सिनेमालोक : अपनी कथाभूमि से बेदखल होते फिल्मकार

सिनेमालोक 
अपनी कथाभूमि से बेदखल होते फिल्मकार 
- अजय ब्रह्मात्मज
पिछले हफ्ते एक युवा फिल्मकार का फ़ोन आया. उनकी आवाज़ में बदहवासी थी.थोड़े घबर्सये हुए लग रहे थे. फोन पर उनकी तेज़ चलती सांस की सायं-सायं भी सुनाई पड़ रही थी.मैंने पूछा,जी बताएं, क्या हाल हैं? मन ही मन मना रहा  था कि कोई बुरी खबर न सुनाएं. उन्होंने जो बताया,वह बुरी खबर तो नहीं थी,लेकिन एक बड़ी चिंता ज़रूर थी.यह पहले भी होता रहा है.हर पीढ़ी में सामने चुनौती आती ही. उन्हें अभी एहसास हुआ. उनके जैसे और भी फिल्मकार होंगे,जो खुद को विवश और असहाय महसूस कर रहे होंगे. उन्होंने बताया कि सुविधा सम्पन्न फिल्मकार उनकी कहानियों और किरदारों को हथिया रहे हैं. उन पर काबिज हो रहे हैं. युवा फिल्मकार 'गली बॉय' देख कर लौटे थे. उनकी प्रतिक्रिया और चिंता थी कि सफल और सम्पन्न फिल्मकार उनका हक छीन रहे हैं. उन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल कर रहे हैं.

हिंदी फिल्मों में यह सिलसिला सालों से चला आ रहा है. युवा और प्रयोगशील फिल्मकार कंटेंट और क्राफ्ट में नए-नए प्रयोग करते रहते हैं. उनकी सफलता-असफलता चलती रहती है. दशकों से हम यह देखते आ रहे हैं कि प्रयोगशील फिल्मकारों के प्रयोग और खोज को व्यवसायिक फिल्मों के फिल्मकार देर-सवेर अपना लेते हैं. पैरेलल सिनेमा के दौर में यह खूब देखने को मिला। उन दिनों ऐसे फिल्मकारों को आर्ट सिनेमा के फिल्मकार के तौर पर अलग कोष्ठक में रखा गया। मेनस्ट्रीम पॉपुलर मीडिया ने उन्हें खास बता कर हाशिए पर डाल दिया. ताया गया कि आर्ट सिनेमा आम दर्शकों के लिए नहीं होता है. आर्ट सिनेमा में दृश्य धीमी गति से आगे बढ़ते हैं, क्लोज अप देर तक टिका रहता है और संवाद कानाफूसी के अंदाज में बोले जाते हैं. उसकी खूबियों को कमियों के तौर पर प्रचारित किया गया. दरअसल, कथित आर्ट सिनेमा में दृश्यबंध की अलग प्रविधि अपनाई जाती हैं. वहां मनोरंजन के नाम पर दर्शकों को खुश करने की हड़बड़ी नहीं रहती. 

वास्तव में मनोरंजन और कमाई के दबाव ने हिंदी सिनेमा का बेड़ा गर्क किया है. अभी तो यह हालत हो गई है कि मनोरंजन के नाम पर हंसी का कूड़ा फैलाया जा रहा है. व्हाट्सएप लतीफों के इस हास्यास्पद दौर में तनावग्रस्त दर्शक इस कूड़े की बदबू नहीं महसूस कर पा रहे हैं. उन्हें पता भी नहीं चल रहा है कि मनोरंजन के नाम पर वे किस संक्रामक रोग के शिकार हो रहे हैं? फिल्मों का प्रचार तंत्र स्तरहीन मनोरंजन को श्रेष्ठ बता कर परोहैस रहा है. अफसोस की बात है कि इस कुचक्र में हिंदी फिल्मों की अनुभवी प्रतिभाएं संलग्न हैं.उन्हें मनोरंजन का काठ मार गया है.उम्र बढ़ने की साथ उनकी समझ और संवेदना कुंद हो गई है. हाल की एक सफल लेकिन फ़ूहड़ फिल्म के निर्देशक और कलाकार ५० की उम्र पार कर चुके हैं और उनकी सामूहिक कोशिश देख लें.

इस वास्तविकता से अलग भी एक स्थिति है. इसी स्थिति से चिंतित हैं हमारे युवा फिल्मकार. ऐसे फिल्मकार जिन्होंने हिंदी फिल्मों में नई भावभूमि और कथाभूमि प्रस्तुत की. नए किरदार लेकर लाए. सीमित बजट में उन्होंने रियलिस्टिक फिल्म बनाने की कोशिश की. इनमें से कुछ सफल रहे. उनकी फिल्मों की सफलता ने मेनस्ट्रीम फिल्मों के निर्देशकों को चौंकाया. मेनस्ट्रीम के फिल्मकारों ने ऐसे प्रतिरोधी युवा फिल्मकारों को अपनी पंगत में बिठाया. उनसे नए किरदारों और और कहानियों की बारीकियां सीखीं. कई बार देखने और समझने का नजरिया भी सीखा. और फिर धीरे से उन किरदारों और कहानियों को अपनी फिल्मों में ले आए. प्रेरणा कहीं से भी नहीं जा सकती है और प्रभाव भी ग्रहण किया जा सकता है. समस्या तब होती है, जब मेनस्ट्रीम के संपन्न फिल्मकार असीमित बजट में लोकप्रिय कलाकारों के साथ प्रयोगशील फिल्मकारों की कथा भूमि पर खेलने लगते हैं. इस खेल का व्यापक प्रचार और प्रसार होता है. कहा जाता है कि मेनस्ट्रीम के फिल्मकार ने निम्न तबके के किरदारों को समझा और पेश किया है. सच्चाई यह होती है कि यह उनके लिए एक मुनाफे का प्रयोग होता है. इसमें उन्हें नाम और दाम दोनों मिल जाता है.दूसरी तरफ प्रयोगशील फिल्मकार अपनी ही जमीन से बेदखल हो कर नई जमीन की तलाश में फिर से संघर्ष करता है.
इस व्यावसायिक और उपभोक्तावादी दौर में युवा फिल्मकार की चिंता बेवजह की शिकायत लग सकती है. कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि ऐसी रुदाली से कोई फर्क नहीं पड़ता. दर्शक तो सिनेमा देखना चाहता है और अगर उसे चमकदार आवरण में मनोरंजन मिल रहा है तो वह क्यों अनगढ़ और सस्ती फिल्मों की तरफ नजर करे. हिंदी फिल्मों में आ रहे युवा फिल्मकारों की नई पीढ़ियां फिर से खुद के लिए कहानी किरदार और कथाभूमि खोजती हैं. और फिर से स्थापित फिल्मकार उस कथाभूमि को हथिया लेते हैं. कथाबीज में ही फेरबदल कर वे अपनी फिल्म रोपते हैं और कामयाबी की फसल उगाते हैं। नाम और पुरस्कार बटोर लेते हैं. प्रयोगशील फिल्मकार उन्हें गुस्से में निहारते और कूढ़ते रहते हैं. चिंतित भटकते फिरते हैं।

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