फिल्म लॉन्ड्री : पोस्टर ही पहली झलक हैं फिल्म की
फिल्म लॉन्ड्री : पोस्टर ही पहली झलक हैं फिल्म की
-अजय ब्रह्मात्मज
सोशल मीडिया के इस दौर में सारी सूचनाएं रियल
टाइम(तत्क्षण) में प्रसारित और ग्रहण की
जा रही हैं। इस प्रभाव में फिल्म के प्रचार के स्वरूप में भी बदलाव आया है। फिल्मों
के पोस्टर प्रचार के मूल साधन हैं। डिजिटल युग आ चुका है। प्रचार भी वर्चुअल स्पेस
में उपयुक्त स्थान खोज रहा है। अभी यह ठोस रूप से निर्धारित नहीं हो सका है।
संक्रांति के इस समय में संभावनाओं और तरीकों के ऊहापोह में ही नई प्रविधियां आकार
ले रही हैं। किसी नई प्रविधि की चलन के प्रचलन बनने के पहले ही कुछ नया हो जा रहा
है। पोस्टर को ही ‘फर्स्ट लुक’ का नाम दे दिया गया है। लोकप्रिय स्टार की महंगी
फिल्म हो तो देश के प्रमुख अखबारों के साथ सोशल मीडिया पर ‘फर्स्ट लुक’ जारी किए
जा रहे हैं। मझोली या छोटी फिल्म हो तो खर्च बचाने और पहुंच बढ़ाने के लिए धड़ल्ले
से सोशल मीडिया का इस्तेमाल हो रहा है। हमदर्द,प्रशंसक और पत्रकार उन्हें शेयर
करते हैं। उक्त फिल्म से संबंधित हैशटैग ट्रेंड होने लगता है। निर्माता खुश होता
है कि उसकी फिल्म का ‘फर्स्ट लुक’ ट्रेंड हो रहा है। किसी भी फिल्म के लिए
दर्शकों के बीच यह पहली फतह होती है। सोशल मीडिया पर ट्रेंड का पताका फहराने के
बाद आगे की रणनीतियां तय की जाती हैं। यहां नोट कर लें कि हिंदी फिल्मों के
‘फर्स्ट लुक’ अंग्रेजी(रामन लिपि में हिंदी शीर्षक) में ही जारी किए जाते हैं।
भाषा की इस भेदनीति और समझ पर आगे हम संक्षिप्त चर्चा करेंगे।
पहले अतीत में लौटते हैं। 1913 में दादा साहेब
फालके ने पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ का निर्माण और निर्देशन किया। इस
फिल्म का पोस्टर खोजें तो एक विज्ञापन मिलता है,जिसमें फिल्म के प्रदर्शन की
सूचना है। डेढ़ घंटे के इस शो में डांसर,जग्लर और कॉमेडियन भी मौजूद थे। रोजाना
चार शो के इस प्रदर्शन में दोगुना प्रवेश शुल्क लिया गया था। तब अखबारों में
विज्ञापन के साथ हैंडबिल बांटे जाते थे। दर्शकों तक पहुंचने का यही साधन था। बहरहाल,मूक फिल्मों के निर्माण से लेकर टॉकी फिल्मों
के शुरूआती दिनों तक फिल्मों के पोस्टर हाथों से पेंट किए जाने लगे थे। उन्हें
प्रिंट कर सिनेमाघरों,प्रदर्शन स्थलों और शहर के प्रमुख स्थानों पर चिपका दिया
जाता था। धरोहरों के संरक्षण के प्रति लापरवाह भारतीय समाज में तीसरे दशक के आरंभ
से शुरू हुए हाथों से पेंट किए पोस्टर नहीं मिलते। सबसे पुराना पोस्टर 1924 की
मराठी फिल्म ‘कल्याण खजीना’ का मिला है। इस फिल्म के निर्देशक बाबूराव पेंटर
थे। उउनका पूरा नाम बाबूराव कृष्णराव मिस्त्री था। वे थिएटर कंपनियों के लिए सीन
पेंट किया करते थे,इसलिए उनका उपनाम पेंटर पड़ गया। बाबूराव पेंटर देश के पहले
