मैंने उस नवनिर्मित इतिहास को कैसे देखा, समझा और ख़ुद उस विषय पर क्या सोचा, आज यही बात  आपसे साझा करना चाहती हूँ.
हम अक्सर पश्चिम की मोहर लगने के बाद किसी भी चीज़ की महत्ता और मूल्य को ज़्यादा समझने लगते हैं. ऐसी ही मोहर से प्रामाणिक रूप में सर्वश्रेष्ठ बन गयी फ़िल्म ‘पैरासाइट’ इन दिनों चर्चा में है.
निर्देशक बोंग जून हो निर्देशित ‘पैरासाइट’ पहली ऐसी एशियन फिल्म बन गई है, जिसे ऑस्कर अवार्ड से नवाजा गया है. कोरियाई भाषा की इस फिल्म को ऑस्कर 2020 की छह अलग-अलग श्रेणियों में नामांकित किया गया था, जिनमें से चार श्रेणियों का पुरस्कार ‘पैरासाइट’ ने अपने नाम कर लिया है.
‘सर्वश्रेष्ठ फिल्म’, ‘सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म’, सर्वश्रेष्ठ निर्देशन’ और ‘सर्वश्रेष्ठ मौलिक पटकथा’.
ये चारों पुरस्कार अपने नाम करके ‘पैरासाइट’ ने न सिर्फ दक्षिण कोरिया बल्कि पूरे एशिया के लिए एक ऐसा कीर्तिमान रच दिया है, जिसकी प्रतीक्षा हम सबको थी. अपनी विनिंग स्पीच में निर्देशक बोंगजून हो ने अपने साथ नामांकित सभी निर्देशकों को यथोचित सम्मान देते हुए कहा कि अगर उनके वश में होता तो वह अवार्ड के कई टुकड़े करके सभी निर्देशकों को देना चाहते. सच यह है कि 2020 का ऑस्कर सम्मान ‘पैरासाइट’ को दिया जा चुका है. ऑस्कर के अलावा विश्व के सभी सिनेमा संबंधी मंचों और समारोहों में इस फ़िल्म ने धूम मचाई हुई है. एक ऐसी फिल्म जो देखने वालों के होश उड़ा देती है. हर कोई इसे देखना चाहता है. मूलतः कोरियाई भाषा में बनी यह फिल्म भाषा की सारी सीमाएं लांघते हुए दुनियाभर के सिने प्रेमियों द्वारा देखी और सराही जा रही है. इसकी कहानी मूल रूप से अमीर-गरीब के बीच खींची गहरी विभाजन रेखा को पुनर्परिभाषित करती और इस सामाजिक वर्गीकरण से उपजे भेदभाव, आक्रोश, प्रेम, डर, ईर्ष्या, अतिमहत्वाकांक्षा को दर्शाती चलती है. निश्चित रूप से ऑस्कर जीतना इस फिल्म की सर्वश्रेष्ठता को निर्विवाद रूप से स्थापित करता है साथ ही यह भी सिद्ध करता है कि तमाम साइंस फिक्शन और क्राइम स्टोरीज के इर्द-गिर्द बुनी कहानियों के बीच मानवीय गुणों-अवगुणों और विश्वास की तलाश पर आधारित कोई भी कहानी आज के समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है लेकिन.......
इस फ़िल्म को देखने के बाद मेरे मन में अनायास ही एक ऐसी बात आई, जिसे कहते हुए मुझे डरना चाहिए, क्योंकि जब सब एक सुर में कोई बात कह रहे हों तो उसके विपरीत कुछ कहना एक ख़तरा मोल लेने से ज़्यादा कुछ नहीं. फिर भी मैं कहना चाहती हूँ, क्योंकि बेशक फिल्मों की दीवानी होने के बावजूद मैंने विदेशी फिल्में बहुत कम देखी हैं. अनुपात निकाला जाए तो सौ में मात्र 30 परसेंट. मैं कोई समर्थ, नामचीन, व्यवसायिक समीक्षक भी नहीं कि एक ‘ऑस्कर’ सम्मान से सजी किसी फ़िल्म की समीक्षा करने का दावा करूँ, लेकिन मैं एक अच्छी सिनेदर्शक और सिनेप्रेमी ज़रूर हूँ और इस आधार पर एक दर्शक के रूप में अपनी बात कहने का अधिकार हमेशा सुरक्षित है. आज मैं उसी अधिकार का उपयोग करने जा रही हूँ.

