सिनेमालोक : मंटो और इस्मत साथ पहुंचे कान
सिनेमालोक
मंटो और इस्मत साथ पहुंचे कान
-अजय ब्रह्मात्मज
कैसा संयोग है? इस्मत चुगताई और सआदत हसन मंटो एक-दूसरे से इस कदर जुड़ें हैं कि
दशकों बाद वे एक साथ कान फिल्म फेस्टिवल में नमूदार हुए। इस बार दोनों सशरीर वहां
नहीं थे ,लेकिन उनकी रचनाएं फिल्मों की शक्ल में कान पहुंची थीं। मंटो के
मुश्किल दिनों को लेकर नंदिता दास ने उनके ही नाम से फिल्म बनाई है ‘मंटो’. इस फिल्म में
नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी शीर्षक भूमिका निभा रहे हैं। यह फिल्म कान फिल्म फेस्टिवल ‘उन सर्टेन रिगार्ड’ श्रेणी में प्रदर्शित
हुई। वहीँ इस्मत चुगताई की विवादस्पद कहानी ‘लिहाफ’ पर बानी फिल्म का फर्स्ट लुक जारी किया
गया। इसका निर्देशन रहत काज़मी ने किया है और तनिष्ठा चटर्जी व् सोना चौहान ने
इसमें मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं। दोनों अपनी रचनाओं पर बानी फिल्मों के बहाने एक
साथ याद किये गए।
इस्मत और मंटो को पढ़ रहे पाठकों को मालूम होगा कि दोनों ही अपने समय
के बोल्ड और और रियलिस्ट कथाकार थे। दोनों के अफसानों में आज़ादी के पहले और
दरमियान का समाज खुले रूप में आता है। उन्होंने अपने समय की नंगी सच्चाई का
वस्तुनिष्ठ चित्रण किया। पवित्रतावादी तबके ने उनकी आलोचना की और उनके खिलाफ
मुक़दमे किए। यह भी एक संयोग ही है कि मंटो की कहानी ‘बू’ और इस्मत की कहानी ‘लिहाफ’ के खिलाफ दायर मुक़दमे
की सुनवाई एक ही दिन लाहौर कोर्ट में हुई। उस दिन दोनों ने ही लाहौर में सुनवाई के
बाद खूब मौज-मस्ती की। दोनों की तरफ से हरिलाल सिबल ने जिरह की थी। हरिलाल सिबल आज
के चर्चित वकील और नेता कपिल सिबल के पिता थे। वे इस मुक़दमे की यादों को दर्ज करना
चाहते थे। अगर उन्होंने कुछ लिखा हो तो कपिल सिबल को उसे प्रकाशित करना चाहिए।
आज की पीढ़ी के पाठकों को इंटरनेट से खोज कर ‘बू’ और ‘लिहाफ’ पढ़नी चाहिए। पिछले कुछ
सालों में नसीरुद्दीन साह और दूसरे रंगकर्मी इस्मत और मंटो की कहानियों और
ज़िन्दगियों को मंच पर उतरने की सफल कोशिशें कर रहे हैं। पिछले दस सालों में इस्मत
और मंटो अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक पठनीय लेखक हो गए हैं। जिसने उन्हें नहीं पढ़ा है,वह भी बातों-विवादों
में उनकी वकालत करता नज़र आता है। भारतीय समाज की श्रुति परमपरा पुरानी है। बगैर
खुद पढ़े भी लोगबाग ज्ञाता हो जाते हैं। दोनों की फिल्मों की रिलीज के मौके पर उनके
प्रकाशकों को उनकी चुनिंदा कहानियों का संकलन लाना चाहिए। वक़्त बदल चूका है,लेकिन हालात में
ज़्यादा तबदीली नहीं आयी है। अभी के लेखक उनकी तरह मुखर और साहसी नहीं हैं। ज़रुरत
है की इस्मत और मंटो की प्रासंगकिता रेखांकित करने के साथ इस पर भी विचार हो कि
हालात बद से बदतर क्यों होते जा रहे हैं?
नादिता दास और रहत काज़मी की फ़िल्में आगे-पीछे रिलीज होंगीं। नवाज़ और
नादिता की वजह से ‘मंटो’ के प्रति दर्शकों की जिज्ञाशा अधिक है। यह फिल्म लेखक मंटो की ज़िन्दगी
में भी झांकती है,जबकि राहत काज़मी की ‘लिहाफ’ इस्मत चुगताई की कहानी के दायरे में रहती है। इस्मत की ‘लिहाफ’ में बेगम जान और
रब्बो के लेस्बियन रिश्ते की झलक है,जिसे उनकी किशोर उम्र की बहतिजी देख
लेती है। उसी की जुबानी कहानी लिखी गयी है। अच्छी बात है की दोनों ने मुक़दमे के
दौरान अपना पक्ष रखा और झुकने का नाम नहीं लिया। तब साहित्यिक खेमों का एक तबका इनके
समर्थन में खड़ा हुआ तो दूसरा तबका नसीहतें देने से बाज नहीं आया। तब मंटो ने कहा था,’मैं सनसनी नहीं
फैलाना चाहता। मैं समाज,सभ्यता और संस्कृति के कपडे क्यों उतारूंगा? ये सब तो पहले से
नंगे हैं। हाँ, मैं उन्हें कपडे नहीं पहनाता,क्योंकि वह मेरा काम नहीं है। वह दरजी
का काम है।’ कहते हैं जब जज ने उनसे कहा की उनकी ‘बू’ कहानी से बदबू फैल गयी है तो अपने
विनोदी अंदाज में मंटो ने कहा था,’जज साहब ‘फिनायल’ लिख कर बदबू मिटा दूंगा।’
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