मी टू से मची खलबली
मी टू से मची खलबली
अजय ब्रह्मात्मज
भविष्य में भारत के सामाजिक इतिहास में 2018 का अक्टूबर महीना #MeToo अभियान के लिए याद किया जायेगा. मुख्य रूप से
कार्यस्थल पर यौन शोषण और उत्पीडन की शिकायतों को समेटते इस अभियान को पहले सोशल
मीडिया और फिर ट्रेडिशनल मीडिया से भरपूर समर्थन मिला.सोशल मीडिया पर इससे संबंधित
हर अपडेट को पात्र-पत्रिकाओं ने सुर्ख़ियों में छापा.ज्यादा तफसील और तहकीकात की
कोशिश नहीं की गयी.हाँ,हर नए उद्घाटन के साथ सार्वजानिक
शर्मिंदगी ज़रूर हुई.कुछ मामलों में आरोपियों को उनकी तात्कालिक ज़िम्मेदारी और
कार्य से अलग कर दिया गया.कुछ शिकायतों की जांच चल रही है.कयास लगाये जा रहे हैं
कि जल्दी ही कोई फैसला लिया जायेगा.आरोप और इंकार के गुंफित महौल अभी स्पष्टता
नहीं है कि न्यायालय भारतीय दंड संहिता की किस धारा में इन मामलों का निबटान
करे.महिला और बाल विकास मंत्रालय ने अवश्य कुछ सालों पहले 2013 में ‘महिलाओं का
कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीडन (निवारण,प्रतिषेध
और प्रतितोष) अधिनयम ‘ जरी किया था. इस अधिनियम के मुताबिक सभी कार्यस्थलों पर
लैंगिक उत्पीडन की शिकायतों को सुलझाने के लिए आतंरिक समिति के गठन की अनिवार्यता
तय की गयी थी.इस साल जब कुछ शिकायतें प्रकाश में आईं तो पता चला कि हिंदी फिल्म
इंडस्ट्री की चंद कंपनियों ने ही इसका पालन किया था.
इसी महीने ज़ूम को दिए एक वीडियो इंटरव्यू में तनुश्री दत्ता ने बताया
कि ‘हॉर्न ओके प्लीज’ के सेट पर एक डांस सीक्वेंस की शूटिंग
के समय नाना पाटेकर ने उनके साथ बदतमीजी की. तनुश्री ने जब सेट पर मौजूद निर्माता
सामी सिद्दीकी,निर्देशक राकेश सारंग और कोरियोग्राफर
से इसका ज़िक्र किया और नाना को सेट से हटाने की मांग की तो उन्होंने तनुश्री की
मांग नहीं सुनी.मजबूरन तनुश्री को सेट छोड़ कर जाना पड़ा.तनुश्री ने पुलिस में
शिकायत दर्ज की तो एफ़आईआर में बदतमीजी(यौन उत्पीडन) का उल्लेख नहीं किया गया. 2008
में यह मामला दब गया.प्रतिकूल स्थितियों में तनुश्री को फिल्म इंडस्ट्री छोडनी
पड़ी. 10 सालों के बाद तनुश्री ने इस मामले को फिर से उठाया तो पहले कोई खास
सुगबुगाहट नहीं दिखी,लेकी इस बार सोशल मीडिया और कुछ
सितारों ने तनुश्री से हमदर्दी दिखाई.उन्होंने तनुश्री की शिकायतों पर गौर करने की
अपील की.इसी समय फैंटम के एक निदेशक विकास बहल के मामला प्रकाशित हुआ.उन्होंने
फैंटम की फिल्म ‘बॉम्बे वेलवेट’ के
गोवा इवेंट के समय एक महिला सहयोगी के साथ बदतमीजी की थी.एक वेब पोर्टल में आई
विस्तृत रिपोर्ट के बाद आनन्-फानन में फैंटम का विलयन हो गया और विकास बहल सवालों
के घेरे में आ गए.इन दोनों मामलों की ख़बरों और चर्चा के साथ ही आमिर खान का बयां
