सिनेमालोक : इतिहास लेखन में आलस्य -
सिनेमालोक
इतिहास लेखन में आलस्य
-अजय ब्रह्मात्मज
भारतीय सिनेमा का इतिहास 100 साल से अधिक पुराना हो चुका है, लेकिन इस इतिहास
पर दर्जन भर किताबें भी नहीं मिलती हैं. भारतीय सिनेमा के इतिहास पर बहुत कम लिखा
गया है. ज्यादातर किताबें बीसवीं सदी में ही लिखी गईं. 100 साल पूरे होने पर शताब्दी समरोह के तहत भारतीय
सिनेमा के बारे में पत्र-पत्रिकाओं में खूब लिखा गया. लगभग हर फिल्मी और गैर
फिल्मी संस्था और संगठन में 100 सालों के भारतीय
सिनेमा का बखान हुआ. सभी अपनी सीमित जानकारी से गुणगान करते रहे. आज भी गौरव गाथाएं
प्रकाशित होती हैं. अतीत की तारीफ और वर्तमान की आलोचना/भर्त्सना होती रहती है.
कहा जाता है कि सिनेमा के हर क्षेत्र में क्षरण हुआ है. दरअसल, समाज में हमेशा कुछ
लोग अतीतजीबी होते हैं और देखा गया है कि वे वाचाल और सक्रिय भी रहते हैं. उन्हें
वर्तमान से शिकायत रहती है. उनका भी ध्यान इतिहास लेखन की और नहीं रहता.
अतीतगान से निकल के जरा सोचें और देखें तो हम पाएंगे कि सिनेमा के
इतिहास के दस्तावेजीकरण का काम हमने नहीं किया है. भारत की किसी भी भाषा की फिल्म
इंडस्ट्री का व्यवस्थित इतिहास नहीं मिलता. दशकों पहले कुछ अध्येताओं के प्रयास से
कुछ किताबें आ गई थीं. अब उन्हीं में कुछ-कुछ जोड़ा जाता है. उसे अद्यतन कर दिया
जाता है. भारत सरकार या किसी फिल्मी संगठन की तरफ से इतिहास लेखन का कोई कदम नहीं
उठाया गया है. यहां तक कि विश्वविद्यालयों में ट्रेंड और कंटेंट को लेकर शोध होते
रहते हैं. सेमिनार में लाखों खर्च होते हैं. लेकिन इतिहास लेखन का कोई ठोस प्रयास
नहीं किया जाता.
भारतीय फिल्मों का कोई भारतीय कोष भी नहीं है. किताब या ऑनलाइन
कहीं भी नहीं है. इंटरनेट की सुविधा और साइबर आर्काइव की संभावनाओं के बावजूद हम
आईएमडीबी और विकिपीडिया जैसे विदेशी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर निर्भर करते हैं. भारत
में नेशनल फिल्म आर्काइव की तरफ से इसकी कोशिश की जा सकती है. फौरी तौर पर इसी साल
से वार्षिक रिपोर्ट के तौर पर तथ्य और आंकड़े एकत्रित किए जा सकते हैं. अगर कोई
ऐसा प्लेटफॉर्म बन जाए तो निर्माता भी अपनी फिल्मों की जानकारी वहां भेज सकते हैं.
तथ्य और आंकड़े रहेंगे तो कोई अध्तेता और इतिहासकार उनका विश्लेषण और अध्ययन कर
किताब लिख सकता है. हमारी आदत और दिक्कत है कि हम अपने ही इतिहास के संकलन और
संग्रहण में रुचि नहीं रखते.
पत्र-पत्रिकाओं के कुछ ही दफ्तरों में फिल्मों से संबंधित सामग्रियों की लाइब्रेरी
मिलेंगी. इंटरनेट की सुविधा आ जाने से जानकारियां और तस्वीरें इंटरनेट से ले ली
जाती हैं, जिनमें कई बार भयंकर गलतियां रहती हैं.
पिछले दिनों मुंबई स्थित फ़िल्मी संगठनों में जा-जाकर मैंने पता
करने की कोशिश की. मुझे यह जानना था कि क्या निर्देशक,निर्माता,कलाकार,लेखक,तकनीकी
विभाग के कर्मचारी आदि के संगठन अपने वर्तमान और पुराने सदस्यों की पूरी जानकारी
का दस्तावेजीकरण करते हैं? लगभग सभी के यहां से नकारात्मक जवाब ही मिला. इस दिशा
में कोई सोचता ही नहीं. उन्हें इसकी जरूरत और उपयोगिता महसूस नहीं होती. कायदे से
सभी संगठनों को अपने वरिष्ठ सदस्यों से बातचीत रिकॉर्ड कर लेनी चाहिए. वे उन्हें
अपने साइट पर प्रकाशित करें और शेयर करने की सुविधा दें. यह अभी तक नहीं हुआ है तो
जल्दी से जल्दी से आरंभ किया जा सकता है. सभी संगठनों के पास पर्याप्त पैसे
हैं,जिनसे संसाधन जुटाए जा सकते हैं. भारत सरकार के अधीन कार्यरत फिल्म निदेशालय इसकी
देख-रेख कर सकता है.
किसी भी दस्तावेज को सुरक्षित और दीर्घायु रखने का एक ही तरीका है
कि उसे संरक्षित करने के साथ वितरित भी कर दो. ज्यादा से ज्यादा लोगों तक तथ्य
पहुंचे रहेंगे तो किसी न किसी रूप में सुरक्षित रहेंगे. सरकार,संस्थान,संगठन और विश्वविद्यालयों को इस तरफ ध्यान देने की जरूरत
है. लापरवाही में हम बहुत कुछ गवा चुके हैं. अभी से भी जागृत हुए तो बहुत कुछ
बचाया भी जा सकता है.
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