सिनेमालोक : इलाकाई सिनेमा और ‘धुमकुड़िया’
सिनेमालोक
इलाकाई सिनेमा और ‘धुमकुड़िया’
-अजय ब्रह्मात्त्मज
पिछले दिनों रांची में निर्माता सुमित अग्रवाल और निर्देशक नंदलाल
नायक की फिल्म ‘धुमकुड़िया’ देखने का अवसर मिला. झारखंड के नागपुरिया भाषा में बनी
यह फिल्म वहीं के स्थानीय समस्या मानव तस्करी (खासकर लड़कियां) पर केंद्रित है.
बताते हैं कि पिछले 10 सालों में 38000 लड़कियों की तस्करी हो चुकी है. उन्हें रोजगार दिलाने के लालच में
ले जाया जाता है. घरेलू काम करवाने के अलावा खुलेआम उनका यौन शोषण भी होता है.
मानसिक प्रताड़ना दी जाती है. इनमें से बहुत कम लड़कियां ही अपने गांव लौट पाती
हैं. अधिकांश इस देश की अनगिनत आबादी में खो जाती हैं या मर-खप जाती हैं. निर्देशक
नंदलाल नायक ने सच्ची घटनाओं पर आधारित एक कहानी बुनी है और उसे फिल्म का रूप दिया
है. गौरतलब है कि नंदलाल नायक स्वयं इसी कम्युनिटी के सदस्य हैं और तस्करी की
शिकार लड़कियों के पुनर्वास के लिए काम कर रहे हैं. उन लोगों की कोशिश है कि मानव
तस्करी पर ही रोक लगाई जाए.
नंदलाल नायक ने मुंबई के कुछ प्रसिद्ध कलाकारों के साथ स्थानीय
प्रतिभाओं को शामिल कर फिल्म यूनिट तैयार की. फिल्म में रिशु को हॉकी खेलने का शौक
है. उसके पिता भी हॉकी खिलाड़ी रहे थे. अपने इसी शौक के वशीभूत वह अपने जीजा के
साथ गांव से निकलती है. उसका सपना है हॉकी खिलाड़ी बनना. सीधे स्वभाव का जीजा का
संपर्क बुधुआ से होता है, जो उसे हॉकी खिलाड़ी के प्रशिक्षण के बहाने दिल्ली भेज
देता है. दिल्ली पहुंचने पर रिशु को घरेलू नौकरानी का काम करना पड़ता है. परिवार
के मर्द की नजर उस पर है. वह उसके साथ लगातार बलात्कार करता है, जिससे रिशु
गर्भवती हो जाती है, एक दिन उसे दिल्ली का घर छोड़ना पड़ता है, वहां से झारखंड
लौटने में उसे आगे भी शोषण का शिकार होना पड़ता है,
नंदलाल नायक ने रिशु के जरिए झारखंड से गायब होती लड़कियों की दर्द
भरी दास्तान दिखाई है, उनकी तस्करी में परिवार के सदस्यों से लेकर उनके समुदाय के
लोग भी शामिल रहते हैं, कुछ के लिए यह धंधा है तो कुछ के लिए अनजान मजबूरी... इसी
फिल्म में जीजा और बुधुआ को देख सकते हैं. बुधुँआ को अपने समुदाय के हित की चिंता
भी है, लेकिन वह पूरे कुचक्र का एक छोटा हिस्सा बन चूका है. नंदलाल नायक ने झारखंड
के वास्तविक और मनोहारी लोकेशन पर फिल्म की शूटिंग की है. फिल्म के गीतों में
स्थानीय धुनों और भाव का सुंदर इस्तेमाल किया गया है.
इलाकाई फिल्मों में ‘‘धुमकुड़िया’ जैसे प्रयासों की सराहना होनी
चाहिए. उन्हें दर्शकों का समर्थन भी मिले, लेकिन उसके लिए ऐसी फिल्मों का थिएटर
में आना जरूरी है. यहीं समस्या बड़ी हो जाती है. झारखंड समेत उत्तर भारत के सभी
राज्यों में हिंदी फिल्मों का प्रचार और प्रभाव बहुत ज्यादा है. वितरकों और प्रदर्शको
का तंत्र लाभ के लिए इन फिल्मों के वितरण और प्रदर्शन में अधिक रूचि नहीं लेता. वे
ऐसी फिल्मों को प्रश्रय नहीं देते. अगर ‘धुमकुडिया’ रिलीज भी हो जाती है तो उसका
मुकाबला उसी हफ्ते रिलीज हुई हिंदी और हॉलीवुड की फिल्मों से होगा. ऐसी स्थिति में
दर्शकों के अनुकूल शोटाइम का मिल पाना मुमकिन नहीं है. अगर प्रदेशों की सरकारें
महाराष्ट्र की तरह राज्य की भाषाओं के समर्थन में खड़ी हों और उन्हें प्राइम टाइम
में शो देना सुनिश्चित करवाएं, तभी ऐसी फिल्मों को थिएटर और दर्शक मिल पाएंगे.
हिंदी प्रदेशों में इलाकाई और भाषा की फिल्मों का निर्माण की
सक्रियता नहीं दिखाई दे रही है. सच्चाई यह है कि इलाकाई फिल्मों की सक्रियता से ही
स्थानीय भाषाओं और संस्कृतियों को सिनेमाई अभिव्यक्ति मिलेगी. विविधता से पूर्ण
देश में भाषा और संस्कृति के विकास में सिनेमा का बड़ा योगदान हो सकता है. सरकारें
इनका महत्व समझ कर पहल और हस्तक्षेप करें तो निश्चित ही इलाकाई फिल्मों के निर्माण
में तेजी आएगी. हालांकि झारखंड में एक फिल्म नीति बनी है, जिसके तहत आर्थिक सहयोग
का प्रावधान है. रोचक तथ्य है कि प्रावधान का लाभ स्थानीय प्रतिभाएं कम ले पाती हैं.
इसका लाभ भी महेश भट्ट और अनुपम खेर जैसे फिल्मकार और कलाकार हथिया लेते हैं.
धूम कुरिया के साथ नंदलाल नायक ने दमदार दस्तक दी है अब इसे सरकार
और दर्शक दर्शकों का सहयोग मिले तो बात आगे बढ़े हां नंदलाल नायक इस मुंह में से
बचना होगा कि वह इसे अखिल भारतीय स्तर पर रिलीज कर या फेस्टिवल में दिखाकर
कारोबारी प्रतिष्ठा अर्जित कर लेंगे उन्हें अपने समुदाय के बीच इस फिल्म को लेकर
जाना चाहिए तभी इलाकाई सिनेमा को सार्थकता मिलेगीज़
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