वे बन गए बुनियाद
वे बन गए बुनियाद
-अजय ब्रह्मात्मज
2015 में क्रिसमस के ठीक
पहले शाह रुख खान की ‘दिलवाले’ रिलीज हुई थी। इस फिल्म को मज़ेदार एक्शन-कॉमेडी फिल्मों के सफल
निर्देशक रोहित शेट्टी ने निर्देशित किया था। शाह रुख के साथ फिल्म में काजोल और
वरुण धवन-कृति सैनन की रोमांटिक जोड़ी थी। फिल्म के कुछ हिस्सों और ‘गेरुआ’ गाने की शूटिंग
बुल्गारिया में हुई थी। तात्पर्य यह कि पॉपुलर विधा की इस फिल्म में अनेक आकर्षण
थे। आम दर्शकों के साथ इस फिल्म को देखने का संयोग मिला था। फिल्म देखते हुए मुझे
सुखद आश्चर्य हुआ कि दर्शक ‘ऑस्कर भाई’ की भूमिका निभा रहे
संजय मिश्रा के परदे पर आने का इंतज़ार करते मिले और उनके दिखते ही हंसी की लहर
सिनेमाघर को लबालब कर रही थी। ऐसा आप ने भी महसूस किया होगा। संजय मिश्रा सरीखे
कलाकार फिल्मों की जान बन गए हैं। इन पर फिल्मों का दारोमदार हीरो से काम नहीं
रहता। अनेक फिल्मों की ये खासियत और खास बात बन जाते हैं। दर्शकों की संख्या बढ़ने
में मददगार होते हैं। ऐसे कलाकारों की लम्बी फेहरिस्त तैयार की जा सकती है।
पंकज त्रिपाठी,कुमुद मिश्रा,सौरभ शुक्ला,रिचा चड्ढा,सीमा पाहवा. विक्की
कौशल, स्वरा भास्कर,आदिल हुसैन,ब्रजेन्द्र काला,राजकुमार राव,नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी,मनोज बाजपेयी और
इरफ़ान…. इन नामों में से अनेक परिधि की सहयोगी भूमिकाओं से खिसक कर केंद्रीय
भूमिकाओं में भी नज़र आने लगे हैं। इनकी तादाद बढ़ती जा रही है. इन पर हिंदी फिल्म
इंडस्ट्री की निर्भरता टिकने लगी है। यह कहा जा सकता है कि पिछले 10 सालों में हर दसवीं
फिल्म में कोई एक कलाकार दर्शकों को चौंकाता है और फिल्म इंडस्ट्री का प्रिय बन
जाता है। गौर करें तो इनमें से अधिकांश एनएसडी,किसी अन्य थिएटर
संसथान या ग्रुप से आये कलाकार हैं। ये सभी प्रशिक्षित अभिनेता/अभिनेत्री हैं।
थिएटर के लम्बे और गहरे अनुभव और ज्ञान से लैस ये कलाकार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की
नयी पूँजी हैं। इन्हें पूछा और महत्व दिया जाता है। फिल्म के प्रचार और पोस्टर में
इनका नाम हीरो और हीरोइन के साथ लिया जाता है।
यह अचानक नहीं हुआ है। हिंदी फिल्मों में लेखकों और निर्देशकों की
नयी फसल के साथ उनकी ज़रुरत के मुताबिक ऐसे कलाकारों की मांग बढ़ी है। देश-गांव की
नयी कहानियों के नए किरदारों को निभाने के लिए नए किरदारों की आवश्यकता ने इनके
लिए ज़मीन तैयार की।
हिंदी फिल्मों में लम्बे समय तक सहयोगी
भूमिकाओं के लिए निश्चित कलाकारों को चरित्र अभिनेता/अभिनेत्री कहा जाता रहा है। दरअसल. कुछ दशक पहले तक हीरो-हीरोइन के अलावा बाकी किरदारों का
घिसा-पिटा स्वरुप बन गया था। मसलन अनुपम खेर,कादर खान और परेश
रावल के परदे पर आते ही दर्शक समझ लेते थे कि उनका क्या किरदार होगा? न लेखक,ना निर्देशक और ना ही
दर्शक को जहमत जहमत उठानी पड़ती थी। इस एकरूपता और परिपाटी में हिंदी सिनेमा आकंठ
डूबी थी। नयी सदी में नए निर्देशकों ने अपने परिवेश की कहानियों के लिए नए
किरदारों को गढ़ा तो उन्हें परदे पर विश्वसनीयता से निभाने के लिए ऐसे समर्थ और
सिद्ध कलाकारों की ज़रुरत पड़ी। कास्टिंग डायरेक्टर वजूद में आये और उनकी खोज और
सक्रियता बढ़ी। कलाकारों के सांचे में किरदारों को ढालने के बजाय किरदारों में
कलाकारों को ढालने का ट्रेंड बढ़ा। नित नए चेहरों की तलाश होने लगी। प्रशिक्षित
कलाकारों ने मिले किरदारों को ऑर्गेनिक अदाएं दीं। उन्हें नकली,नाटकीय और फ़िल्मी
होने से बचाया। पता चला कि धीरे-धीरे वे फिल्में के दम-ख़म के लिए अनिवार्य हो गए।
फिल्मों के कारोबार में इन सभी कलाकारों की अप्रत्यक्ष उपयोगिता महसूस की जाने
लगी।
कुछ सालों पहले एक बातचीत में एनएसडी के मुकेश तिवारी ने हिंदी
फिल्मों में अपने जैसे कलाकारों की स्थिति और महत्व को एक रूपक से समझाया था।
उन्होंने बताया था कि हिंदी फ़िल्में महल हैं तो स्टार उसके कंगूरे हैं। और हम
कलाकार वह स्तम्भ हैं,जिन पर ये कंगूरे टिके होते हैं। यह सच है कि दर्शक इन कंगूरों की
वजह से ही फ़िल्मी महल में आता है,लेकिन उस महल को हम थामे रहते हैं।
मुकेश तिवारी के इस रूपक में सच्चई और कड़वाहट है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के नियंता
इन प्रतिभाशाली और समर्थ कलाकारों का उपयोग सहयोगी भूमिकाओं में ही करते हैं।
उन्हें मेनस्ट्रीम कमर्शियल फिल्म में हीरो नहीं बनाते। उनके मुताबिक सांवले रंग
के देसी चेहरों के कलाकार हीरो मटेरियल नहीं होते। नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी के
समय से पैरेलल या प्रयोगधर्मी फ़िल्में ही उनका सहारा होती हैं। उनकी हद तय कर दी
जाती है।
आज भी सराहना और उपयोगिता के बावजूद उनकी काबिलियत केंद्रीय भूमिका
के योग्य नहीं आंकी
जाती। हाँ,सीमित बजट के
इंडिपेंडेंट निर्माता इन कलाकारों पर दांव लगाते हैं तो इन्हें कभी ‘आँखिन देखी’,’गुड़गांव’,’मसान’;’अलीगढ’ और ‘बरेली की बर्फी’ जैसी फ़िल्में बन जाती
हैं। केवल इरफ़ान और मनोज बाजपेयी अपवाद रहे,जिन्होंने तिरस्कार,वंचना और अस्वीकृति
के बावजूद अपनी मेहनत और लक्षित निरंतरता से खास और भरोसेमंद जगह बनायीं। इन दोनों
की नयी कड़ी के रूप में राजकुमार राव मजबूती से जुड़े हैं।
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