सिनेमालोक : खुश्बू हैं निदा फाजली
खुश्बू हैं निदा फाजली
-अजय ब्रह्मात्मज
अपनी फिल्म पत्रकारिता में कुछ अफ़सोस रह ही
जायेंगे.उनका निदान या समाधान नहीं हो सकता.उसे सुधारा ही नहीं जा सकता. एक समय था
कि लगभग हर हफ्ते निदा साहब से मुलाक़ात होती थी.मुंबई के खार डांडा की अम्रर
बिल्डिंग के पहले माले के उनके फ्लैट का दरवाज़ा सभी पत्रकारों और साहित्यकारों के
लिए खुला रहता था. मुझे अफ़सोस है कि उनके जीते जी मैंने कभी उनसे उनके फ़िल्मी
करियर के बारे में विस्तृत बातचीत क्यों नहीं की? या कभी उन पर लिखने का ख्याल
क्यों नहीं आया? शायद करीबी और पहुँच में रहने वली हतियों के प्रति यह नाइंसाफी इस
सनक में हो जाती है कि उनसे तो कभी भी बात कर लेंगे. फ्रीलांसिंग के दिनों में
किसी संपादक या प्रभारी ने उन पर कुछ लिखने के लिए भी नहीं कहा.
बहरहाल,पिछले दिनों उनकी पत्नी मालती जोशी और
मित्र हरीश पाठक के निमंत्रण पर निदा फाजली पर कुछ पढने और बोलने का मौका मिला.मुझे
केवल उनके फ़िल्मी पक्ष पर बोलना था...बतौर गीतकार.पता चला कि उन्होंने फिल्मों के
लिए 348 गीत लिखे. निदा साहब ग्वालियर के मोल निवासी थे,जहाँ उनका परिवार कश्मीर
से आकर बसा था. कह्श्मिर के अपने गाँव फाज़िला से उन्होंने अपना सरनेम फाजली चुना
था.उनका असली नाम मुक्तदा हसन थे.बचपन से उन्हें साहित्य का शौक़ रहा.कहते हैं कि
सातवें दशक में जब उनका परिवार पाकिस्तान शिफ्ट कर रहा था तो उन्होंने भारत में ही
रहने का फैसला किया. वे अपनी जड़ों से नहीं कटना चाहते थे. भारतीय संस्कृति और गंगा
जमुनी तहजीब में उनका अटूट भरोस था. वे उससे कभी नहीं डिगे. हिंदू धर्म,दर्शन और मिथकों
से वे खूब परिचित थे.अपनी शायरी और लेखन में उन्होंने इनका इस्तेमाल भी
किया.कठमुल्ला मौलवियों और इस्लामिक कट्टरता से उन्हें नफरत थी. उन्होंने बेहिचक
चोट की और फतवे भी बर्दाश्त किये.
फिल्मों की तरफ उनका रुझान था,लेकिन मुंबई आने के
बाद पत्र-पत्रिकाओं के आरंभिक लेखन और मुशायरों के दिनों में उन्होंने साहिर
लुधियानवी.कैफ़ी आज़मी और सरदार जाफरी को बेबाक टिप्पणियों से नाराज़ कर दिया था.जवान
और आक्रामक निदा को लगता था कि क्रातिकारी शायरों की शायरी और ज़िन्दगी में फर्क और
ढोंग है. वे बातें तो गरीबों की करते हैं,लेकिन खुद सुविधा संपन्न इमारतों और
अपार्टमेंट में रहते हैं. साहिर साहेब को निदा इतने खटके कि उन्होंने उन मुशायरों
में जाने से मन कर दिया,जहाँ निदा को भी बुलाया जाता था.मजबूरन निदा का बहिष्कार
हुआ. इस हालत में उनके एक ही हमदर्द थे जां निसार अख्तर...उनसे ग्वालियर का परिचय
था. फिर ऐसा संयोग भी बना कि कमल अम्तोही की फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ में वे उनके
उत्तराधिकारी बने.फिल्म के निर्माण के दौरान उनकी मौत हुई. दो गीत लिखे जाने बाकी
थे. कमल अमरोही चाहते थे कि कोई ‘मुक़म्मल’ शायर ही गीत लिखे. निदा को मौका मिला और
उन्होंने लिखा ‘तेरा हिज्र मेरा नसीब है’.फिल्म रिलीज होने के पहले ही निदा को
फ़िल्में मिलने लगीं. जिनको कमल अमरोही ने चुना हो.उनमें खास बात तो होगी.
निदा फाजली 1964-65 में मुंबई आ गए थे. फिल्मों
में पहला मौका १९७९ में मिला.शायद पहले उनका इरादा न रहा हो कि फिल्मों के लिए गीत
लिखे जायें.निदा हिंदी फिल्मों के ऐसे आखिरी गीतकार हैं,जो उर्दू अदब में भी बड़ा
मुकाम रखते हैं.उनके बाद कोई ऐसा गीतकार नहीं दीखता,जो मकबूल शायर भी हो.तो 1979
में प्रख्यात स्तंभकार जयप्रकाश चोव्क्से ने ‘शायद’ की कहानी लिखी. मदन बावरिया
निर्देशित इस फिल्म के तीनों गीतकार मध्यप्रदेश के थे.विट्ठल भाई पटेल.दुष्यंत
कुमत त्यागी और निदा फाजली. इस फिल्के लिए निदा फाजली ने दो गीत लिखे...’खुश्बू
हूँ मैं फूल नहीं हू जो मुरझाऊंगा’ और ‘दिन भर धुप का पर्वत कटा,शाम को पीने निकले
हम,जिन गलियों में मौत बिछी थी,उनमें पीने निकले हम’... दूसरा गीत फिल्म की थीम को
धयन में रख कर लिखा गया था. उन्होंने आरके की फिल्म ‘बीवी ऑ बीवी’ के गीत लिखे थे.
राज कपूर से उनकी मुलाक़ात का किस्सा फिर कभी. अभि तो इतना ही कि निदा साहेब के गीत
सुनिए और पढ़िए.उनकी खुश्बू से सुंगधित होइए,
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