आया कि वे निर्माणाधीन फिल्म ‘मुग़ल’ से
खुद को अलग कर रहे हैं.फिल्म के निर्देशक पर यौन उत्पीडन का आरोप है,जो अभी न्यायालय के अधीन है.इसके बाद तो झड़ी लग
गयी.हर दिन किसी न किसी पुरुष सेलिब्रिटी पर अभियोग और आरोप लगा.मीडिया ने खबरें
छापीं.तत्काल प्रभाव से संबंधित व्यक्ति की छवि धूमिल हुई और उसे सार्वजानिक
शर्मिदगी से गुजरना पड़ा.अभी तक दर्जन से अधिक नामों पर आरोप लग चुके हैं.ज्यादातर
आरोपियों ने खुद को दोषमुक्त कहा है.कुछ ही मामलों में जांच या कारर्वाई हो पाई
है.बाकी सारे मामले हवा में तैर रहे हैं.सभी चुस्की लेकर उन्हें सुना-बता रहे हैं.निदान
या समाधान की किसी को चिंता नहीं है.मी टू विवादों में जिनके नाम आ गए हैं,वे अपनी सामाजिक छवि और शोहरत के साथ भविष्य के
काम को लेकर थोड़े चिंतित ज़रूर हैं.यूँ लग रहा है कि उनका सामाजिक बहिष्कार हो चुका
है.एक तबका यह भी पूछ रहा है कि आरोप साबित हो जाने पर क्या सजा होगी और फिर सजा
काट लेने के बाद पुनर्वसन कैसे होगी?ढेर
सारे प्रश्न अनुत्तरित हैं.
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री समेत भारतीय समाज की बात करें तो सभी जानते
हैं कि पितृसत्तात्मक अर्धसामंती और अविकसित पूंजीवादी मूल्यों से संचालित भारतीय
समाज में स्त्री-पुरूष को सामान अधिकार नहीं मिले हुए हैं.घर,समाज और कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ अन्याय
होता है.उनका शोषण एक स्थापित तथ्य और सत्य है.भारतीय संविधान के तहत समानता के
अधिकार के आश्वासन के बावजूद महिलाओं को अवसर,पारिश्रमिक
और अधिकारों के लिए जूझना पड़ता है.व्यवहारिक तौर पर उन्हें दोयम दर्जे का समझा
जाता है.हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की बात करें तो चमक और ग्लैमर के बावजूद कमरे के
आगे-पीछे काम करने वाली महिलाओं की अच्छी स्थिति नहीं है.पहले तो उन्हें मौके ही
नहीं मिलते थे.एक अभिनय के अलावा किसी और विभाग के लिए उन्हें काबिल नहीं समझा
जाता था.फिल्मों की शुरूआत के दिनों में महिलाएं अभिनय के लिए भी नहीं मिल पाती
थीं.दादा साहेब फाल्के ने तो मजबूरी में महिला चरित्रों के लिए भी पुरूष अभिनेताओं
को ही चुना.बाद में कोठेवालियों.रेड लाइट एरिया के सेक्स वर्करों और एंग्लो-इंडियन
परिवारों की महिलाओं को आकृष्ट किया गया.धीरे-धीरे पहले मुस्लिम और फिर हिन्दू
परिवारों की लड़कियों ने फिल्मों में कदम रखा.फिल्मों में उनके चुनाव(कास्टिंग की
प्रक्रिया) को लेकर किस्से बताये जाते रहे हैं.आज भी कास्टिंग काउच अहम् मसला
है.माना जाता है और कुछ हद तक इसमें सच्चाई भी है कि अधिकांश लड़कियों को रोल पाने
के लिए समझौते करने पड़ते हैं.पुरुषों का एक तबका तर्क देता है कि लड़कियों को जबरन