निर्देशक थे,जिन्होंने फिल्मों के पोस्टर की जरूरत को समझा। उनके देखादेखी
दूसरे निर्माता-निर्देशकों ने भी पोस्टर के महत्व और प्रभाव को समझते हुए हाथ से
पेंट किए पोस्टर अपनाए। फिल्मों के प्रचार का यही मुख्य तरीका बना। कालांतर में
हिंदी सिनेमा के स्वर्णकाल में हाथों से पेंट किए पोस्टर का चलन मजबूत हुआ। आज
भी कमोबेश पोस्टर छपते हैं। हां,अब वे हाथ से पेंट नहीं होते। उन्हें डिजिटिल से
परिष्कृत किया जाता है। फोटोशॉप और स्पेशन इफेक्ट से मनचाही छवि क्रिएट की जाती
है। अब यह अधिक रंगीन,मनोहारी और आकर्षक हो गया है। फिर भी पुराने पोस्टरों का
विंटेज महत्व है। फिल्मप्रेमी,कला संग्रहालय,फिल्म इतिहासकार,संग्रहालय और
इंटीरियर डेकोरेटर के बीच पुराने पोस्टर की मांग बढ़ गई है। इनके अलावा ये किसी
भी फिल्म में पीरियड बताने की निश्चित छवि के रूप में काम आते हैं। आज की किसी
फिल्म में अगर दीवारों पर ‘शोले’ के पोस्टर दिखें तो दर्शक बगैर बताए ही समझ
जाते हैं कि 1975 के आसपास की घटनाएं और किरदार हैं।
हाथों से पेंट किए पोस्टर में रंग चटख,नैन-नक्श
धारदार,फिल्म के प्रमुख किरदार और हिंदी,उर्दू व अंग्रेजी में फिल्मों के नाम
होते थे। फिल्मों के नाम लिखने की टाइपोग्राफी में 3डी तकनीक अपनायी जाती थी,ताकि
दूर से भी अलग-अलग कोणों से फिल्म का नाम पढ़ा जा सके। कोशिश रहती थी कि पोस्टर
के बीस-तीस प्रतिशत हिस्से में ही कुछ लिखा जाए। बाकी 70-80 प्रतिशत हिस्से में
फिल्म के किसी दृश्य से निकाला गया क्लोज अप हो। हाथें से पेंट करने वाले
आर्टिस्ट किसी एक स्कूल या खास ट्रेंनिंग लेकर नहीं आते थे,इसलिए उनके बनाए पोस्टरों
में कल्पना और सोच की विविधता रहती थी। अपने समय में या बाद में मशहूर हुए
चित्रकारों ने भी फिल्म पोस्टर बनाए। ूकबूल फिदा हुसैन के पोस्टर प्रेम के बारे
में हम सभी जानते हैं। अफसोस की बात है कि इन पेंटरों पर कभी कोई किताब नहीं लिखी
गई और न हिंदी फिल्म के इतिहास में उनके योगदान का उल्लेख किया गया। इदो बाउमन
और राजेश देवराज ने ‘ द आर्ट ऑफ बालीवुड’ में कुछ पेंटरों और पोस्टरों के हवाले
से हिंदी फिल्मों की इस विचित्र मगर रोचक परंपरा के बारे में लिखा है। उनके
मुताबिक हालीवुड में फिल्मकार जल्दी ही पेंट की जगह फोटोग्राफिक छवियों का इस्तेमाल
करले लगे थे। हिंदी फिल्मों में यह सिलसिला लंबा चला। दूसरी खास बात यह भी रही कि
स्थानीय स्तर पर पोस्टर पेंट किए जाने से एक ही फिल्म की अलग-अलग छवियां बनीं।
दर्जनों पोस्टर बनते थे। उन्हें अलग भंगिमा दी जाती थी। नौवे दशक मं तो उत्त्र
भारत में पोस्टरों में हीरो के हाथ में बंदूक थमा दी जाती थी। उसके होठों और ललाट
से खून टपकना जरूरी होता था। तीन साल पहले अपने कस्बे वीरपुर में मुझे स्थानीय
सिनेमाघर के मालिक ने बताया था कि जिन पोस्टरों में खून नहीं होता,उनमें वे गाढ़ा
लाल रंग हीरो के चेहरे से टपका देते हैं। भले ही फिल्म में एक भी खूनी द(श्य न
