सिनेमालोक : शहरी दर्शकों के लिए बन रहा है सिनेमा
सिनेमालोक
शहरी दर्शकों के लिए बन रहा है सिनेमा
-अजय ब्रह्मात्मज
याद करें कि ग्रामीण पृष्ठभूमि की आखिरी फिल्म
कौन सी देखी थी? मैं यह नहीं पूछ रहा हूँ कि किस आखिरी फिल्म में धोती-कमीज और
साडी पहने किरदार दिखे थे.बैलगाड़ी,तांगा और सायकिल भी गायब हो चुके हैं.कुआं,रहट,चौपाल,खेत-खलिहान
आदी की ज़रुरत ही नहीं पड़ती.कभी किसी आइटम सोंग में हो सकता है कि यह सब या इनमें
से कुछ दिख जाये.तात्पर्य यह कि फिल्म की आवश्यक प्रोपर्टी या पृष्ठभूमि में इनका
इस्तेमाल नहीं होता.अब ऐसी कहानियां ही नहीं बनतीं और कैमरे को ग्रामीण परिवेश में
जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती.धीरे-धीरे सब कुछ शहरों में सिमट रहा है.किरदार,परिवेश और
भाषा शहरी हो रही है.
दरअसल,फ़िल्में शहरी दर्शकों के लिए बन रही
हैं.हिंदी फ़िल्में कहने को पूरे भारत में रिलीज होती हैं,लेकिन हम जानते है कि
दक्षिण भारत में हिंदी फिल्मों की मौजूदगी टोकन मात्र ही होती है.तमिल और तेलुगू
फिल्म इंडस्ट्री हिंदी के समकक्ष खड़ी है.कन्नड़ और मलयालम के अपने दर्शक
हैं.कर्णाटक में हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन पर हदबंदी रहती है.दक्षिण के राज्य
अपनी भाषा की फिल्मों के लिए संवेदनशील हैं.उन्होंने प्रदेश की भाषाओँ की फिल्मों
के प्राइम प्रदर्शन की अनिवार्यता सख्त कर दी है.महाराष्ट्र में मराठी फिल्मों का
सुनिश्चित प्रदर्शन होता है.
पिछले पांच-दस सालों में मल्टीप्लेक्स की संख्या
बढ़ी है और सिंगल स्क्रीन लगातार कम हुए हैं.जिन शहरों और कस्बों के सिंगल स्क्रीन
टूट या बंद हो रहे हैं,उन शहरों में उनके स्थान पर मल्टीप्लेक्स नहीं आ पा रहे
हैं.कुछ राज्यों में सरकारें कर में छूट और अन्य सुविधाएँ भी दे रही हैं,लेकिन
सिनेमाघरों के बंद होने और खुलने का अनुपात संतुलित नहीं है.स्थिति बद से बदतर होती जा रही है.अपने बचपन के सिनेमाघरों को
याद करें तो अब वे केवल आप की यादों में ही आबाद हैं.ज़मीन पर उनका अस्तित्व नहीं
रह गया है.इलाहांबाद,माफ़ करें प्रयागराज के मेरे फिल्म इतिहासकार मित्र अपने शहर
के बंद हुए सिनेमाघरों की मर्मान्तक कथा लिख रहे हैं.यह जानना और समझना रोचक होगा
कि कैसे और क्यों सिनेमाघर हमारे दायरे से निकल गए?
देश की सामाजिक संरचना तेज़ी से बदली है.शिक्षा के
प्रसार और आवागमन की सुविधा बढ़ने हिंदी प्रदेशों के युवा राजधानियों और बड़े शहरों
की तरफ भाग रहे हैं.अच्छी पढाई और नौकरी की तलाश में शहरों में युवा जमघट बढ़ रहा
है.थोड़ी और अच्छी व ऊंची पढाई और फिर उसी के अनुकूल नौकरी के लिए हिंदी प्रदेशों
के युवा मेट्रो शहरों को चुन रहे हैं.हिंदी फिल्मों के मुख्य दर्शक यही युवा
हैं.पूरे बाज़ार का मुख्य ग्राहक युवा ही है और वही हिंदी फिल्मों का दर्शक है.कभी
सर्वेक्षण होना चाहिए कि हिंदी फिल्मों के दर्शकों का प्रोफाइल कितना बदल चुका
है.दर्शक फ़िल्में तो देख रहे हैं,लेकिन उनके प्लेटफार्म और माध्यम बदल चुके
हैं.फिल्म देखने की वैकल्पिक सुविधा और किफ़ायत से सिनेमाघर में जाकर फिल्म
देखनेवाले शहरी दर्शकों की संख्या घटी है.गंवाई और कस्बाई दर्शकों की हद में
सिनेमाघर ही नहीं हैं,उनसे यह उम्मीद करना ज्यादती होगी कि फिल्म देखने के लिए वे
पास के शहरों में जायेंगे.
मेट्रो शहरों और प्रदेश की राजधानियों में
सिनेमाघर और दर्शक सिमट रहे हैं.हिंदी प्रदेशों के हिन्दीभाषी दर्शक अभी तक इस
भ्रम में रहते हैं कि उनकी संख्या की वजह से ही हिंदी फ़िल्में चलती हैं.यह कभी सच
रहा होगा.अभी की सच्चाई यह है कि हिंदी फिल्मों की सर्वाधिक कमाई मुंबई से होती
है.इसके बाद दिल्ली एनसीआर का स्थान है.इधर कुछ सालों में बंगलोर में हिंदी
फिल्मों के दर्शक बढे हैं.इस बढ़त की वजह सभी समझते हैं.आईटी उद्योग ने उत्तर
भारतीय युवा को आकर्षित किया है.उत्तर भारत का अब शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा
,जिसका कम से कम एक सदस्य बंगलौर में कार्यरत न हो. क्या आप जानते हैं कि बंगलौर
फिल्म के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के मामले में मुंबई और दिल्ली के बाद तीसरे नंबर पर आ
चुका है.
Comments
आपने सही कहा ग्रामीण परिवेश की फिल्मे कम आती हैं लेकिन कस्बों की फिल्में ज्यादा आने लगी हैं। पिछले साल तो कस्बाई ज़िन्दगी के चारो ओर बुनी गई कहानियों की झड़ी सी लग गई थी। दर्शक उन्हें पसंद भी करता है। बाकी फिल्म बनाने वाले और लिखने वाले शहरों में पले बढे हैं। उनसे ग्रामीण जीवन के ऊपर फिल्म बनाने की अपेक्षा करना शायद ही ठीक है। अगर वो कोशिश करेंगे भी तो उसमें कृत्रिमता आ जायेगी। उपन्यास और कहानियों से उन्हें कहानी मिल सकती है लेकिन फिल्म इंडस्ट्री के कितने लोग वो पढ़ते हैं? कभी कभी तो हिंदी कलाकारों को देखकर लगता है कि वो हिंदी में काम मजबूरी में कर रहे हैं क्योंकि हिंदी बोलना उन्हें वैसे भी पसंद नहीं होता।