संडे नवजीवन : जीवित पात्रों का जीवंत चित्रण वाया मोहल्ला अस्सी


संडे नवजीवन
जीवित पात्रों का जीवंत चित्रण वाया मोहल्ला अस्सी
अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्मों के इतिहास में साहित्यिक कृत्यों पर फ़िल्में बनती रही हैं.और उन्हें लेकर विवाद भी होते रहे हैं.ज्यादातर प्रसंगों में मूल कृति के लेखक असंतुष रहते हैं.शिकायत रहती है कि फ़िल्मकार ने मूल कृति के साथ न्याय नहीं किया.कृति की आत्मा फ़िल्मी रूपांतरण में कहीं खो गयी.पिछले हफ्ते डॉ. काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी पर आधारित ‘मोहल्ला अस्सी देश के चंद सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई.इस फिल्म के प्रति महानगरों और उत्तर भारत के शहरों की प्रतिक्रियाएं अलग रहीं.यही विभाजन फिल्म के अंग्रेजी और हिंदी समीक्षकों के बीच भी दिखा.अंग्रेजी समीक्षक और महानगरों के दर्शक ‘मोहल्ला अस्सी के मर्म को नहीं समझ सके.फिल्म के मुद्दे उनके लिए इस फिल्म की बनारसी लहजे(गालियों से युक्त) की भाषा दुरूह और गैरज़रूरी रही.पिछले कुछ सालों में हम समाज और फिल्मों में मिश्रित(हिंग्लिश) भाषा के आदी हो गए हैं.इस परिप्रेक्ष्य में ‘मोहल्ला अस्सी में बोली गयी हिंदी को क्लिष्ट कहना लाजिमी है.
रिलीज से दो दिनों पहले डॉ. काशीनाथ सिंह के शहर बनारस में ‘मोहल्ला अस्सी का विशेष शो रखा गया था.फिल्म के निर्माण के समय निर्देशक डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी और लेखक डॉ. काशीनाथ सिंह ने सोचा था कि फिल्म का प्रीमियर बनारस में रखा जायेगा. प्रीमियर में काशी और अस्सी के निवासियों और उपन्यास के पात्रों को आमंत्रित किया जायेगा.ऐसा नहीं हो सका.फिल्म की रिलीज में हुई देरी और निर्माता-निर्देशक के बीच ठनी अन्यमनस्कता से प्रदर्शन के समय जोश और उत्साह नज़र नहीं आया.यह विडंबना ही है कि हिंदी उपन्यास पर बनी हिंदी फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी का कोई पोस्टर हिंदी में नहीं आया.हिंदी दर्शकों तक पहुँचने के लिए हॉलीवुड के निर्माता तक अपनी फिल्मों के पोस्टर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में लेन लगे हैं.बनारस स्थित लेखक डॉ. काशीनाथ सिंह की शिकायत थी कि शहर में फिल्म के प्रचार के लिए ज़रूरी पोस्टर भी दीवारों पर नहीं लगे हैं.यूँ लगा कि रिलीज की रस्म अदायगी भर कर दी गयी.
बहरहाल,बनारस में आयोजित विशेष शो में ‘काशी का अस्सी के लेखक अपने पात्रों और मित्रों-परिचितों के साथ मौजूद रहे.ढाई सौ दर्शकों का स्क्रीन खचाखच भर गया था,क्योंकि पात्र और मित्र अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ आ गए थे.डॉ. काशीनाथ सिंह के लिए यह ख़ुशी का मौका था. वे अपने उपन्यास के पत्रों के साथ फिल्म देख रहे थे. लगभग 20-22 सालों पहले जिन व्यक्तियों के साथ उनका उठाना-बैठा था,जिनसे बहसबाजी होती थी....वे सभी ही अपने संवादों के साथ उपन्यास के पात्र बने.उन पात्रों को डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने खास सोच-समझ से आकार दिया और ‘मोहल्ला अस्सी का चरित्र बना दिया.फिर उन चरित्रों के अनुरूप कलाकारों का चयन किया गया.उन कलाकारों ने निर्देशक के निर्देश और अपनी समझदारी से निभाए जा रहे पात्रों को परदे पर जीवंत किया और उन्हें एक किरदार दिया..