सिनेमालोक : भाए न रंग सांवला


सिनेमालोक
भाए न रंग सांवला
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सांवले रंग के प्रति गहरी अरुचि और एलर्जी  है .शुरू से ही फिल्म के हीरो-हीरोइन और अन्य चरित्रों के लिए गौर वर्ण के कलाकारों की मांग रही है. हिंदी सिनेमा के विकास के साथ राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित आकृतियां और रूपाकार ही फिल्मों के किरदारों के आदर्श बने. राजा रवि वर्मा ने जब देवी-देवताओं के काल्पनिक पोर्ट्रेट तैयार तो उनके रंग, कद, काठी और एपीयरेंस पर खास ध्यान दिया. गौर वर्ण, सुतवां नाक,उन्नत ललाट,नीली-भूरी आंखें, घनी-टेढ़ी भौहें में और सीधे लहराते बाल... बाद में फिल्मों में भी उन्हें अपनाया गया. धीरे-धीरे अघोषित रुढ़ि बन गयी. खास कर हीरो-हीरोइन के लिए गौर वर्ण अनिवार्य हो गया. हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय कलाकारों में शायद ही कोई श्याम वर्ण का मिले. दो-चार अपवाद हो सकते हैं.
मनोरंजन की दुनिया में गौर वर्ण के दबाव का सबसे बड़ा उदाहरण माइकल जैक्सन हैं. लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचने के बाद उन्हें गोरे होने की धुन चढ़ी. अमेरिका में ‘अश्वेत’ होने का खास राजनीतिक निहितार्थ है/ तमाम मुश्किलों और अवरोधों को पार कर माइकल जैकसन ने शोहरत और हैसियत हासिल कर ली, लेकिन गौर वर्ण की ग्रंथि से नहीं निकल सके. उन्होंने अपनी त्वचा का रंग बदला. उसकी वजह से उन्हें ताजिंदगी परेशानी झेलनी पड़ी. गौर वर्ण ने उन्हें शारीरिक तकलीफ भी दी. फिर भी... भारत में गौर वर्ण के प्रति सामाजिक झुकाव और दबाव इतना ज्यादा है कि अनेक फार्मास्यूटिकल कंपनियां ‘गोरे होने की क्रीम’ बेच रही हैं और भरी मुनाफा कम रही हैं. हालांकि इनके खिलाफ अभियान भी चलते हैं, लेकिन ‘गोरे होने की क्रीम’ का कारोबार बढ़ता ही जा रहा है. कुछ सालों पहले तक अखबारों के वैवाहिक विज्ञापनों में गौर वर्ण की वधु की ही मांग रहती थी. माताएं(सास) खुद किसी भी रंग की हों,लेकिन बहू गौर वर्ण की ही होनी चाहिए. गौर वर्ण की ग्रंथि का एक पहलू सवर्ण(उच्च जाति) से संबंधित है. माना जाता है कि कथित ऊंची जाति के लोग गोरे होते हैं.
पिछले दिनों मैंने मराठी अभिनेत्री उषा जाधव का इंटरव्यू किया. महाराष्ट्र के कोल्हापुर से आई उषा जाधव ने प्रतिभा और मेहनत के दम पर प्रतिष्ठा हासिल की है. उन्हें 2017 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार और 2019 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का इफ्फी पुरस्कार मिल चुका है. उन्होंने अपनी बातचीत में बताया कि रंग की वजह से उन्हें कई बार रिजेक्शन झेलना पड़ा. शुरू में तो रंग को लेकर कास्टिंग डायरेक्टर या डायरेक्टर सीधे कह भी देते थे. इधर थोड़ा बदलाव आया है. सीधे मना नहीं किया जाता, लेकिन उनके मनाही की भाषा से स्पष्ट हो जाता है कि कारण ‘सांवलापन’ है. एनएसडी के स्नातक दिब्येंदु भट्टाचार्य प्रभावशाली कलाकार हैं, लेकिन उन्हें उनकी प्रतिभा के मुताबिक काम नहीं मिले.उनके बारे में कुछ निर्देशकों को कहते सुना है... यार कलाकार तो उम्दा है, लेकिन उसका रंग गाढ़ा(सांवला) है.
हाल ही में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने यह बात दोहरायी है. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया कि रंग और वर्ण की वजह से उन्हें भी रिजेक्शन झेलना पड़ा है. लंबे संघर्ष के बाद उन्हें कामयाबी और पहचान मिल गई है, लेकिन अभी तक फिल्मों की मुख्य भूमिकाओं के लिए उन्हें काबिल नहीं समझा जाता है. उन्हें मेनस्ट्रीम हिंदी फिल्मों में केंद्रीय भूमिकाओं का इंतजार है. उन्हें इंतजार है कि कुछ निर्देशक आयें और बतौर हीरो उन्हें फिल्मी दें. उन्हें केंद्रीय भूमिका में खास तरह की फिल्में ही मिल पाती हैं.
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में रंग और वर्ण का मसला गहरा और गंभीर है. ऐसा लग नहीं रहा है कि इस मानसिकता से जल्दी निजात मिलेगी, हां, यह बदलाव तब आसान और मुमकिन होगा, जब फिल्मों के नायक-नायिका बदलें अभी हिंदी फिल्मों के नायक-नायिका जिस तबके के चुने और लिखे जाते हैं, उनके लिए कलाकारों का चुनाव करते समय गौर वर्ण का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव काम करता रहता है. नायक-नायिका की पृष्ठभूमि बदलेगी तो उनका रंग भी बदलेगा.


Comments

BIBHAS said…
नंदिता दास ने तो ब्लैक इज़ ब्युटिफुल नाम से अभियान चला रखा है। सुंदर लिखा।
Pooja Singh said…
निसंदेह बदलाव से हीं बदलाव आएगा
सही कहा आपने। यह रंग को लेकर पूर्वाग्रह हमारे समाज में रहे हैं। चूँकि फिल्में भी हम लोगों के लिए और हम जैसे लोगों द्वारा बनाई जाती हैं तो पूर्वाग्रह दिखते हैं। उम्मीद है लोग बदलेंगे और चूँकि फिल्मों का असर दूर तक जाता है तो यह फिल्म से जुड़े लोग भी इससे जुड़ेंगे। कुछ लोग मुहीम निकालते हैं लेकिन बाकियों को भी इससे जुड़ने की जरूरत है।
जब गोरा रंग सदियों से सौन्दर्य का प्रतीक माना जाता रहा है तो फिल्में अछूती कैसे रह सकती हैं ?

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