दरअसल : ‘औरत’ रीमेक में ‘मदर इंडिया’ हो जाती है,लेकिन….
दरअसल
‘औरत’ रीमेक में ‘मदर इंडिया’ हो जाती है,लेकिन….
-अजय ब्रह्मात्मज
रीमेक का मौसम है। मुंबई में तमिल,तेलुगू,मराठी,कोरियाई,अंग्रेजी और अन्य भाषाओँ की फिल्मों की
रीमेक बन रही हैं। पहले धड़ल्ले से कॉपी कर ली जाती थी। अब अधिकार लेकर उन्हें
आधिकारिक तरीके से हिंदी में पेश किया जा रहा है। मूल भाषा में किसी फिल्म की
सराहना और कमाई दूसरी भाषाओँ के फिल्मकारों को रीमेक के लिए प्रेरित करती हैं।
रीमेक की एक वजह यह भी रहती है कि नयी तकनीकी सुविधाओं के उपयोग से मूल फिल्म का
आनंद बढ़ाया जाये। युवा फ़िल्मकार इसे क्रिएटिव चुनौती की तरह लेते हैं। कुछ सालों
पहले तक मूल भाषा की फिल्मों से अनजान रीमेक भाषा की फिल्मों के दर्शक बगैर किसी
तुलना के ऐसी फिल्मों का आनंद लेते थे। कुछ सजग समीक्षक भले ही मूल और रीमेक की
तुलना में अक्सर रीमेक की आलोचना करते रहें… लेकिन दर्शक आनन्दित होकर संतुष्ट रहते
थे। इंटरनेट के इस दौर में सभी भाषाओँ की फ़िल्में सबटाइटल्स के साथ उपलब्ध होने से
फिल्मकारों की चुनौतियाँ बढ़ गयी हैं। हाल ही में ‘धड़क’ का ट्रेलर आया तो तुरंत उसकी तुलना मूल ‘सैराट’ से होने लगी। सोशल
मीडिया पर प्रशंसकों और आलोचकों के दो खेमे बन गए। ‘धड़क’ का हश्र तो फिल्म की रिलीज के बाद ही
पता चलेगा।
हिंदी समेत अन्य भाषाओँ में कुछ फिल्मकारों ने अपनी ही फिल्मों के
रीमेक की सफल कोशिशें की। अंग्रेजी में अल्फ्रेड हिचकॉक ने 1934 की अपनी फिल्म ‘द मैन हू नो टू मच’ को दो दशकों के बाद
को 22 सालों के बाद 1956
में फिर से बनाया। इसी प्रकार सेसिल बी
डिमेले ने 1923 की ‘द टेन कमांडमेंट्स’ को 1956 में नया रंग दिया। दोनों फिल्मकारों की दोनों(मूल और रीमेक) को
क्लासिक का दर्जा हासिल है। हिंदी में यह मेहबूब खान को इस प्रयोग में कामयाबी
मिली। उन्होंने 1940 की ‘औरत’ को 1957 में ‘मदर इंडिया’ नाम से विस्तार दिया। उनकी रीमेक ‘मदर इंडिया’ हिंदी की सर्वकालिक
क्लासिक मानी जाती है। यह फिल्म विदेशी भाषाओँ की श्रेणी में अकादेमी अवार्ड के
लिए भारत से भेजी गयी थी।
महबूब खान की ’औरत’ बाबूभाई मेहता और वजाहत मिर्ज़ा ने लिखी थी। इस फिल्म में नायिका की
भूमिका सरदार अख्तर ने निभाई थी। लाहौर में जन्मी सरदार अख्तर ने स्टंट भूमिकाओं
से शुरूआत की। बाद में उनकी प्रतिभा पहचान में आयी तो के एल सहगल के साथ भी उन्हें
फ़िल्में मिलीं। महबूब खान की पहली निर्देशित फिल्म ‘अलीबाबा’ में काम किया। इस फिल्म के निर्माण
के दौरान ही महबूब खान और सरदार अख्तर की नजदीकियां बढ़ीं। महबूब खान ने ‘औरत’ में उन्हें मां का
असरदार किरदार मिला। सरदार अख्तर ‘औरत’ को अपनी श्रेष्ठ फिल्म मानती थीं। इस फिल्म में उनके पति शामू की
भूमिका अरुण कुमार आहूजा(गोविंदा के पिता) ने निभाई थी। इसी फिल्म की कथा को महबूब
खान ने ‘मदर इंडिया’ में विस्तार दिया। ‘औरत’ के निर्माण के समय बजट और तकनीक की सीमाओं की वजह से महबूब खान अपनी
कल्पना को मूर्त रूप नहीं दे सके थे। 1956-57 में टेक्नीकलर के इस्तेमाल से उन्होंने
फिल्म को रंगीन किया। ‘मदर इंडिया’ में गहरे धूसर और नारंगी रंगों की छटा से ग्रामीण भारत की खूबसूरती
और ज़मीनी हकीकत को बारीकी के साथ चित्रित किया गया। इससे फिल्म के प्रभाव में
इजाफा हुआ। उनकी दोनों फिल्मों के कैमरामैन फ़रीदून ईरानी थे। दोनों की संगत से मूल
कहानी में निखार और पेशकर आया।
रीमेक की यह खूबी है और होनी भी चाहिए कि मूल कथा को बरक़रार रखते हुए
विन्यास,चित्रण और प्रस्तुति में नवीनता हो। ‘मदर इंडिया’ पुरानी फिल्म ‘औरत’ की हूबहू नक़ल नहीं
थी। महबूब खान ने सामान्य औरत के किरदार को ‘मदर इंडिया’ का दर्जा देकर उसकी
चारित्रिक विशेषताएं बढ़ा दी थीं।
उन्होंने भाव और कथ्य को गाढ़ा किया था।
इस फिल्म में मां की तकलीफ घनी और मुश्किल फैसले की घडी की दुविधा गहरी थी। आज़ाद
भारत की माँ समाज के हित में वसूलों के लिए बेटे की जान लेने से भी नहीं हिचकती।
इस फिल्म ने महबूब खान को अपने समय का श्रेष्ठ फेमिनिस्ट डायरेक्टर बना दिया था।
इस फिल्म के लिए नरगिस आज भी याद की जाती हैं।
निर्देशक का ध्येय कलात्मक ऊंचाई हासिल करना हो तो तभी ‘औरत ‘ रीमेक में ‘मदर इंडिया’ बन पाती है। तब रीमेक
की वजह मूल फिल्म की कामयाबी और कमाई तो हरगिज नहीं थी।
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