सिनेमालोक : क्या ‘गली ब्वॉय’ से ऑस्कर में ‘अपना टाइम आएगा’?
सिनेमालोक
क्या ‘गली ब्वॉय’ से ऑस्कर में ‘अपना टाइम आएगा’?
-अजय ब्रह्मात्मज
ऑस्कर के लिए ‘गली ब्वॉय’ भेजने की घोषणा हो चुकी है. 92 वे ऑस्कर के लिए हुई इस घोषणा से निर्देशक जोया अख्तर और फिल्म के मुख्य कलाकार रणवीर सिंह व् आलिया भट्ट बेहद उत्साहित हैं. रणवीर सिंह बता रहे हैं कि वह हिंदी फिल्मों का झंडा बुलंद किए रहेंगे. आलिया भट्ट को उम्मीद है कि बर्लिन फिल्म फेस्टिवल से आरंभ हुई ‘गली ब्वॉय’ की यात्रा ऑस्कर के मुकाम तक पहुंचेगी. इसे इंटरनेशनल दर्शकों की सराहना मिल रही है. फिल्म यूनिट के सांग कुछ और उत्साही भी मान रहे हैं कि ‘गली ब्वॉय’ से ऑस्कर में ‘अपना टाइम आएगा’.
सच कहूं तो ‘गली ब्वॉय’ नामांकन तक भी पहुंच पाए तो काफी होगा. इस तरह यह ‘मदर इंडिया’(1958), ‘सलाम बॉम्बे’(1989) और ‘लगान’(2001) के बाद पुरस्कार के लिए नामांकित भारत की चौथी फिल्म हो जाएगी. फिलहाल मुझे इसकी भी संभावना कम लगती है. ना तो मैं निराशावादी हूं और ना ही मुझे ‘गली ब्वॉय’ की गुणवत्ता पर शक है. यह भारितीय शैली की फिल्म है. मेरी राय में फिल्मों की श्रेष्ठता और गुणवत्ता का ऑस्कर मापदंड अलग है. भारत की फिल्में उस मापदंड पर खरी नहीं उतरातीं. यही कारण है कि साल दर साल की कोशिशों के बावजूद कोई भी ऑस्कर पुरस्कार भारत नहीं पहुंचा है. अभी तक कोई भी फिल्म इस योग्य नहीं मानी गई है. हां, निजी तौर पर कुछ प्रतिभाएं जरूर पुरस्कृत हुई है.
इस साल ऑस्कर में भेजने के लिए 28 फिल्मों पर विचार किया गया. निर्देशक अपर्णा सेन की अध्यक्षता में गठित समिति ने ‘गली ब्वॉय’ को भेजने के योग्य समझा. जिनकी फिल्म नहीं चुनी गई है, उन्हें शिकायत हो सकती है. ऐसे फैसलों से सभी खुश नहीं होते. असली कवायद घोषणा के बाद शुरू होती है. ऑस्कर की होड़ में कई औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं. निर्णायक मंडल के सदस्य फिल्म देखें, इसके लिए जबरदस्त लॉबिंग की जाती है. इस प्रक्रिया में पैसे खर्च होते हैं. फिल्म का निर्माता समर्थ हुआ तो ठीक है. अन्यथा चंदा बटोरने का काम शुरू होता है. कई बार ऐसा लगता है कि इस कोशिश में सभी की ऊर्जा व्यर्थ खर्च होती है और शून्य नतीजा रहता है. हम ना जाने क्यों ऑस्कर ग्रंथि से नहीं निकल पा रहे हैं? वास्तव में हमें ऑस्कर की परवाह नहीं करनी चाहिए. हम अपनी फिल्मों की सामान्य गुणवत्ता में सुधार करें और उन्हें अन्य उपलब्ध प्लेटफार्म के जरिए विदेशी दर्शकों तक पहुंचाएं. यह हो भी रहा है. आप गौर करें तो पाएंगे कि पिछले 10 सालों में इंटरनेशनल मंच पर भारतीय फिल्मों की मौजूदगी बढ़ी है.
सोशल मीडिया का विचरण करने पर एस लगता है कि एक जमात की राय में यह फिल्म भी मुंबई के ‘स्लम’ पर केंद्रित होने की वजह से ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ की तरह जूरी का ध्यान खींचेगी. देश में एक तबका यही मानता रहा है कि भारत की गरीबी, बदहाली और दुर्दशा पर बनी फिल्में विदेशी निर्णायकों को अच्छी लगती हैं. यह विदेशियों की ग्रंथि हो सकती है. हमारे लिए यह गौरव की बात नहीं है कि हम अपनी फटेहाली के प्रदर्शन से ताली की उम्मीद करें. भारतीय समाज के यथार्थ को दर्शाती फिल्मों का अपना एक महत्व है. ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए, लेकिन उन्हें दिखा कर वाहवाही की उम्मीद करने के पीछे कोई तुक नहीं है.
बतौर दर्शक हम अच्छी फिल्मों का समर्थन करें. देश के अंदर होने वाले अवार्ड में ऐसी फिल्मों को प्रतिष्ठा मिले. एक जागृति फैले तो धीरे-धीरे बेहतरीन फिल्मों की संख्या बढ़ेगी. हमें अपनी फिल्मों की शैली और परंपरा का निर्वाह करते हुए ही फिल्मों के विकास व विस्तार पर ध्यान देना चाहिए. पिछले दो दशकों में आये युवा फिल्मकार विदेशी निर्देशकों से कुछ ज्यादा ही प्रभावित हैं. वे उनकी फिल्म की नकल में अपने कथ्य को भी बिगाड़ देते हैं. हमें जरूरत है कि हम देश के श्रेष्ठ फिल्मकारों की फिल्मों के गुणों को अपनाएं और उन्हें 21वीं सदी के अनुरूप बनाएं. भारतीय फिल्मों की खास शैली बनी रहे. देश के दर्शकों का मनोरंजन और संवर्धन हो. हम ऑस्कर की फिक्र में क्यों दुबले हों या उछलने लगें?
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