फिल्‍म लॉन्‍ड्री : इरफान और मनोज बाजपेयी : कहानी 'आउटसाइडरों' की


फिल्‍म लॉन्‍ड्री

इरफान और मनोज बाजपेयी : कहानी 'आउटसाइडरों' की


-अजय ब्रह्मात्‍मज
शुक्रवार 6 अप्रैल को हिंदी में दो फिल्‍में रिलीज हुईं। ‘ब्‍लैकमेल’ और ‘मिसिंग’...दोनों फिल्‍मों में एक बात समान थी। दोनों फिल्‍मों के नायक व मुख्‍य अभिनेता रंगमंच से आए अभिनेता हैं। दोनों हिंदी फिल्‍मों के लिए ‘आउटसाइडर’ हैं। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री की सोच और शर्तों के हिसाब से दोनों ‘हीरो मैटेरियल’ नहीं माने जाते। फिर भी अपनी जिद्द,लगन और मेहनत से उन्‍होंने हिंदी फिल्‍मों के पर्दे पर मुख्‍य और महत्‍वपूर्ण किरदारों को निभाया और खास मुकाम हासिल किया। बतौर नायक उन्‍होंने अनेक फिल्‍में कर ली हैं। उन्‍होंने खुद के लिए सम्‍मानजनक जगह बनाई है और हिंदी फिल्‍मों में आने के आकांक्षी प्रतिभाओं के प्रेरक बने हैं। दोनों अभिनेता के साथ निर्माता भी बन चुके हैं। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। वे दृढ़ कदमों के साथ लगातार आगे बढ़ रहे हैं।

संक्षेप में दोनों का सफर लगभग एक सा रहा है। दोनों अपने राज्‍यों से दिल्‍ली आए। दिल्‍ली में रंगमंच का शिक्षण और प्रशिक्षण लेने के बाद उन्‍होंने अपने प्रदर्शन से अभिभूत किया और फिर मुंबई आए। दिल्‍ली आने के पहले दोनों ने तय कर लिया था कि उन्‍हें मुंबई की हिंदी फिल्‍मों का रुख करना है। दिल्‍ली प्रवास के दौरान वे मुंबई के मौकों की तैयारियों में रहे। जैसे ही मौका मिला उन्‍होंने उसका लाभ उठाया और धीरे-धीरे अपनी मौजूदगी मजबूत की। 25-30 सालों के इस सफर में उन्‍होंने दर्शकों की प्रशंसा और संस्‍थानों के पुरस्‍कार की मुहर से अपनी सफलता का औचित्‍य सही ठहराया। मनोज बाजपेयी का फिल्‍मी सफर अगले साल 25 सालों का हो जाएगा। वहीं इरफान की यात्रा 30 सालों की हो चुकी है। दोनों की उम्र में दो सालों का फर्क है।

मैं मनोज बाजपेयी के इस सफर में उनकी फिल्‍मों की सूची नहीं पेश करूंगा। इंटरनेट पर उनका नाम लिख कर अनेक स्‍्रोतों से इसकी जानकारी ली जा सकती है। हिंदी फिल्‍मों के हीरो की सूची बनाएं तो पाएंगे कि इनमें हिंदी प्रदेशों से आए अभिनेताओं की संख्‍या दोनों हाथें की उंगलियों के पोरों को भी पूरा नहीं कर पाएंगी। बिहार,मध्‍यप्रदेश, राजस्‍थान और उत्‍तर प्रदेश की प्रतिभाओं ने अभिनय में हीरो के अलावा बाकी सभी क्षेत्रों में योगदान किया है। हिंदी फिल्‍मों को संवारा और विस्‍तार दिया है। हीरो की भूमिकाओं के लिए इन प्रदेशों के अभिनताओं को योग्‍य नही मानने के अनेक पूर्वाग्रह रहे हैं। ये पूर्वाग्रह ही शर्त बन गए और हिंदी प्रदेशों के अभिनेताओं का हिंदी फिल्‍मों में आना निषिद्ध हो गया। गौर करें तो खास कर हिंदी फिल्‍मों के टॉकी होने के बाद हीरो के रोल के लिए मुख्‍य रूप से उत्‍तर पश्चिम भारत से आए अभिनेताओं को प्राथमिकता दी गई। गौर वर्ण,नीली-भूरी आंखें,उन्‍नत ललाट,सुतवां नाक,घनी भवें,सीधे बाल और खास उच्‍चारण व लहजे के साथ हिंदी-उर्दू बोलने में दक्ष पुरुषों को ही हीरो के लायक समझा गया। यह अघोषित परिपाटी आज भी चल रही है। सिद्धार्थ मल्‍होत्रा अयोग्‍य होने के बावजूद हीरो मैटेरियल है,जबकि अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके राजकुमार राव अभी तक लोकप्रिय हीरो की पहचान नहीं रखते। आज के निर्देशकों से बातें करें तो इस सोच से अनजान हाने के बावजूद हीरो के लिए वे ऊपर लिखे कथित गुण ही खोजते हैं।

