सिनेमालोक : कंगना से ताज़ा टकराव के बाद
सिनेमालोक
कंगना से ताज़ा टकराव के बाद
पिछले दिनों कंगना रनोट की एक फिल्म के सोंग
लॉन्च के इवेंट में एक पत्रकार से उनकी तू तू मैं मैं हो गई. बात उलाहने से शुरू
हुई और फिर फिसलती गई. लगभग 8 मिनट की इस बाताबाती
में कंगना रनोट का अहम और अहंकार उभर कर आया. पत्रकार लगातार उनकी बातों से इंकार
करता रहा. बाद में कंगना रनोट के समर्थकों और उनकी बहन रंगोली चंदेल ने उक्त
पत्रकार के पुराने ट्वीट के स्क्रीनशॉट दिख कर यह साबित करने की कोशिश की कि वह
लगातार उनके खिलाफ लिखता रहा है. उनकी गतिविधियों का मखौल उड़ाता रहा है. हालाँकि
इस आरोपण में दम नहीं है.
फिलहाल फिल्म पत्रकारिता का जो स्वरूप उभरकर आया है, उसमें फिल्म
बिरादरी के सदस्यों से सार्थक और स्वस्थ बातचीत नहीं हो पाती, पत्रकारों की संख्या
बढ़ गई है, इसलिए फिल्म स्टार के इंटरव्यू और बातचीत का अंदाज और तरीका भी बदल गया
है. पहले बमुश्किल एक दर्जन फिल्म पत्रकार होते थे. उनसे फिल्म कलाकार की अकेली और
फुर्सत की बातचीत होती थी. लिखने के लिए कुछ पत्र पत्रिकाएं थीं. उनमें ज्यादातर
इंटरव्यू, फिल्म की जानकारी और कुछ पन्नों में गॉसिप छपा करते थे, पत्रिकाओं से
अखबारों में आने और फिल्म के रंगीन होने के बाद फिल्म पत्रकारिता में तेजी से
परिवर्तन आया, उधर फिल्म इंडस्ट्री में पीआर (प्रचारक) का जोर बढ़ा. इन सभी के साथ
मीडिया का विस्तार होता रहा. कुछ सालों पहले सोशल मीडिया के आ जाने के बाद तो संयम
और सदाचार के सारे बांध टूट गए. टाइमलाइन की रिपोर्टिंग और कवरेज ने गंभीरता
समाप्त कर दी. यह दोनों तरफ से हुआ. इसके लिए पत्रकार और कलाकार दोनों बराबर के
जिम्मेदार हैं.
कुछ मीडिया संस्थानों से जुड़े फिल्म पत्रकारों की ही क़द्र रह गई
है. बाकी को पीआर और फिर इंडस्ट्री भीड़ से अधिक नहीं समझते. इसकी बड़ी वजह मीडिया
की भेड़चाल ही है. मीडिया की बेताबी और जरूरतों को देखते हुए फिल्म कलाकारों के पीआर
ने अंकुश लगाने के साथ शर्तें लड़नी शुरू कर दी हैं. स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि
पिछले दिनों एक लोकप्रिय स्टार का इंटरव्यू का वॉइस मेल सभी पत्रकारों को भेज दिया
गया. बताया गया स्टार को फुर्सत नहीं है. पीआर ने तो अपनी सुविधा देखी. ताज्जुब तब
हुआ जब ज्यादातर पत्र-पत्रिकाओं में उसी वॉइस मेल की बातचीत छपी हुई पढ़ने-सुनने
को मिली.
कंगना रनोट अपने वीडियो मैं बोलते समय असंयमित हो गई और उन्होंने
पत्रकारों के बारे में कुछ उटपटांग बातें भी कीं. उन्होंने एक तरफ से सभी को समेट
लिया. जिन्हें ‘मणिकर्णिका’ पसंद नहीं आई,उन्हें ‘देशद्रोही’ तक कह डाला. यह कैसा
बचकानापन है. दरअसल, गुस्से में कई बार हम व्यक्ति के साथ उसके परिवार, समूह,
समुदाय और समाज को भी समेट लेते हैं, करना रनोट भूल गईं कि इसी मीडिया में से
अधिकांश ने हमेशा उनकी हिम्मत की दाद दी, उनकी प्रतिभा का बखान किया, दिग्गजों से भिड़ने
के समय उनके साथ रहे. वह अपने उलाहने में उन्हें अलग नहीं कर सकीं. नतीजतन मीडिया
के सक्रिय सदस्य दुखी और नाराज हुए.
फिलहाल गतिरोध बना हुआ है, लेकिन कंगना रनोट अपनी आगामी फिल्म के
प्रचार में जुटी हुई हैं. आनन-फानन में बने संगठन द्वारा लगाई गई पाबंदी के बावजूद
कंगना से मीडिया की बातचीत हो रही है. आज के संदर्भ में किसी फ़िल्म पत्रकार के
लिए यह मुमकिन नहीं है कि वह अपने समूह के आवाहन पर संस्थान के निर्देशों का
उल्लंघन कर सके. पेशेवर पत्रकार के तौर पर यह मुमकिन भी नहीं है.
यह मौका है कि हम सभी फिल्म पत्रकारिता के स्वरूप और ढंग पर विचार
करें. आज की जरूरतों और मांग के अनुसार उस में फेरबदल करें. कलाकारों से हो रही
बातचीत को केवल क्विज और रैपिड फायर के नाम पर लतीफा और छींटाकशी का मंच न बनाएं.
चंद् पत्रकार ही कलाकारों से बातें करते समय फिल्मों पर खुद को केंद्रित करते हैं.
ज्यादातर बातचीत में कलाकारों की प्रतिक्रिया और सफाई रहती है. वे खुलासा कर रहे
होते हैं. कलाकारों से ढंग की बातचीत नहीं हो पाने का सबसे बड़ा कारण बगैर फिल्म
देखे किसी फिल्म पर बातचीत करना है. कलाकार कुछ बताना नहीं चाहते और पत्रकारों के
पास भेदी सवाल नहीं होते. विदेशों की तरह फिल्म दिखा कर बातचीत की जाए तो उससे
फिल्म इंडस्ट्री, मीडिया संस्थान और दर्शक सभी का भला होगा.
Comments
मेरे ख्याल से अगर दोनों ही पक्ष प्रोफेशनल की तरह काम करें तो अच्छा होगा। व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता रहा है कि हम लोग अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को कुछ ज्यादा ही महत्व देते रहे हैं। उनके ऐसे बर्ताव करने के पीछे यह जरूरत से ज्यादा महत्व भी एक कारण हो सकता है।