सिनेमालोक : भट्ट साहब की संगत
भट्ट साहब की संगत
( महेश भट्ट की 70 वें जन्मदिन पर खास)
-अजय ब्रह्मात्मज
कुछ सालों पहले तक महेश भट्ट से हफ्ते
में दो बार बातें और महीने में दो बार मुलाकातें हो जाती थीं.आते-जाते उनके दफ्तर
के पास से गुजरते समय कभी अचानक चले जाओ तो बेरोक उनके कमरे में जाने की छूट थी.
यह छूट उन्होंने ने ही दी थी. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बात-व्यवहार को समझने की
समझदारी उनसे मिली है.उनके अलावा श्याम बेनेगल ने मेरी फिल्म पत्रकारिता के आरंभिक
दिनों में अंतदृष्टि दी. फिलहाल महेश भट्ट की संगत के बारे में.इसी हफ्ते गुरुवार 20 सितम्बर को उनका 70 वां जन्मदिन है.
भट्ट साहब से मिलना तो 1982(अर्थ) और 1984(सारांश) में ही हो
गया था. दिल्ली में रहने के दिनों में इन फिल्मों की संवेदना ने प्रभावित किया
था.समानांतर सिनेमा की दो सक्षम अभिनेत्रियों(शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल) की यह
फिल्म वैवाहिक रिश्ते में स्त्री पक्ष को दृढ़ता से रखती है.घर छोड़ते समय पूजा का
जवाब ऐसे रिश्तों को झेल रही तमाम औरतों को नैतिक ताकत दे गया था.इस एक फिल्म ने
शबाना आज़मी को समकालीन अभिनेत्रियों में अजग जगह दिला दी थी.कई बार फिल्म के
किरदार अभिनेता-अभिनेत्रियों के व्यक्तित्व को नै छवि दे देते हैं. फिर भट्ट साहब
की ‘सारांश' ने संवेदना और सहानुभूति के स्तर पर बी वी प्रधान की पीड़ा ने हिला
दिया था.एक निर्देशक से यह दर्शक का परिचय था.
संयोग कुछ ऐसा बना कि मुंबई आना
हुआ.यहां फिल्म पत्रकारिता से जुड़ने का वासर मिला. अध्ययन और शोध में रूचि होने से
फिल्मों की ऐतिहासिक और सामाजिक और राजनीतिक आयामों पर विचार करने की आदत पड़ी.भट्ट
साहब से दो-चार सामान्य मुलाकातें हो चुकी थीं.तभी भोपाल में आयोजित एक सेमिनार
में भट्ट साहब के साथ मंच शेयर करने का मौका मिला.साम्प्रदायिकता के सवालों पर
केन्द्रित उस सेमिनार में मैंने महेश भट्ट की विवादित और पुरस्कृत फिल्म ‘ज़ख्म' के हवाले से कुछ
बातें की थीं.सेमिनार में मौजूद श्रोताओं और मित्रों को आश्चर्य हुआ था की कैसे
कोई भट्ट साहब की आलोचना उनके सामने कर सकता है.दूसरों की सोच से लग भट्ट साहब ने
हाथ मिलाने के साथ आदतन गले से लगा लिया था.
उन दिनों मैं मुंबई में दैनिक जागरण का
फिल्म प्रभारी था.फिल्म पत्रकारिता के पहलुओं को समझते हुए प्रयोग कर रहा था.मुंबई
पहुँचने के दो दिनों के अन्दर ही भट्ट साहब के पीआरओ का फ़ोन आया कि भट्ट साहब तुम
से मिलना चाहते हैं.इस सन्देश के साथ उसने मुझ से पूछा कि तुम ने भोपाल में ऐसा
क्या बोल दिया कि वे तुम से प्रभावित हैं.आकर मिलो...तय समय पर मुलाक़ात हुई.भट्ट
साहब ने फिर से गले लगाया और कहा कि फिल्म पत्रकारिता में आप जैसी सोच के
पत्रकारों को अधिक सक्रिय होना चाहिए.आप मुझ से मिलते रहें.अमूमन ऐसी भिडंत के बाद
फिल्मी हस्तियाँ नाराज़ हो जाती हैं और नज़रन्दाज करती हैं और यहाँ भट्ट साहब खुद ही
संगत का न्योता दे रहे थे.मुझे अपनी नज़र में रख रहे थे.उसके बाद मुलाकातें बढीं और
फिर एक समय आया कि उनके साथ काम करने का मौका मिला.
भट्ट साहब की संगत हमेशा प्रेरक
रही.मैंने उन्हें कभी निराश और हताश नहीं देखा.कई बार नाउम्मीदी से घिरने पर उनसे
संबल मिलता रहा है.रिश्तों की उलझनों की ऐसी बारीक समझ कम निर्देशकों और
व्यक्तियों में मिलती है.उनकी साफगोई के पीछे अनुभवों का पुलिंदा है.फिल्मों से
अलग उनका एक सांस्कृतिक और दार्शनिक व्यक्तित्व है.वे घनघोर किस्म से राजनीतिक और
साम्प्रदायिकता विरोधी व्यक्ति हैं.कुछ साल पहले तक वे हर विषय और मुद्दे पर बोलने
के लिए तैयार मिलते थे.अभी उन्होंने खुद को सीमित कर लिया है.कुछ तो उम्र और कुछ
देश का महौल ऐसा है कि विवेकी जन भी ख़ामोशी इख़्तियार कर रहे हैं.
70 वें जन्मदिवस पर भट्ट साहब को हार्दिक बधाई.
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