सिनेमालोक : मुंबई में फिल्मों की फुहार
-अजय ब्रह्मात्मज
मुंबई में इन दिनों फिल्मों की बहार है.खास कर पश्चिमी उपनगर के तीन
मल्टीप्लेक्स में चल रही फिल्मों की फुहार से सिनेप्रेमी भीग रहे हैं. वे सिक्त हो
रहे हैं.देश-विदेश से लायी गयी चुनिन्दा फिम्लें देखने के लिए उमड़ी दर्शकों की भीड़
आश्वस्त करती है कि इन्टरनेट प्रसार के बाद फिल्मों की ऑन लाइन उपलब्धता के बावजूद
दर्शक सिनेमाघरों के स्क्रीन पर फ़िल्में देखना पसंद करते हैं.फेस्टिवल सिनेमा का
सामूहिक उत्सव है.दर्शकों को मौका मिलता है कि वे अपनी रिची और पसंद के मुताबिक
फ़िल्में देखें और सह्दर्शक के साथ उस पर बातचीत करें.ज्यादातर नयी फिल्मों के
निर्माता,निर्देशक और कलाकार फिल्मों के
प्रदर्शन के बाद दर्शकों से मुखातिब होते हैं. वे उनकी जिज्ञासाओं के जवाब देते
हैं.यह सुखद अनुभव होता है.फेस्टिवल के मास्टरक्लास से अंतर्दृष्टि मिलती है और
विमर्शों से सिनेमहौल की दिशा और दृष्टि मिलती है.
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने आज़ादी के बाद देश में
विभिन्न कला माध्यमों के विकास के लिए अनेक संस्थाओं का गठन किया,जिनके तहत कला
चेतना के विकास के लिए गतिविधियाँ आयोजित की गईं.उनमें से एक महत्वपूर्ण गतिविधि
इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन था.1952 में पहला फिल्म फेस्टिवल आयोजित किया
गया था,जिसमें सिर्फ 23 देशों की फ़िल्में आ
सकी थीं.इस साल ख़बरों के अनुसार 100 से अधिक देशों की फ़िल्में प्रदर्शित
होंगीं.पिछले अनेक सालों से यह फेस्टिवल अब गोवा में आयोजित होने लगा है.फिल्म
फेस्टिवल के प्रति सूचना और प्रसारण मंत्रालय की बेरुखी और फिल्म निदेशालय की
नौकरशाही से यह फिल्म फेस्टिवल अपनी गरिमा खो चुका है. देश के दूसरे शहरों में
ज्यादा सुगठित और सुविचारित फिल्म फेस्टिवल हो रहे हैं.दर्शक अपने आसपास के शहरों
के फेस्टिवल में शिरकत कर लेते हैं.देखा यह जा रहा है कि सभी फेस्टिवल में 60 से
70 प्रतिशत फ़िल्में एक सी होती हैं.दुनिया भर से चर्चित 200 फिल्मों से ही सभी काम
चलाते हैं.ऐसी स्थिति में हर फेस्टिवल में जाना ज़रूरी नहीं रह जाता.अब समय आ गया
है कि ये फेस्टिवल सोच-विचार का भिन्नता जाहिर करें.तात्पर्य यह की सभी फेस्टिवल
की अपनी खासियत हो.मुंबई में इस तरह के कुछ आयोजन इधर पॉपुलर हुए हैं.
मुंबई का फिल्म फेस्टिवल मुंबई अकादमी ऑफ़ मूविंग इमेजेज(मामी) के तहत
आयोजित होता है.श्याम बेनेगल के नेतृत्व में इसकी शुरुआत इस उद्देश्य के साथ की
गयी थी कि फिल्म इंडस्ट्री का एक अपना फेस्टिवल हो,जिसमें इंडस्ट्री के कलाकार और तकनीशियन भी शामिल हो सकें.साथ ही
हिंदी फिल्मों की केन्द्रीय नगरी होने की वजह से भी मुंबई में ऐसे फेस्टिवल की
आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी.आरंभिक वर्षों में महराष्ट्र सर्कार ने भी इस
फेस्टिवल की मदद की.फिर अंबानी बंधुओं ने बारी-बारी से इस फेस्टिवल के लिए आवश्यक
धन प्रदान किये.अभी यह फेस्टिवल जियो और स्टार के सहयोग से संचालित हो रहा है.
अनुपमा चोपड़ा और किरण राव के नेत्रित्व में मामी फिल्म फेस्टिवल अधिक
पॉपुलर और व्यापक हुआ है.अनुपमा चोपड़ा फ़िल्मकार विधु विनोद चोपड़ा की पत्नी हैं और
किरण राव फिल्म स्टार आमिर खान की पत्नी हैं.दोनों की पृष्ठभूमि और पहुँच से फिल्म
फेस्टिवल में लोकप्रिय चेहरों की मौजूदगी बढी.आम दर्शक भी खींचे आये.इस साल तो
दर्शकों और डेलिगेट की भागीदारी इतनी ज्यादा हो गयी है कि पहले दिन टिकट बुक करने
की ऑन लाइन व्यवस्था कुछ घंटों के लिए बैठ गयी.बाद में स्थिति सुधरी तो भी दर्शकों
को मनपसंद फ़िल्में चुनने और देखने में भी दिक्कतें हो रही हैं.बढती भीड़ और
भागीदारी को देखते हुए फेस्टिवल के नियंताओं को नयी तरकीब खोजनी पड़ेगी या
मल्टीप्लेक्स की संख्या बढानी पड़ेगी.
सीमाओं और कमियों के बावजूद मामी फिल्म फेस्टिवल देश का अग्रणी फिल्म
फेस्टिवल बन चूका है.यह लोकतान्त्रिक,मुखर और उदार फेस्टिवल है.गोवा का सरकारी
फिल्म फेस्टिवल सरकारी सोच की संकीर्णता का शिकार है.नयी सरकार के नुमाइंदों ने
अपने खेमे के अयोग्य लोगों को ज़िम्मेदारी देकर इस फेस्टिवल का स्वरुप नष्ट कर दिया
है.पिछले साल के आयोजन की कमियां फेस्टिवल के दौरान ही उजागर हो गयी थीं.इस साल
सिनेप्रेमियों का उत्साह नज़र नहीं आ रहा है.
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