व्यक्ति,पात्र,चरित्र,अभिनेता और किरदार की यह प्रक्रिया सृजनात्मक चक्र पूरा कर उन व्यक्तियों के साथ परदे पर चल्तिफिरती नज़र आ रही थी.दर्शकों के बीच पप्पू भी मौजूद थे.वही पप्पू,जिनकी दुकान बनारस के अस्सी के लिए किसी संसद से कम नहीं थी. अंग्रेजी में इसे ‘सररियल’ अनुभव कह सकते हैं.25 सालों की फिल्म पत्रकारिता के करियर में अतीत में कभी ऐसा अनुभव नहीं हुआ,जब परदे के जीवंत किदर जीवित व्यक्ति के रूप में सिनेमाघर में मौजूद हों.इधर उनकी साँसें चल रही हो और उधर रील.रील औए रियल का यह संगम और समागम दुर्लभ अनुभव रहा.’मोहल्ला अस्सी के प्रदर्शन में डॉ.काशीनाथ सिंह,डॉ.गया सिंह,रामजी राय,वीरेंद्र श्रीवास्तव,पप्पू और कुछ दूसरे पात्र(जो फिल्म में नहीं आ पाए) भी आये थे. फिल्म देखने के बाद आह्लादित डॉ. काशीनाथ सिंह की अंतिम पंक्ति थ,’मैं संतुष्ट हूँ.’
प्रदर्शन के बाद की बातचीत में सभी पात्र अपने किरदारों को निभाए कलकारों के अभिनय और संवाद अदायगी की चर्चा मशगूल हुए. डॉ. गया सिंह का मन्ना था की वे पूरा तन कर चलते हैं लाठी की तरह,जबकि उन्हें निभा रहे कलाकार कमर से लचके हुए थे.हां,आवाज़ की ठसक उन्होंने पकड़ ली थी.वीरेंद्र श्रीवास्तव का किरदार राजेंद्र गुप्ता ने निभाया है.वीरेंद्र श्रीवास्तव खुश थे कि राजेंद्र गुप्ता उन्हीं की तरह लहते हैं और उन्होंने बोलने का अंदाज भी सही पकड़ा था.फिल्म में पप्पू की खास भूमिका नहीं थी.वह तो चाय ही बनता रहा,लेकिन प्रदर्शन के दिन वह भी पत्रों में शामिल होकर खुद को उनके समकक्ष महसूस कर रहा था.रवि किशन के भाव,अंदाज और चंठपन से सभी मुग्ध थे कि उन्होंने ने अस्सी के ‘अड़ीबाज’ को आत्मसात कर लिया है.उनके प्रणाम और हर हर महादेव में बनारसी बेलौसपन था.दुर्भाग्य है कि ‘मोहल्ला अस्सी निर्माण और वितरण-प्रदर्शन की आधी-अधूरी रणनीति और असमर्थ हस्तक्षेप की वजह से अपने दर्शकों तक सही संदर्भों के साथ नहीं पहुँच सकी.फिल्मों में चित्रित भारतीय समाज के लिए ‘मोहल्ला अस्सी एक ज़रूरी पाठ के तौर पर देखी और पढ़ी जाएगी.
‘मोहल्ला अस्सी नौ सालों की म्हणत और इंतज़ार का नतीजा है.मुंबई से वाराणसी की एक फ्लाइट में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने उषा गांगुली के नाटक ‘काशीनामा की समीक्षा पढ़ कर इतने प्रभावित हुए कि उसी नाम की किताब खोजने लगे.बाद में पता चला कि वह डॉ. काशीनाथ सिंह का उपन्यास ‘काशी का अस्सी पर आधारित नाटक है.खैर,अपने मित्र और लेखक के परिचित अतुल तिवारी के साथ बनारस जाकर 2009 में उन्होंने उपन्यास के अधिकार लिए.2010 में उन्हें निर्माता विनय तिवारी मिले.2011 में मुंबई शूटिंग आरम्भ हुई और मार्च तक ख़त्म भी हो गयी.निर्माता-निर्देशक के बीच विवाद हुआ.फिल्म की रिलीज खिसकती गयी.2012 में रिलीज करने की योजना पर पानी फिर गया.2015 में पहले अवैध ट्रेलर और फिर फिल्म लीक होकर इन्टरनेट पर आ गयी.फिल्म अटक गयी.उसके बाद सीबीएफसी का लम्बा चक्कर चला.आख़िरकार दिल्ली हाईकोर्ट ने फिल्म की रिलीज की अनुमति दी और साथ ही कहा कि कला माध्यमों में सृजनात्मक अभिवयक्ति की आज़ादी मिलनी चाहिए.
‘काशी का अस्सी उपन्यास के ‘मोहल्ला अस्सी फिल्म के रूप में रूपांतरण की रोचक कथा पर पूरी किताब लिखी जा सकती है.

   



Comments

रोचक। आपने सही कहा जिस तरह से इस फिल्म की यात्रा रही है वह एक रोचक किताब की शक्ल अख्तियार कर सकती है। पढ़ने में मज़ा आयेगा।

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