‘पैरासाइट’ की चर्चा शुरू होने के साथ ही मेरे मन में बलवती होती जा रही जिज्ञासा आख़िरकार अमेजॉन प्राइम पर इसको देखने के बाद शांत हुई लेकिन... सच ये है कि....
मैं ये फ़िल्म देख कर चमत्कृत नहीं हुई. बल्कि मुझे लगा कि जो कुछ पैरासाइट ने हमें एक कहानी (मौलिक पटकथा) के तौर पर दिया वह ऑस्कर की चयन समिति या हॉलीवुड के दर्शकों के लिए कुछ नया हो सकता है, लेकिन सिनेमा के दीवाने हम भारतीय दर्शकों के लिए इसमें कुछ ऐसा नया नहीं है, जिसको देखकर हम चमत्कृत हो जाएँ. मुझे दिल से ये महसूस हुआ कि हमारी भारतीय फ़िल्मों में जिस तरह की कहानियां और पटकथाएं लिखी जाती रही हैं वो अद्भुत हैं. प्रेम, द्वेष, ईर्ष्या से लेकर रोमांच, रहस्य, सनसनी और दिलोदिमाग को हिला देने वाली सैकड़ों भारतीय फ़िल्में अगर ‘पैरासाइट’ के बराबर रखी जाएँ तो वे इससे कई गुना ज्यादा बेहतर निकलेंगी. हालाँकि वे सब कभी ऑस्कर में नहीं भेजी गयीं.
इस फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ मौलिक पटकथा का पुरस्कार भी मिला है. लेकिन क्या यह सच नहीं कि हम भारतीय सिनेदर्शक इससे कहीं ज्यादा जटिल और मौलिक पटकथाएं देख चुके हैं ?

मैं फ़िल्म निर्माण के तकनीकी पक्ष के बारे में बहुत अधिकार से कुछ नहीं कह सकती लेकिन उसके कथा शिल्प और पटकथा की बुनावट के बारे में ज़रूर कह सकती हूँ. मेरा दावा है कि भारतीय सिनेमा (विशेष रूप से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री क्योंकि मैं हिंदी फिल्मों की ही दर्शक हूँ) के पास इससे बेहतर ऐसी नायाब फ़िल्मी पटकथाएं हैं, जिन्हें पर्दे पर देख कर न सिर्फ़ दिल दहल कर गहरे कुएं में डूब सकता है बल्कि दिमाग भी ऐसे रेशम में उलझ सकता है, जिसे सुलझाने में भगवान याद आ जाये.

‘पैरासाइट’ को ‘ब्लैक कॉमेडी’ की श्रेणी में रखा गया है, लेकिन पूरी फ़िल्म देखने के बाद मालूम चलता है कि कुछेक दृश्यों को छोड़ कर इस में हास्य जैसा कुछ भी नहीं है. अमीर-ग़रीब के बीच की खाई से उपजी विसंगतियों और अपराधों को दिखाते हुए यह फ़िल्म अमीर-ग़रीब के बीच की खाई को भी अधिक गहराई से नहीं दिखा पाती. पूरी फ़िल्म देख लेने के बाद भी अमीर ‘पार्क परिवार’ के लिए मन में कोई गुस्सा या ईर्ष्या नहीं जगता. पार्क परिवार के चारों सदस्य बेहद नेक, भोले और छलरहित जान पड़ते हैं. उनकी किसी बात या व्यवहार से यह भी नहीं दिखता कि वो गरीबों के लिए कोई घृणा भाव या नफ़रत रखते हैं. वो सब विश्वास योग्य लोगों की तलाश में हैं जो उनके सहायक बन सकें. वेतन देने या सम्मान देने में भी वो कमी नहीं करते. वो किसी भी तरह की बुराई या अन्याय में भी शरीक नहीं दिखते. इस तरह पूरी फ़िल्म में उनके प्रति कोई दुर्भावना नहीं जाग पाती. दूसरी तरफ़ ग़रीब ‘किम परिवार’ अपनी बेचारगी और कमतरी के बावजूद ज़्यादा शातिर और षड्यंत्रकारी दिखाई देता है. ‘किम परिवार’ के किसी भी सदस्य के प्रति कोई भी सहानुभूति जगा पाने में यह कहानी कामयाब नहीं हुई है. यह एकतरफ़ा अपराध-कथा है. गरीबी से ज़्यादा ‘लालच’ से उपजा  एक षड्यंत्र, जिसमें भोला-भाला ‘पार्क परिवार’ फंसता जाता है. इतना ही नहीं, गुस्से को छोड़ कर प्रेम, घृणा, लोभ, ईर्ष्या और संशय जैसे भावों को भी सूक्ष्म रूप से धार नहीं मिल सकी है.
यह एक बहुत अच्छी फ़िल्म तो बेशक हो सकती है लेकिन 2019 में दुनिया भर में बनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म....मेरे हिसाब से शायद नहीं.

