सिनेमालोक : क्यों मौन हैं महारथी?
सिनेमाहौल
क्यों मौन हैं महारथी?
-अजय ब्रह्मात्मज
सोशल मीडिया के प्रसार और प्रभाव के इस दौर में
किसी भी फिल्म की रिलीज के मौके पर फ़िल्मी महारथियों की हास्यास्पद सक्रियता देखते
ही बनती है?हर कोई आ रही फिल्म देखने के लिए मर रहा होता है.यह अंग्रेजी एक्सप्रेशन
है...डाईंग तो वाच.हिंदी के पाठक पूछ सकते हैं कि मर ही जाओगे तो फिल्म कैसे
देखोगे?बहरहाल,फिल्म के फर्स्ट लुक से लेकर उसके रिलीज होने तक फिल्म बिरादरी के
महारथी अपने खेमे की फिल्मों की तारीफ और सराहना में कोई कसार नहीं छोड़ते
हैं.प्रचार का यह अप्रत्यक्ष तरीका निश्चित ही आम दर्शकों को प्रभावित करता है.यह
सीधा इंडोर्समेंट है,जो सामान्य रूप से गलत नहीं है.लेकिन जब फिल्म रिलीज होती है
और दर्शक किसी महारथी की तारीफ के झांसे में आकर थिएटर जाता है और निराश होकर
लौटता है तो उसे कोफ़्त होती है.फिर भी वह
अगली फिल्म के समय धोखा खाता है.
इसके विपरीत कुछ फिल्मों की रिलीज के समय गहरी
ख़ामोशी छा जाती है.महारथी मौन धारण कर लेते हैं.वे नज़रअंदाज करते हैं.महसूस होने
के बावजूद स्वीकार नहीं करते कि सामने वाले का भी कोई वजूद है.ऐसा बहार से आई
प्रतिभाओं के साथ होता है.उन्हें अपनी फिल्मों के लिए दोगुनी मेहनत करनी पड़ती
है.ताज़ा उदहारण ‘मणिकर्णिका’ का है.कंगना रनोट की इस फिल्म के प्रति भयंकर भयंकर
उदासी अपनाई गयी है.रिलीज के बाद दर्शकों ने इस फिल्म को स्वीकार किया है.रिलीज के
बाद के विवादों के बावजूद इस फिल्म का कारोबार औसत से बेहतर रहा है.लेकिन महारथी
और ट्रेड पंडित भी ‘मणिकर्णिका’ की कामयाबी को लेकर सहज नहीं दिख रहे है.महारानी
लक्ष्मीबाई के जीवन,निरूपण और चित्रण को लेकर असहमति हो सकती है.मुझे खुद लगा कि
इस फिल्म में व्यर्थ ही हिन्दू राष्ट्रवाद को तरजीह देने के साथ प्रचारित किया गया
है.अंतिम दृश्य में महारानी लक्ष्मीबाई का ॐ में तब्दील हो जाना सिनेमाई ज्यादती
है.फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कंगना रनोट ने इस फिल्म को
अधिकांश दर्शकों की पसंद बना दिया है.उनका अभिनय प्रभावपूर्ण है.फिल्म के कारोबार
को स्वीकार करने के साथ कंगना रनोट के योगदान की भी तारीफ होनी चाहिए थी.कंगना
अपनी पीढ़ी की चंद अभिनेत्रियों में से एक हैं,जो नारी प्रधान फिल्म को प्रचलित
फिल्मों के समकक्ष लेकर आई हैं.
कंगना रनोट की ‘मणिकर्णिका’ के बारे में अभी तक
सोशल मीडिया पर फिल्म बिरादरी के महाराथियीं की हलचल नहीं दिख रही है.करण जौहर से
लेकर अमिताभ बच्चन तक चुप हैं.अमिताभ बच्चन तो हर नए-पुराने कलाकार की तारीफ़ करते
नहीं चूकते.हस्तलिखित प्रशंसापत्र और गुलदस्ता भेजते हैं.हो सकता है कि उन्होंने
फिल्म नहीं देखी हो,लेकिन...करण ज़ोहर और कंगना रनोट का वैमनस्य हम सभी जानते
है.उनके ही शो में कंगना ने उन्हें बेनकाब कर दिया था.उसके बाद से मुद्दे को लतीफा
बना कर हल्का करने में करण जौहर सबसे आगे रहते हैं.उनके गिरोह ने एक अवार्ड शो में
खुलेआम नेपोटिज्म का मजाक उड़ाया और बाद में माफ़ी मांगी.गौर करें तो यह नेपोटिज्म का दूसरा
पक्ष और पहलू है,जब आप खुद के परिचितों और मित्रों के दायरे के बाहर की प्रतिभाओं
की मौजूदगी और कामयाबी को इग्नोर करते हैं.अब तो कंगना ने नाम लेकर कहना शुरू कर
दिया है.ताज्जुब यह है कि इसके बावजूद महारथियों के कान पर जूं नहीं रेंग रही है.
महारथियों का मौन भी दर्ज हो रहा है.हिंदी फिल्म
इंडस्ट्री में भाई-भतीजावाद,खेमेबाजी,लॉबिंग जैम कर चलती रही है.बार-बार एक परिवार
होने का दावा करने वाली फिल्म इंडस्ट्री वास्तव में एक ही हवेली के अलग-अलग कमरों
में बंद है.और वे चुन-चुन कर दूसरों के कमरों में जाते हैं या अपने कमरे में
उन्हें बुलाते हैं.हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की बैठकी में सभी(खास कर बाहरी
प्रतिभाओं) के लिए आसन नहीं होता.हाँ,अनुराग कश्यप जैसा कोई पालथी मार कर बैठ जाये
तो उसे कुर्सी दे दी जाती है.
Comments
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'