बिस्तर या काउच तक नहीं ले जाया जाता.वे खुद तैयार होती हैं.सवाल है कि वे आखिर
क्यों तैयार होती हैं...उनकी सहमती और स्वीकृति के दबाव और मजबूरी को समझना
होगा.नासमझी में सरोज खान जैसी अनुभवी कोरियोग्राफर तर्क गढ़ लेती हैं कि इन सबके
बावजूद फिल्म इंडस्ट्री के लोग काम तो देते हैं.यह अजीब से संतुष्टि है.समझौतों से
करियर में शीर्ष तक पहुंची महिलाएं इस संतुष्टि भाव से ही ग्लानी से बहार आ जाती
हैं और अपनी समृधि और लोकप्रियता के मज़े लेने लगती हैं.फिल्मों में अभिनेत्रियोंकी
स्थिति की वास्तविकता इस तथ्य से भी समझी जा सकती है कि स्थापित फ़िल्मी हस्तियाँ
अपनी बेटियों को फिल्मों में आने से रोकती और हतोसाहित करती हैं.फ़िल्मी परिवारों
से आई ज्यादातर अभिनेत्रियों की माताओं ने उन्हें सपोर्ट किया है.इस सन्दर्भ में
अनेक अभिनेत्रियों के नाम गिनाये जा सकते हैं.
ताज़ा मी टू अभियान में अभी तक कोई भी बड़ा नाम सामने नहीं आया
है.लोकप्रिय अभिनेता और निर्देशक भी दूध के धुले नहीं हैं.बड़े नामों में एक सुभाष
घई का ज़िक्र आया है.वे सिरे से खुद पर लगे आरोप ख़ारिज कर रहे हैं.कंगना रनोट ने
विकास बहल के बारे में सुविधा देख कर पुरानी बातें बता दिन,उनके साथ शोषण के दूसरे किस्से भी हैं.उनमें
कुछ बड़े नाम भी हो सकते हैं.फ़िलहाल कंगना ने उनका उल्लेख नहीं किया है.निजी बातचीत
में अनेक आउटसाइडर अभिनेत्रियां ऑफ द रिकॉर्ड अनेक निर्देशकों और कास्टिंग
डायरेक्टरों के इशारों और सजेशन के बारे में बताती हैं.वे डरती नहीं हैं,लेकिन अलग-थलग कर दिए जाने और काम न दिए जाने
के खौफ से घबरा जाती हैं.ऐसी अनेक अभिनेत्रियों ने बड़े अवसर छोड़े.वे खुद दूसरी
अभिनेत्रियों की सफलता की सीढ़ियों के तौर पर काम आए अभिनेताओं और निर्देशकों के
नाम तक बेहिचक बता देती हैं.यह भी बताती हैं कि किस अभिनेता ने किस नवोदिता को
क्यों काम दिलवाया? ‘क्यों’ का एक ही अर्थ होता है...सहवास.अभी यह कहा जा रहा कि स्थिति में कुछ
सुधार होगा.लड़कियां इज्ज़त के साथ अभिनेत्रियाँ बन सकेंगी.यह सिर्फ एक उम्मीद भर
है.कहा तो यह भी जा रहा है कि अब लड़कियों के लिए काम और अवसर पाना ‘टफ’ हो जायेगा.
अच्छी बात यह हुई है कि पुरुष डरे हुए हैं.उन्हें डर है कि न जाने कब
उनकी करतूतों का पर्दाफाश हो जाये.उन्हें डर है कि कब उनकी किसी हरकत पर शोर मच
जाये.उन्हें डर है कि पॉवर और पौरुष का प्रभाव ख़त्म हो जायेगा.और लड़कियां जागरूक
हुई हैं.परस्पर ज़रूरतें बनी रहेगीं,लेकिन
कोई जबरन फायदा उठाने या मजबूर करने की कोशिश करेगा तो आवाज़ उठेगी.खलबली सी मची और
हर खलबली यथास्थिति बदल देती है.
यहाँ प्रकाशित हुआ था
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