शायद मेरा यह सोचना भारतीय परिदृश्य के हिसाब से हो. हम लोग ज़्यादा सोचते हैं. ओवर थिंकर होते हैं. किसी भी इमोशन में ज़्यादा डूबते हैं. नफ़रत भी हमारी सॉलिड होती है और दया भाव भी. उसके पीछे का उद्दीपक भाव भी उतना ही स्ट्रांग होना ज़रूरी होता है लेकिन विश्वस्तर पर सराही जाने वाली किसी फ़िल्म को दरअसल सारे भावों का प्रतिनिधि तो होना ही चाहिए. ‘ऑस्कर’ के पैमाने पर अगर ‘पैरासाइट’ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म है तो जाने भी दो यारों (कुंदन शाह), ओये लकी-लकी ओये (दिबाकर बैनर्जी), डेल्ही-बेली (अभिनय देव), अन्धाधुन (श्रीराम राघवन), दृश्यम (निशिकांत कामत) और आर्टिकल 15 (अनुभव सिन्हा) जैसी भारतीय फ़िल्में ऑस्कर विजेता क्यों नहीं हो पातीं ? इन फ़िल्मों को ऑस्कर हेतु क्यों नहीं भेजा जा सकता ? इतना ही नहीं, ऑस्कर में भेजी गयी और विदेशी भाषा वर्ग के लिए चयनित हुए हमारी शानदार पटकथा और निर्देशन से सजी फ़िल्म ‘लगान’ को यह पुरस्कार क्यों नहीं मिलता ?
कभी सुना था कि भारतीय फ़िल्मों में हर बीस मिनट पर आने वाले गीत और भरपूर पारिवारिक मेलोड्रामा विदेशी निर्णायकों को ‘लॉजिकल’ नहीं लगते, इसलिए ये उनकी कसौटी पर छंट जाती हैं. मगर अब तो फ़िल्मों का शिल्प भी बदला है ऐसे वैश्विक सिनेमा जगत में इनका विशिष्ट स्थान नहीं है ?
क्या यह भारतीय सिनेमा के साथ वैश्विक स्तर पर किया जाने वाला कोई नियमित भेदभाव है ? अगर हाँ, तो फिर किसी फ़िल्म के ‘सर्वश्रेष्ठ’ होने के लिए उसका ‘ऑस्कर विजेता’ होना ही आख़िरी सनद क्यों मानी जाय ?



Comments

saroj said…
बहुत ही तार्किक समीक्षा है ऑस्कर विजित पैरासाइट मूवी की। तुम्हारा विचार सही है प्रतिमा यह मूवी देखने के बाद मुझे भी लगा कि इससे कहीं रोचक पटकथा हिंदी मूवीज़ में लिखी गयी है।तकनीकी दृष्टि का तो मुझे बहुत ज्ञान नही है।किंतु मेरी दृष्टि में एक बेहतर मूवी का मानदंड ऑस्कर क़तई नही है।
vandana gupta said…
तर्कपूर्ण समीक्षा की है आपने। इन्हीं वजहों से अक्सर ऐसे पुरस्कार संदिग्ध हो जाते हैं।
Anonymous said…
ऑस्कर अभी भी लोबी की प्रक्रिया में फसा हुआ है..
इतनी विशाल विश्व की फिल्मों को मॉनिटर कर पाना और अलग अलग
संस्कृति की चीज़ों को एक बहुत ही कठिन काम है..
अभी भी ऑस्कर अवार्ड्स की प्रक्रिया चयन की खुद ही सभी मायनो में सही नही है
आकाश देवराज
Pallavi saxena said…
सरोज जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ।

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