सिनेमालोक : लोकेशन मात्र नहीं है कश्मीर


सिनेमालोक
लोकेशन मात्र नहीं है कश्मीर
--अजय ब्रह्मात्मज
कश्मीर पृष्ठभूमि, लोकेशन और विषय के तौर पर हिंदी फिल्मों में आता रहा है. देश के किसी और राज्य को हिंदी फिल्मों में यह दर्जा और महत्व हासिल नहीं हो सका है. याद करें तो कुछ गाने भी मिल जाएंगे हिंदी फिल्मों के, जिनमें कश्मीर के नजारो और खूबसूरती की बातें की गई हैं. कश्मीर की वादियों की तुलना स्वर्ग से की जाती है. अमीर खुसरो से लेकर हिंदी फिल्मों के गीतकरों तक ने कश्मीर को जन्नत कहा है. कश्मीर का प्राकृतिक सौंदर्य हर पहलू से फिल्मकारों को आकर्षित करता रहा है. 1990 के पहले की हिंदी फिल्मों में यह मुख्य रूप से लोकेशन के तौर पर ही इस्तेमाल होता रहा है. ‘जब जब फूल खिले’ जैसी दो-चार फिल्मों में वहां के किरदार दिखे थे.
अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के फिल्मकारों से आग्रह किया है कि वे जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में अपनी फिल्मों की शूटिंग करें, इससे वहां के लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे, फिल्मों की शूटिंग से कुछ हफ्तों और महीनों के लिए स्थानीय लोगों को अनेक तरह के रोजगार मिल जाते हैं, अगर फिल्म लोकप्रिय हो जाए तो बाद में टूरिज्म से उस इलाके का फायदा होता है. कश्मीर घूम चुके हुए लोगों को मालूम होगा कि वहां एक ‘बेताब वैली’ है. कश्मीर के हालात बिगड़ने से पहले देश के संपन्न मद्य्वार्गीय नवदंपतियों के हनीमून का एक ठिकाना कश्मीर हुआ करता था. वहां जाकर कश्मीरी लबादे में तस्वीरें खिंचवाना, शिकारे पर सैर करते हुए शम्मी कपूर के अंदाज में झटकेदार पोज की पिक्चर उतारना और उसे एल्बम में संजोकर रखना. आज भी कुछ घरों में पूर्वजों के एल्बमों में कश्मीर इन तस्वीरों में सुरक्षित है.
‘जंगली’, ‘जानवर’,’कश्मीर की कली’, ‘आरजू और’ ‘जब जब फूल खिले’ जैसी लोकप्रिय फिल्मों ने देश के दर्शकों को कश्मीर जाने के लिए प्रेरित किया’ वहां की बर्फीली वादियों में घूमने का अलग रोमांच हुआ करता था’ बताते हैं कि 1947 के अक्टूबर महीने में भारत में शामिल होने के फैसले के बाद राजा हरि सिंह ने फिल्मकारों से कश्मीर आने का व्यक्तिगत आग्रह किया था’ उनके आग्रह को राज कपूर ने अधिक गंभीरता से स्वीकार किया. ‘बरसात’ से लेकर ‘हिना’ तक वह अपनी फिल्मों में किसी न किसी बहाने कश्मीर को लाते रहे’ उनकी फिल्म ‘हिना’ में तो किरदार भी कश्मीर के थे’ कश्मीर में पैदा हुई दिक्कतों के बाद हिंदी फिल्मों को स्विट्जरलैंड का चस्का लगा’ कुछ मजबूरी और कुछ वहां मिल रही सुविधाओं ने यश चोपड़ा समेत अनेक फिल्मकारों को खींच लिया’ कश्मीर में शूट की गई हिंदी फिल्मों की सूची बनाएं तो गिनती 60-75 के आसपास होगी.
कश्मीर के अंदरूनी हलचल की जानकारी पहली बार मणि रत्नम की फिल्म ‘रोजा’ में मिलती है. इस फिल्म में मणि रत्नम ने सबसे पहले कश्मीर की वास्तविक स्थिति के बारे में बताया और दिखाया. ऊपर से दिख रही खूबसूरती की तह में लहूलुहान स्थितियां है. ‘रोजा’ में पड़ोसी देश को नाम और चेहरे के साथ रेखांकित किया गया. उसके बाद तो विलेन का कॉस्ट्यूम ही पठानी सूट हो गया. कई सालों के बाद विधु विनोद चोपड़ा ने ‘मिशन कश्मीर’ में वहां की वास्तविक कठिनाइयों और विरोधाभासों को फिल्म के कथानक में प्रस्तुत किया. उसके बाद से लगातार आतंकवाद के साए में जी रहे कश्मीरियों की कहानियां अलग-अलग दृष्टिकोण से पर्दे पर आती रहीं हैं. कभी किसी ने आतंकवाद को उचित नहीं ठहराया, लेकिन प्रशासन और सैनिकों की मौजूदगी से कश्मीर की आम जिंदगी में पड़ी खलल पर अधिकांश ने उंगली उठाई. ‘हैदर’ में विशाल भारद्वाज ने गंभीरता से कश्मीरियत के सवाल को छुआ और फिल्म के कुछ पर्संग और दृश्य में इसे ‘चुत्स्पा शब्द से अभिव्यक्त किया’
पिछले साल कश्मीर की तकलीफों को लेकर तीन फिल्में आयीं- ‘नोटबुक’, ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ और ‘हामिद’. इनमें से हामिद को 2018 का श्रेष्ठ उर्दू फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. ‘मिशन कश्मीर’ की तरह ही पिछले साल की तीनों फिल्मों में वहां के किरदारों के जरिए फिल्मकारों ने स्थानीय व्यथा का वृत्तांत सुनाया, सुजीत सरकार की ‘यहां’, ओनीर की ‘आई एम...’ और संतोष सिवन की ‘तहान’ आदि फिल्मों में हम वहां के दर्द को देख-सुन सकते हैं’ दरअसल, कश्मीर सिर्फ लोकेशन मात्र नहीं है. थोड़ा गहरे उतरने पर हिंदी फिल्मों के तमाम मसाले वहां मौजूद मिलेंगे. कश्मीर में इमोशन, एक्शन, ड्रामा, ट्रेजडी और प्रहसन सब कुछ है. कोई फिल्मकार हमदर्दी के साथ कश्मीर जाए तो दिल दहला देने वाली कहानियां लेकर लौटेगा. आने वाले सालों में कुछ और दर्दनाक कहानियां वहां से आएंगी. उसके साथ ही कोशिश रहेगी कि खुशहाल कश्मीर के मुस्कुराते चेहरों को भी हिंदी फिल्मों के परदे पर लाया जाए.
पिक्चर अभी बाकी है...


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न केवल हिंदी फिल्मों को उधर जाकर उनके हालातों को परदे पर लाना चाहिए बल्कि उधर भी अपनी फिल्म इंडस्ट्री स्थापित करने की कवायद होनी चाहिए ताकि वहां के लोग अपनी बात इस माध्यम से दुनिया के सामने रख सके। हिन्दी फिल्मों के केंद्र के रूप में मुंबई जरूर विकसित हो गया है लेकिन मुझे लगता है कि वक्त आ गया है कि ऐसे और केंद्र विकसित किये जाने चाहिए ताकि लोग एक ही शहर में जाने को मजबूर न हो। इससे ज्यादा विवधता और ज्यादा अच्छी कहानियाँ मेरे ख्याल से परदे पर देखने को मिलेंगी।

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