मनोज बाजपेयी और इरफान सरीखे सपने और सच्‍चाई में बतौर हीरो लांच होने की बात सोच भी नहीं सकते। हिंदी फिल्‍मों के कारोबार का बड़ा हिस्‍सा पंजाबी मूल के व्‍यक्तियों के हाथों में है। कहा जाता है कि हिंदी फिल्‍मों में लॉबी नहीं है। नेपोटिज्‍म नहीं है। सच तो यही है कि लॉबिंग और नेपोटिज्‍म की वजह से ‘आउटसाइडर’ और हिंदी प्रदेशों से आए अभिनेताओं का संघर्ष बढ़ जाता है। यहीं तक हिंदी प्रदेशों से आए निर्माता-निर्देशक भी ऊपर वर्णित कथित गुणों के अभिनेताओं से अपनी फिल्‍में बिकाऊ बनाते हैं। ‘पंचलाइट’ में अपने अभिनय से सीमित दर्शकों को प्रभावित कर चुके अमितोष नागपाल को अभी तक न तो पहचान मिली है और न कायदे के अवयर मिले हैं। अगर चिह्नित करना शुरू करें तो अमितोष जैसे अनेक अभिनेता मुंबई की गलियों में ए बेहतरीन अवसर की तलाश में भटकते और उम्र बिताते नजर आ जाएंगे। कभी मौका मिलता भी है तो इन्‍हें सहयोगी भूमिकाओं के काबिल समझा जाता है। एक बार एक प्रशिक्षित अभिनेता ने थोड़े दुख के साथ कहा था कि हमारे जैसे अभिनेता फिल्‍मों में स्‍तंभ का काम करते हैं(जिनके ऊपर पॉपुलर हीरो कंगूरों की तरह लटका दिए जाते हैं। हाल में आई और सफल रही ‘बागी 2’ ताजा उदाहरण है। मनोज बाजपेयी,रणदीप हुडा,दीपक डोबरियाल और विपिन शर्मा इस फिल्‍म के नट-बोल्‍ट थे। एक्‍शन में दक्ष भावहीन हीरो टाइगर श्रॉफ को उन्‍होंने 100 करोड़ी क्‍लब में पहुंचा दिया।

एक व्‍यावहारिक अड़चन भी है। हिंदी प्रदेशों से आए आउटसाइडर पढ़ाई,करिअर और संघर्ष में कई साल बिता देने के बाद जब फिल्‍मों का रुख करते हैं तो उनकी उम्र हीरो के लिए ज्‍यादा हो चुकी होती है। अमिताभ बच्‍चन अपवाद हैं। हिंदी फिल्‍मों के हीरो की लांचिंग 20-22 की उम्र में हो जाती है। एक बार हीरो बन जाने के बाद वे 52 से 60 साल की उम्र तक हीरो बने रहते हैं। ‘आउटसाइडर’ अभिनेता इस उम्र में असमंजस के थपेड़ों में लड़खड़ा रहे होते हैं। वे जब तक मन बनाते हैं और उन्‍हें अवसर मिलते हैं तब तक उनके लिए साइड या कैरेक्‍टर रोल ही बचते हैं। यह अलग और उल्‍लेखनीय बात है कि ऐसी भूमिकाओं से आरंभ कर भी मनोज बाजपेयी और इरफान केंद्रीय भूमिकाओं के योग्‍य बने।

शुरू से ही मनोज बाजपेयी और इरफान के संघर्ष और उपलब्धियों का गवाह होने और उनसे निरंतर संपर्क में रहने ये यह बात भी समझ में आई कि रंगमंच और बाहर से आए अभिनेताओं के चमकने पर उन्‍हें ‘निगेटिव’ भूमिकाओं में घेरने और समेटने की कोशिशें जारी हो जाती हैं। निर्देशकों को ऐसा समर्थ अभिनेता चाहिए होता है जो फिल्‍म के कंफ्लिक्‍ट को जोरदार तरीके से पर्दे पर पेश करे और दर्शकों को मोहित किए रहे। मनोज और इरफान ने स्‍पष्‍ट सोच और इरादे से ऐसे ऑफर ठुकराने का जोखिम लिया। नाराज फिल्‍म इंडस्‍अ्री ने उन्‍हें दरकिनार भी किया। फिर भी वे टिके रहे। जिद्दी बच्‍चे की तरह खेल से बाहर नहीं निकलने पर अड़े रहे। उन्‍हें ठेलने और गिराने की कोशिशें कभी बंद नहीं हुईं। आज भी तमाम उपलब्ध्यिों के बावजूद उनका मूल्‍यांकन नहीं हो पाया। ग्‍लॉसी पत्रिकाएं उन्‍हें अपने कवर पर जगह नहीं देतीं। अंग्रेजी के अखबार और उनकी नकल में हिंदी के अखबार भी उन्‍हें सुर्खियों से महरूम रखते हैं। माना ही नहीं जाता कि वे भी पाठकों और दर्शकों को आकर्षित करते हैं।

ले-देकर क्रिटीक अवार्ड देकर यह भी बता दिया जाता है कि आप मुख्यधारा नहीं हैं।


इस पृष्ठभूमि में मनोज बाजपेयी और इरफान की सफलताएं उल्लेखनीय हो जाती हैं। दो अलग दिशाओं से शिखर पर पहुंचे दोनों कलाकार थिएटर और हिंदी प्रदेशों से आ रही और आने वाली प्रतिभाओं के लिए मिसाल हैं।

पुनःश्च :

मीडिया और आम दर्शक में कई लोग मानते हैं कि मनोज बाजपेयी भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक हैं। सच्चाई यह है कि मनोज बाजपेयी ने तीन बार कोशिश की, लेकिन हर बार एनएसडी ने उन्हें ड्रामा स्कूल के योग्य छात्र नहीं समझा. हताशा के उन दिनों में उन्हें रघुवीर यादव ने सही मशविरा दिया। भला हो रघुवीर यादव का जिन्होंने मनोज को बैरी जॉन से मिलवाया। बैरी जॉन की पारखी नज़रों ने उन्हें पहचान और तराशा। कम लोग जानते हैं कि बैरी जॉन के ग्रुप में मनोज बाजपेयी और शाह रुख खान एक साथ रंगमंच पर सक्रिय थे.
 


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