हो। एक बार कुछ दर्शकों ने फिल्म में हिंसा और खून के दृश्य नहीं होने पर मैनेजर
को रगेद दिया था। दुर्भाग्य ही है कि ऐसे यूनिक पोस्टर के संरक्षण और रखरखाव पर
किसी ने ध्यान नहीं दिया। बाबूराव पेटर,मकबूल फिदा हुसैन से लेकर नौवें दशक तक
सक्रिय रहे गुमनाम पेंटरों ने ही हिंदी फिल्मों के इतिहास को हाथ से पेंट किए
पोस्टरों के जरिए जीवित और संरक्षित किया। ये सभी निजी अभ्यास से इस विधा में
पारंगत हुए। आजादी के पहले की हिंदी फिल्मों के पोस्टर अप्राप्य हो गए हैं।
हाथों से पेंट किए पोस्टर की छवियों या कागज पर छपे पोस्टर मिल जाते हैं,लेकिन
मूल कैनवास गुम हो गए।
डिजिटल युग में पोस्अर और पोस्टर की छवियां
तेजी से बदली हैं। कंप्यूटरजनित छवियों ने कल्पना को नई उड़ान दी है। अब राहुल
नंदा जैसे डिजायनर अपने स्टूडियो में इंटरनेशनल स्तर के पोस्टर डिजायन कर सकते
हैं। इन दिनों मूविंग पोस्टर का भी चलन बढ़ा है। इसमें 10 से 30 सेंकेंड में फिल्म
का पूरा पोस्टर टायटल और छवियों के साथ नमूदार होता है। कंप्यूटर के प्रयोग ने
कुछ सीमाएं भी क्रिएट की हैं। इन दिनों फिल्में के पोस्टर हिंदी में कम दिखते
हैं। इसकी एक व्यावहारिक दिक्क्त है कि अंग्रेजी की तरह हिंदी में भिन्न्-भिन्न्
फांठ उपलब्ध नहीं हैं। जल्दीबाजी में अंतिम समय में फायनल किए जा रहे पोस्टर के
लिए अंग्रेजी टायटल से मिलते-जुलते फांट में हिंदी में नाम लिख पाना मुमकिन नहीं
होता। इस व्यावहारिक दिक्कत के साथ लापरवाही और ओढ़ी गई भेदनीति भी है। माना
जाता है कि अंग्रेजी में पोस्टर लाने से सोशल मीडिया के अधिकांश यूजर उसे समझ
लेते हैं। यह धारणा के साथ सच्चाई भी है कि सोशल मीडिया पर अंग्रेजी यूजर ही अधिक
हैं। साथ ही हिंदीभाषी भी सोशल मीडिया पर अंग्रेजी में सहज और सुघड़ रहता है। स्मार्ट
फोन में हिदी की उपलब्धता और सुविधा नहीं होने से वह अंग्रेजी पढ़ने और समझने का
अभ्यस्त हो जाता है। पिछले कुुछ सालों से हिंदी में पोस्टर लाने की ललकार लगाने
से कुछ निर्माता और निर्देशकों ने भले ही थोड़ी देरी से लेकिन हिंदी में पोस्टर
लाने पर ध्यान दिया है।
पुन:श्च :
रितिक रोशन की फिल्म ‘कृष’ आने वाली
थी। उनके पिता और फिल्म के निर्माता-निर्देशक वितरकों से मिल रहे थे। मुझे याद है
छत्तीसगढ़ से आए वितरक ने उनसे आग्रह किया कि पोस्टर पर हिंदी में ‘कृष’ लिखवा
दें। राकेश रोशन ने मुस्कराते और समझााते हुए कहा कि पोस्टर पर रितिक रोशन की
दो-दो छवियां(मास्क रहित और मास्क सहित) हैं। दर्शक तो पहचान ही लेंगे। फिल्म
की इतनी चर्चा है कि वे समझ ही जाएंगे कि यह
‘कृष’ ही है। छत्तीसगढ़ से आए वितरक ने उनकी बात ध्यान से सुनने के बाद
इतना ही जोडा़ कि आप नहीं लिखेंगे तो हम वहां पोस्टर पर नील से ‘कृष’ लिख देंगे।
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